संविधान की प्रस्तावना | Preamble of Indian Constitution
प्रत्येक देश के संविधान की अपनी एक प्रस्तावना होती है जिसके द्वारा संविधान निर्माण के उद्देश्य, समाज की आवश्यकताओं और सरकार की विचारधारा का पता चलता है। सी. जे. फ्रेडरिक ने कहा है कि प्रस्तावना के द्वारा जनमत प्रतिबिम्बित होता है और इसी से संविधान अपनी सत्ता को प्राप्त करता है। के. एम. मुन्शी ने प्रस्तावना को राजनीतिक जन्मपत्री का नाम दिया है। संविधान का निर्माण प्रस्ताव के साथ शुरू करना एक सर्वमान्य प्रथा बन गई है। यहाँ तक सयुक्त राष्ट्र संघ के संविधान में भी प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होती परन्तु जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध है और उसका अर्थ स्पष्ट नहीं तो न्यायालय इसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। परन्तु केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बेरूबारि मामले में दिये गए निर्णय को उत्तर दिया और कहा कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है और संविधान के उपबन्धों के निर्वाचन में इसका बड़ा महत्त्व है।
इसका अर्थ प्रारम्भिक कथन से है जो किसी भी अधिनियम के मुख्य उद्देश्यों एवं जरूरतों को अभिव्यक्त करता है। सी. जे. अय्यर ने कहा है कि प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी है कि वे क्या करना चाहते थे। भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश गजेन्द्र गाडकर का कहना है कि प्रस्तावना संविधान के बुनियादी दर्शन का दस्तावेज है।
प्रस्तावना की ऐतिहासिकता
13 सितम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया जिसमें घोषणा की गई कि
- संविधान सभा भारत को सर्वप्रथम सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणतन्त्र बनाना चाहती है और इसका शासन चलाने के लिए एक संविधान बनाना चाहती है।
- भारत एक ‘संघ’ होगा
- केन्द्र तथा राज्यों का कार्य क्षेत्राधिकार परिभाषित किया जाएगा।
- केन्द्र तथा राज्य अपनी शक्ति आम जनता से प्राप्त करेंगे।
- देश के सभी व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक न्याय, समान स्तर, अभिव्यक्ति, धार्मिक, व्यवसाय, संघ निर्माण आदि की स्वतन्त्रता होगी।
- अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों एवं जनजातियों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
- देश की एकता एवं अखण्डता को कायम करने का प्रयास किया जाएगा।
इस प्रकार उद्देश्य प्रस्ताव के प्रकाश में ही संविधान प्रस्तावना का निर्माण किया गया। संविधान की प्रस्तावना को निम्नलिखित चार भागों में बाटौँ जा सकता है:
- संविधान का स्त्रोत (Source of the constitution)
- शासन का प्रकार (Type of government)
- संविधान के लक्ष्य (Objective of the constitution)
- स्वीकृति एंव क्रियान्वयन की तिथि (Date of adoption and Enactment)
संविधान का स्त्रोत (Source of the constitution)
प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द यह इंगित करते है कि भारतीय संविधान का स्त्रोत जनता है। भारतीय शासन की अन्तिम सत्ता जनता में निहित है तथा भारतीय जनता ने ही संविधान को अंगीक त और अधिनियमित किया है। प्रस्तावना का सार बिन्दू यह है कि “हम भारत के लोग भारत के संविधान को अंगीक त और आत्मार्पित करते है। संविधान के किसी भी प्रावधान में पथक से यह इंगित नहीं किया गया है शासन की समूची शक्त्यिां जनता से प्राप्त हुई है। अतः प्रस्तावना द्वारा प्रभुसत्ता के अधिवास की समस्या के विवाद की समाप्ति कर दी गई है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि नया संविधान किसी बाह्य शक्ति ने आरोपित नहीं किया हैं। अमरीका की भांति भारतीय संविधान के निर्माण में राज्य की यजाय भारत की जनता का सर्वोपरि हाथ है। डा. अम्बेडकर के अनुसार : प्रस्तावना यह स्पष्ट कर देती है कि इस संविधान का आधार जनता है एवं इनमें निहित प्राधिकार और प्रभूसत्ता सब जनता से प्राप्त हुई हैं।”
शासन का प्रकार (Type or Government)
प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है जिसका वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है:
- सम्पूर्ण प्रभुत्व -सम्पन्न राज्य (Sovereign State): 15 अगस्त 1947 के दिन आजादी मिलने पर भी भारत को कानूनी रूप में अधिराज्य का दर्जा ही प्राप्त था। ऐसा अधिराज्य जिसे अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा करने का अधिकार था। नये संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक स्वतन्त्रत तथा प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य बतलाकर अधिराज्य स्तर की समाप्ति बतलाई गई है। वास्तव में भारत 15 अगस्त 1950 को ही पूर्णतः स्वतंत्र प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य बना। 15 अगस्त 1947 से लेकर 26 जनवरी 1950 तक ब्रिटेन का सम्राट भारत का भी सम्राट था तथा भारत का गवर्नर-जनरल उसका प्रतिनिधि था। 26 जनवरी 1950 के दिन नए संविधान के लागू होने से ही यह व्यवस्था समाप्त हुई।
- समाजवादी राज्य (India is a socialist State): पहली बार नवम्बर 1976 में संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद के शब्द को जोड़ा गया जिसका समर्थन सभी वर्ग के लोगों ने किया। कांग्रेस पहले से ही भारत में प्रजातन्त्रीय समाजवाद की स्थापना करना अपनो लक्ष्य घोषित कर चुकी थी। इसके साथ-ही-साथ संविधान में अंकित किए गए राज्य के निति निर्देशक सिद्धान्त समाजवाद का समर्थन करते हैं। समाजवाद का अर्थ है कि भारत में शासन व्यवस्था इस प्रकार चलाई जाए जिससे आर्थिक असमानता कम हो तथा इस प्रकार का वातारण उत्पन्न किया जाए जिसके द्वारा समाज के सभी वर्गों को अपना विकास करने के लिए समान अवसर प्रदान हों। देश के विकास का फल थोड़े से लोगों के होथों में न रह कर, समाज के सभी वर्गों को बिना भेद-भाव के प्राप्त हो। इसके साथ-साथ देश में जो आर्थिक असमानता पाई जाती है, उसे दूर करने के लिए उचित कदम उठाए जाए।
- समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही 42 वें संशोधन के अर्न्तगत राज्य नीति निर्देशक सिद्धान्तों को मौलिक अधिकारों से श्रेष्ठ घोषित किया गया। इसी संशोधन के द्वारा राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में कुछ उन्य समाजवादी सिद्धान्त शामिल किए गए।
- भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State): 42 वें संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ा गया। भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई हैं जो भारत को निः सन्देह धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाती है। धर्म-निरपेक्ष का अभिप्रायः यह है कि भारत में सभी वर्गों को बिना किसी भेदभाव के अपनी इच्छा अनुसार अपने धर्म में विश्वास करने एवं उसका प्रचार करने का अधिकार होगा। लेकिन इसके साथ-साथ व्यक्ति कोई ऐसा कार्य न करेगा जिससे कि दूसरे व्यक्ति के धर्म में बाधा पड़े। इसी संदर्भ में राज्य किसी के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करेगा राज्य किसी विशेष धर्म की किसी प्रकार की सहायता नहीं करेगा। वस्तुतः राज्य का अपना कोई भी धर्म नहीं होगा।
- भारत एक लोकतन्त्रीय राज्य है (Indiaisa Democratic State): संविधान की प्रस्तावना में भारत की लोकतन्त्रीय राज्य घोषित किया गया है। देश में जनता के द्वारा राजशक्ति का प्रयोग किया जाएगा। राजशक्ति पर किसी एक वर्ण विशेष का एकाधिकार नहीं होगा। शासन का संचालन यहुमत के सिद्धान्त के आधार पर होगा। उन्हीं कानूनों को लागू किया जाएगा जिन्हें जनता का समर्थन प्राप्त होगा। राज्य में कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं होगा और राज्य की सीमा में निवास करने वाले समस्त स्त्री-पुरूषों को समानता प्राप्त होगी। भारत ऐसा लोकतन्त्र होगा जिसमें अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्राप्त होगी तथा समाज में आर्थिक शक्ति का समतायुक्त वितरण होगा ताकि किसी भी वर्ग का शोषण न हो। भारत में राजनैतिक लोकतन्त्र के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र की भी व्यवस्था की गई है।
- भारत एक गणराज्य है (India isaRepublic): भारत एक गणराज्य है। गणराज्य वह राज्य होता है जिसका अध्यक्ष लोगों द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित हो। उसका पद वंशानुगत या पैत क नहीं होता। इंग्लैंड, नेपाल तथा जापान गणराजय नहीं है क्योंकि इन राज्यों के अध्यक्ष लोगों द्वारा नहीं चुने जाते। अमेरिका का अध्यक्ष भारत की भांति जनता द्वारा निर्वाचित होता है। भारत में राज्य का अध्यक्ष राष्ट्रपति है जो अप्रत्यक्ष रूप से लोगों द्वारा निर्वाचित होता है। उसका चुनाव एक ऐसे निर्वाचक मण्डल द्वारा होता हैं जिसमें संसद के दोनों सदनों के चुने हुए सदस्य और राज्य विधान सभाओं के सदस्य शामिल होते है। वे सदस्य लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधि होते है। राष्ट्रपति को संसद में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा महाभियोग की कार्यवाही करके हटया भी जा सकता है।
संविधान के उद्देश्य (Objectives of the Constitution)
प्रस्तावना में भारतीय गणराज्य के उद्देश्य बतलाए गए है जोकि इस प्रकार है:
- न्याय (Justice): हमारे संविधान की प्रस्तावना में न्याय के उल्लेख का विशेष महत्व है। संविधान निर्माता इस बात से भली भांति परिचित थे कि सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना में स्वतन्त्रता और समानता के अलावा न्याय अनिवार्य है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की स्थापना में प्रयास करना राज्य का कर्तव्य माना गया है।
सामाजिक न्याय से अभिप्रायः है कि मानव-मानव के बीच में जाति, वर्ण के आधार पर भेद न माना जाए और प्रत्येक नागरिक के उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हो। राज्य का यह दायित्व हो जाता है कि दुर्बल वर्गो का शोषण रोके और उनके विकास के लिए कार्य करें।
आर्थिक न्याय से अभिप्रायः है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और वल कुछ ही हाथों में केन्द्रीकरण न हो जाए। आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए समुदाय की भौतिक सम्पति का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बांटा हो कि जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो।
राजनीतिक न्याय का अभिप्रायः है कि राज्य के अर्न्तगत समस्त नागरिकों को समान रूप से नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो। इस प्रकार प्रस्तावना में उपयन्धित न्याय के विचार से लोक-कल्याणकारी राज्य का विचार द प्टिगोचर होता है और नागरिकों को जीवन के अन्य क्षेत्रों में न्याय का आश्वासन दिया जाता है।
- स्वतन्त्रता (Liberty): प्रस्तावना में इस यात पर जोर दिया गया है कि राज्य समस्त नागरिकों को स्वतन्त्रता प्रदान करेगा। यहाँ स्वतन्त्रता से तात्पर्य नागरिक स्वतन्त्रता ओर राजनीतिक स्वतन्त्रता से है। विचार, अभिव्यक्ति, भाषण, संघ यनाना, सम्पत्ति रखना, आदि नागरिक स्वतन्त्रताएं हैं। मतदान में भाग लेना, प्रतिनिधियों को चुनना निर्वाचन में खड़ा होना, सार्वजनिक पद पर नियुक्ति का अधिकार, सरकारी नीतियों की आलोचना करना, आदि राजनीतिक स्वतन्त्रताएं हैं। प्रस्तावना में नागरिको के व्यक्तित्व के विकास हेतु स्वतन्त्रता का आश्वासन दिया गया है।
- समानाता (Equality): समानता से अभिप्रायः है कि अपने व्यक्ति के समुचित विकास के लिए प्रत्येक मनुष्य-मनुष्य में अन्तर नहीं होना चाहिए। सभी नागरिकों को देश के शासन विधान में समान भाग मिलना चाहिए। लिंग, नस्ल अथवा सम्पति के आधार पर राजनीतिक अधिकारों का निषेध नहीं होना चाहिए। समान योग्यता ओर समान श्रम के लिए वेतन भी समान होना चाहिए। एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का अथवा एक वर्ग को दूसरे वर्ग का आर्थिक शोषण करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
- प्रात-भाव (Fraternity): प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि राज्य नागरिकों में आपसी भात -भाव बढ़ाने का प्रयत्न करेगा ताकि भारत में मनुष्य मनुष्य होने के नाते प्रतिष्ठा हो तथा भारतीय राष्ट्र में एकता की भावना बढ़े। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में आत -भाव शब्द का होना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारतीयों की सांसक तिक विभिन्नताओं को देखते हुए ऐसा उद्धेश्य भारतीय संविधान की प्रस्तावना मे दिया जाना स्वाभाविक ही था। एम. वी. पायली के शब्दों में, ‘न्याय, स्वतन्त्रता और समानता के आधार पर निर्मित नए राष्ट्र का उद्देश्य यह है कि सभी यह अनुभव करें कि वे एक ही धरती के यच्चे हैं, उनकी मात भूमि एक हैं तथा उनका एक ही आत -भाव है।
- व्यक्तिगत गौरव को स्थापित करने का विश्वास (Assuring the dignity of Individuals): प्रस्तावना में व्यक्ति के गौरव को बनाए रखने के लिए व्यवस्था की गई है। स्वतन्त्रता से पहले अंग्रेजों ने भारतीयो के गौरव को मान्यता प्रदान नहीं की। भारतीयों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। आजादी के बाद भारतीयों में गौरव को यनाए रखने के लिए प्रस्तावना में इस बात को अंकित किया गया कि बिना गौरव अनुभव किए कोई भी राष्ट्र उन्नति नही कर सकता। इस तरह से संविधान की प्रस्तावना के द्वारा भारत में व्यक्तिगत गौरव को स्थापित रखा जाएगा। इस उद्धेश्य को ध्यान में रखते हुए सभी व्यक्तियों को मौलिक अधिकार समान रूप से दिए गए हैं।
- राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता की स्थापना (Estability of the Unity and Integrity of the motion): अंग्रेजो की फूट डालों राज करों शासन की नीति के कारण भारत का विभाजन हुआ था, इसलिए संविधान निर्माता भारत की एकता को बनाए रखने के बड़े इच्छुक थे। वस्तुतः संविधान की प्रस्तावना में राष्ट्र की एकता को बनाए रखने की घोषणा की गई। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया गया, सभी नागरिको को भारत की नागरिकता प्रदान की गई तथा सारे देश के लिए एक ही संविधान को अपनायागया। 42 वें संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता शब्द जोड़ा गया है।
संविधान को अंगीकृत करने की तिथि(Date of adoption of the constititution)
संविधान की प्रस्तावना से हमें इस बात का भी पत्ता चलता है कि हमारा संविधान कब तैयार हुआ तथा हमने इसे कब अपनाया। संविधान सभा ने जो कार्य 9 दिसम्बर, 1946 को आरम्भ किया था, वह 26 नवम्बर 1949, को सम्पन्न हुआ तथा उस दिन संविधान सभा ने भारतीय लोगों के नाम पर संविधान को अंगीक त, अधिनियमित और आत्म-अर्पित किया। परन्तु यह संविधान पूर्ण रूप से दो महीने के बाद 26 जनवरी 1950, को लागू हुआ।
निष्कर्ष
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना सर्वोत्तम रूप से लिखी गई है। यह संसार के अन्य संविधान उसे बेहतर है। जहां तक आदर्शों की अभिव्यक्ति का प्रश्न है कितने संविधान की आत्मा निवास करती है और भारतीयों को एकता के सूत्र में बांधने का निश्चय किया ताकि एक नए भारत का निर्माण किया जा सके। हमारे देश में न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व सर्वोपरि रहे हैं। संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने प्रस्तावना को संविधान का अमूल्य भाग माना है। इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना समानता, राजनीतिक, नैतिक व धार्मिक मूल्यों का स्पष्टीकरण करती है जिन्हें संविधान प्रोत्साहित करता है।