संविधान का दर्शन

संविधान का दर्शन | philosophy of the indian constitution

भारतीय संविधान के दर्शन की शुरुआत प्रमुख रूप से 1922 से मानी जा सकती है जब गांधी जी ने मांग की थी कि भारतीय संविधान सभा का निर्माण भारतीयों द्वारा किया जाना चाहिए। इसके पश्चात 1928 में नेहरू रिपोर्ट में भी इस बात का समर्थन किया गया कि भारतीय द्वारा ही संविधान सभा का निर्माण किया जाना चाहिए। क्रिप्स मिशन 1942 द्वारा पहली बार यह स्वीकार किया गया कि भारत के लिए संविधान का निर्माण स्वयं भारतीय जनता के द्वारा होगा इसके पश्चात कैबिनेट मिशन 1946 के द्वारा इसके गठन का प्रारूप निर्मित किया गया। 

 

संविधान का दर्शन

 

9 दिसंबर 1946 को इस की पहली बैठक हुई तथा संविधान निर्माण की शुरुआत 13 दिसंबर 1946 से हुई जब नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ सभा में प्रस्तुत किया। नेहरू के इस उद्देश्य प्रस्ताव से ही भारतीय संविधान के दर्शन की शुरुआत मानी जाती है। जिसे बाद में संविधान में प्रस्तावना के रूप में जोड़ा गया। भारतीय संविधान के दर्शन की संक्षिप्त व विस्तृत व्याख्या करना संभव नहीं है परंतु यहां कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का वर्णन किया गया है जो संविधान के दर्शन की रूपरेखा तैयार करती है यह निम्नलिखित हैं;- 

प्रस्तावना

संपूर्ण भारत संपूर्ण संविधान में प्रस्तावना को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है यह संपूर्ण संविधान की एक लघु व्याख्या करता है इसकी पवित्रता को देखते हुए ही नेहरू ने इसे “संविधान की कुंजी” तथा के एम मुंशी ने इसे “संविधान की जन्मकुंडली” कहा है।

संविधान में प्रस्तावना का विचार अमेरिकी संविधान से प्रभावित है तथा इसमें निहित स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, के आदर्शों को फ्रांस की क्रांति (1789) से लिया गया है। इसके अतिरिक्त “हम भारत के लोग” शब्द से संविधान की शक्ति के स्रोत के रूप में भारत के लोगों को दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें संशोधन से संबंधित दो वाद महत्वपूर्ण है-  बेरुबारी वाद  (1960),  केशवानंद (1973)। 

मूल अधिकार

भारतीय नागरिकों  पर अत्याचार, शोषण व भेदभाव प्रारंभ से होता आ रहा था इसीलिए संविधान में इस संदर्भ में प्रावधान करना आवश्यक था। जिस का हनन कोई ना कर सके ऐसे प्रावधानों को मूल अधिकार कहा गया जो संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक वर्णित किए गए हैं।

प्रत्येक भारतीय नागरिक को संविधान में दिए गए हैं मौलिक अधिकार प्राप्त हैं इनमें से छटा अधिकार संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसके तहत व्यक्ति मौलिक अधिकारों को लागू कराने या हनन होने पर सीधे उच्चतम न्यायालय जा सकता है।

निर्देशक तत्व

संविधान का दर्शन इस तत्व के अध्ययन के बिना अधूरा है अर्थात संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्यों को कुछ निर्देश दिए गए हैं। जिसका उपयोग कर प्रत्येक राज्य अपनी शासन व्यवस्था का संचालन करेगा तथा राज्य अपने कानूनों व नियमों का निर्माण करते हुए निर्देशक तत्वों को ध्यान में रखें इसके अतिरिक्त इसमें वर्णित अनुच्छेद 40 ग्राम पंचायत महत्वपूर्ण है।

अनुच्छेद 40;-  इसके अंतर्गत राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह अपने राज्य में ग्राम पंचायत की एक स्वायत्त इकाई के रूप में संगठित करें। यह प्रावधान गांधी जी की बातों को सम्मान देने के लिए किया गया था।

मूल कर्तव्य

भारतीय संविधान का निर्माण करते समय संविधान में इसका प्रावधान नहीं किया गया था बल्कि संविधान में इसे 42 वे संविधान संशोधन द्वारा “स्वर्ण सिंह समिति” के सिफारिश पर कुल 10 मूल कर्तव्यों को संविधान के (भाग 4 A) के अनुच्छेद 51a में शामिल किया गया इसके अतिरिक्त 86 वें संविधान संशोधन 2002 द्वारा एक नया मूल कर्तव्य जोड़ा गया अर्थात कुल 11 कर्तव्यों को संविधान के अनुसार नागरिकों को पालन करना अनिवार्य है। जबकि इसके उल्लंघन पर कोई दंड का प्रावधान नहीं है अर्थात अनिवार्य होते हुए भी बाध्यकारी नहीं है।

संसदीय रूप

भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है या व्यवस्था विधायिका और कार्यपालिका के मध्य समन्वय व सहयोग के सिद्धांत पर आधारित है। इसको हम वेस्टमिंस्टर, उत्तरदाई सरकार, मंत्रिमंडल में सरकार के नाम से भी जानते हैं। संविधान केवल केंद्र में ही नहीं बल्कि राज्यों में भी संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है।

एकीकृत न्यायपालिका

भारतीय संविधान में एकीकृत न्यायपालिका के साथ-साथ स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान किया गया है। इसके तहत भारत में सर्वोच्च न्यायालय सिर्फ पर है इसके नीचे राज्यों के उच्च न्यायालय तथा इसके नीचे अधीनस्थ न्यायालय का प्रावधान किया गया है।

सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार

नागरिकों को अपने मताधिकार के लिए  विश्व स्तर पर लगभग सभी देशों में संघर्ष करना पड़ा जबकि भारत के संविधान ने भारत की स्वतंत्रता उपरांत ही सभी नागरिकों को यह अधिकार दिया पहले इसकी उम्र 21 वर्ष थी परंतु 1989 में 61 वें संविधान संशोधन द्वारा इसकी उम्र 18 वर्ष कर दी गई।

  अतः इस प्रकार हम उपरोक्त बिंदुओं के माध्यम से संविधान के दर्शन को समझ सकते हैं इसके अतिरिक्त इसमें कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो इस के दर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं जैसे-  धर्मनिरपेक्षता, एकल नागरिकता, आपातकालीन प्रावधान आदि। 

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