श्रमण परंपरा (Sramana Tradition) क्या है? इसका उदय और प्राचीनता
Sramana Tradition
“IT’S HISTORY AND CONTRIBUTION TO INDIAN CULTURE”
BY: G.C. PANDE
श्रमण परंपरा
श्रमण परंपरा को वेदों के अधिकार में विश्वास नहीं था न ही वे व्यक्तिगत निर्माण के अर्थ में नियति का निर्धारण करने वाले भगवान के अस्तित्व में विश्वास करते थे।
अर्थात इसी कारण से बाद में श्रमण दर्शन का वर्णन नास्तिक या निहितलिस्ट (nihilist) के रूप में किया गया एक प्रसिद्ध “सुत्र पाणिनी” (sutra Panini) में कहा गया है –
आस्तिनास्तिदस्तम मतिह: जैसा ली पतंजलि बताते है की “आस्थिक, नास्तिक और दास्तिक” इस शब्दों को समझना चाहिए इसका अर्थ बताते हुए कहते है की –
- जो मानता है की यह मौजूद है,
- जो मानता है की इसका अस्तित्व नहीं है,
- और एक जो मानता है की यह क्रमश: देवनिर्देशत (fated) है।
प्रदीप और काशिका दोनों बताते है की यहाँ अस्तित्व का विषय मृत्यु के बाद दूसरे जीवन से है।
“परलोकास्तीटी मतिर यस्य सा आस्तिक तद्वीपर्पीटो नास्तिक:”
यधपि महाभाष्य और काशिका आस्तिक आदि शब्दों का विश्लेषण करते है मगर उनके अनुसार शुद्ध परिणाम एक ही है। (Padamanjari) नास्तिक को लौकायतिक (loukayatika) से पहचानते है।
पुरातन काल में श्रमण का आकार ठीक नहीं था श्रमण या मुनि स्पष्ट रूप से बेघर था तथा भटकने वाले (wandering) तपस्वी थे जो वैदिक परंपरा के कर्मकाँड़ी धर्म का पालन नहीं करते थे।
वैदिक धर्म ने सामाजिक और धार्मिक क्रिया (अनुष्ठानों) के दायित्वों पर जोर दिया तथा इस दुनिया के खुशियों पर जो दिया व दूसरों और देवताओ से इसे प्राप्त करने की आशा की।
उपनिषद
उपनिषदों में विचारों का एक बढ़ा परिवर्तन हुआ और परंपरागत रूप से यह माना जाता है की उपनिवेषदों की लकोज का उद्देश्य अस्तित्व के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है।
हालांकि इसमे कोई संधेह नहीं की उपनिषद फर्म और पुनर्जन्म के विचारों से पूरी तरह से अनछुए हों यह पहले के वैधिक परंपरा के सकारात्मक और जीवन की पिष्टी करने वाले लोकाचार के विचारों को प्रसारित करते है। हालांकि की वे देवताओ (ईश्वर) के परिवर्तित विचारों को नास्तिक दृष्टिकोण से नहीं अपनाते है
कर्मकांड के संबंध में उपनिषद कभी उनकी निजी रूप से पुनरव्याख्या करता है तो कभी कभी उन्हे अस्वीकार करता है परंतु अधिकतर उन्हे एक नैतिक चिंतनशील और ज्ञानवादी जीवन के पक्ष में अनदेखा किया जाता है।
इस प्रकार से से उपनिवेषदिक दृष्टिकोण वेदिकवाद का विकास है और यह श्रमनवाद की ओर अर्ध मोड है या यूं कहें एक ऐसी स्थिति जहाँ ब्रह्मणवाद और श्रमणवाद दोनों के बीच बातचीत हो सकती है।
एक अन्तः क्रिया जो इसके भीतर हुई जिनके बाद के वर्षों में बौद्ध धर्म, सांख्य और वेदान्त इनकी उत्पत्ति और विकास पर गहरा प्रभाव डाला। छान्दोग्य (chandogya) और ब्राहदारण्यक (brihadaranyaka) उपनिषद सबसे प्राचीन उपनिषदों में से हैं। छान्दोग्य उपनिषद दूसरा अध्याय श्रमण की गुप्त साधनाओ को विस्तार से बताता है तथा उल्लेख है की धर्म के तीन खंड है :
धर्म
तप से त्याग की पहचान की जाति है तथा अध्ययन के साथ ब्रह्मचर्य की व उदारता को गुरु के आशीर्वाद द्वरा पहचाना जाता है। इन सद्गुणों से अमरता प्राप्त होती है जबकि तप, ब्रम्हाचर्य और अमरतत्व श्रवण की याद दिलाते है यह लगता है की यहाँ इन शब्दों का एक अलग अर्थ है।
हमें यहाँ sankara’s की व्याख्या पर संदर्भ मिलता है जो सभी तीन आश्रमों के साथ साथ उनके आगे की चौथी अवस्था तक के बारे में है। इनके बीच का अंतर कर्म से स्वर्ग की प्राप्ति और ज्ञान से मुक्त इस प्रकार त्याग को इस मार्ग ने निहित माना जाता है।
यदि यह व्याख्या सही है तो हमे यह मानना चाहिए की श्रमनवाद का प्रभाव और समावेश पहले के वैदिक युग में पहले से ही पूरा था।
यहाँ पहले दो आश्रम पूरे वैदिक धर्म ने निहित है जबकि तीसरा आश्रम स्पष्ट रूप से विचार ओर ध्यान करने के अभ्यास का परिमाण और यज्ञ अनुष्ठान का महत्व और प्रतीक था। चौथे आश्रम की स्वीकृति, हालांकि एक क्रांति थी जिसने अन्य तीनों आश्रमों के महत्व को भी बदल दिया।
Sankara ने स्वयं अपनी संक्षिप्त प्रस्तावना मे छान्दोग्य को जनाना (jnana) से “उपासना” को अलग किया।
तीसरा अध्याय पुरुषों या जन विधा का “महिदास ऐतरेय” और धोरा अंगिरसा छान्दोग्य के तीसरे अध्याय में जीवन के बारे में एक मिसाल धारणा के रूप में, खुद को एक निरंतर पूजा के रूप में जाना है।
चौथा अध्याय
छान्दोग्य उपनिषद के चौथे अध्याय में स्पष्ट मान्यता है श्रमणिक विचारों और मूल्यों की रायकव (raikov) और जनश्रुति की कथा स्पष्ट संकेत करती हैं की ब्राहमन का ज्ञान धन और उदारता से बहुत श्रेष्ठ है और वह जो मनुष्य है वास्तव में उसे सांसारिक चीजों की परावह नहीं है।
वैदिक अटकलें एक परम ब्राहमंड विज्ञान सिद्धांत की खोज के साथ शुरू हुआ था जिसे ब्राह्मण कहा जाने लगा। ये अन्न, वायु, आकाश जैसे भौतिक सिद्धांतों के साथ क्रमिक रूप से आसीन थे।
अंततः यह उपनिषद ट्रष्टाओ को एक प्राकृतिक दर्शन से परे ले गया उन्होंने धीरे धीरे पता लगाया की इन हाउसिंग (in-dwelling) मैन कु आत्मा श्रुति ब्रह्मांड सिद्धांत के अलावा और कुछ नहीं है ।
इस प्रकार उपनिषदीक दर्शन का समापन हुआ आध्यात्मिक अद्वैतवाद जिसने एक बार आध्यात्मिक और दिव्य व दिव्यता पर तथा एक बार व्यक्तिगत और अवैयक्तिक पर अंतिम वास्तविकता बना दी। इस प्रकार अभी तक यह पूर्व वैदिक दर्शन से ही एक सीधा विकास है।
सातवाँ अध्याय
इस अध्याय में विशेषता का विकास होता है केवल परम आनंद के बारे में उपनिशदीक द्रश्य अंत में उपलब्ध हैं।
“Yo vai bhuma tat sukham help sukham arti”
फिर भी, यह खंड पहली बार जीवन के दुःख के साथ को “ब्रह्मा जीजनसा (brahma jijnasa)”
नारद (narada) ने घोषणा की, कि वह जो दुख कष्ट और पीड़ा भोग रहे है जिससे वह केवल आत्मज्ञान द्वारा उद्धार (मुक्ति) पा सकते है।
किसी भी मामले में श्रवणवाद, बहुलवादी बना रहा और आम तौर पर यह गैर-अध्यात्मक सिद्धांत के साथ अध्यंतमिक सिद्धांत के विरोध की भी वास्तविकता को स्वीकार किया।
यह द्वैतवाद आध्यात्मिक और गैर- आध्यात्मिक श्रमण के लिए मौलिक हैं और एक अर्थ में यह सृष्टि के सिद्धांत को बाहर करता है जो आत्मा से प्रक्रति की उत्पत्ति का पता लगता है।
आठवाँ अध्याय
छंदयोग्य उपनिषद के आठवें अध्याय में सत्य और असत्य ईच्छाओ के बीच अंतर किया गया है तथा यह दावा किया जाता है की स्वयं का ज्ञान पूर्ति के पूर्ण होता है और जहाँ यह निहित है की असत्य या झूठी ईच्छाओ को बहाया जाना है और केवल सत्य ईच्छाओ को पूरा करना है अर्थात यहाँ कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को पूरी तरह से स्वीकार किया जाता हैं।
यह स्पष्ट है कि यज्ञवलक्या (Yajnavalkya) श्रमणों और श्रवणवाद से पूरी तरह परिचित है। तथा वह ब्राह्मणों के वैदिक तरीकों के बीच एक स्पष्ट अंतर खींचते हैं जो सामाजिक और अनुष्ठान संबंधी दायित्वों को स्वीकार करता है और मुनि परिवार के लोगों के तरीकों कर्म के बल पर जिसके माध्यम से बार-बार होने वाली मृत्यु के दायित्व को देखते हुए ऐसी दायित्व की अवहेलना करता है। याज्ञवल्क्य की आस्तिक संबंधता स्पष्ट रूप से उनकी विशिष्टता है।
कथोपनिषद (Kathopanishad )
यह सभी महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाता है जैसे-
जीवन के बारे में इस प्रश्न का उत्तर पारंपरिक रूप से अनुष्ठानिक शब्दों में दिया गया था। इस कथा के दूसरा भाग एक युग का है जब श्रवणवाद पूर्व सिद्धांत और उसके कुछ मूल रूप से जाना जाता था इन सिद्धांतों को ब्राह्मणवादी परंपरा में अपनाया जा रहा था।
मुंडका उपनिषद (mundaka)
इस उपनिषद का बहुत नाम श्रवण बताते हैं इस उपनिषद का दूसरा खंड ब्राह्मणलोक को प्राप्त करने के लिए पुराने कर्मकांड के सूत्रों को याद करते हुए शुरू होता है।
“Esa vah pantha sukrtasya loke’
“यह संसार के लिए आपका धार्मिकता का मार्ग है”
लेकिन यह बलिदानों की निंदा करने के लिए आगे बढ़ता है और यह घोषणा करता है कि जो लोग इच्छाओं से चले गए वह कर्मकांड के मार्ग का अनुसरण करें या धर्मार्थ कार्यों में संलग्न रहें और अस्तित्व के चक्र में घूमना जारी रखें अर्थात वह स्वर्ग को प्राप्त कर सकते हैं लेकिन यह एक अस्थाई राहत है। यहां हम पहली बार वैदिक कर्मकांड के बारे में स्पष्ट अस्वीकृति पाते हैं।