संविधान का दर्शन [Philosophy of Indian Constitution]
संविधान का दर्शन तात्पर्य यह है कि भारतीय संविधान की समस्त संरचना उसके स्वरूप व उसकी मुख्य विशेषताओं का स्पष्ट विवरण प्रस्तुत करना है । जिसके माध्यम से हम संविधान को ठीक तरीके से समझ सकते हैं तथा हम भारतीय संविधान से जुड़े बाद विवादों को समझते हैं ।
सभा की उत्पत्ति और गठन
सबसे पहले गांधी ने कहा था कि भारत की जनता को अपनी नियति स्वयं गढ़नी होगी क्योंकि भारत जनता के हाथों में आकर ही अपना स्वा हासिल कर सकता है । 1922 में गांधी जी ने कहा की “स्वराज ब्रिटिश संसद का तोहफा ना होकर भारत की जनता द्वारा अपनी मर्जी से चुने गए प्रतिनिधियों से इसका निर्माण होना चाहिए”।
इसके अतिरिक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान सभा की मांग 1934 में की थी। यह मांग प्रमुख रूप से एमएन रॉय द्वारा की गई थी। एमएन रॉय ने ही सर्वप्रथम संविधान सभा के गठन की बात की थी ।
इसके बाद कई प्रांतों की विधानसभाओं तथा 1937 में केंद्रीय विधानसभा व फैजपुर, हरिपुर, त्रिपुरी और अंत में 1945 के शिमला सम्मेलन में कांग्रेस इस बात को लगातार दोहराती रही कि भारत एक ऐसे संविधान को ही स्वीकार कर सकता है जिसकी रचना जनता ने स्वयं की हो और जिसमें विदेशी सत्ता का कोई हस्तक्षेप ना हो।
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सर स्टेफर्ड कृप्स इस विचार से सहमत थे कि भारतीय संविधान की रचना भारतीय जनता के एक निर्वाचित निकाय द्वारा की जानी चाहिए ।
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