क्षेत्रीय आकांक्षाएं

राज्यों का पुनर्गठन | Reorganization of states

 राज्यों का एकीकरण और पुनर्गठन

भारतीय संघ का निर्माण दो प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप हुआ:-
ब्रिटिश काल के दौरान प्रशासनिक विकेंद्रीयकरण और सम्राट के सत्ताधिकारों का धीरे-धीरे विस्तार उन भारतीय रियासतों द्वारा प्रभुसत्ता का (स्वेच्छा या जोर-जबरदस्ती से) समर्पण जिन पर 1947 तक ब्रिटिश सम्राट की सर्वोपरिता थी। 

राज्यों का पुनर्गठन
राज्यों का पुनर्गठन

भारतीय रियासतों ने अपनी प्रभुसत्ता का समर्पण अपनी इच्छानुसार या जोर-जबरदस्ती के कारण किया। इससे स्पष्ट है कि भारतीय संघ का जन्म किसी संधि के कारण नहीं हुआ। जैसा की रिक्कर ठीक कहते हैं कि यह धारणा ‘काल्पनिक है कि संघों का जन्म साधियों के कारण होता है।

  • 26 जनवरी, 1950 को जब संविधान लागू हुआ उस समय राज्यों को तीन श्रेणियों – श्रेणी ‘क’ ‘ख’ और ‘ग’ में बाँटा गया था। 
  • श्रेणी ‘क’ राज्यों में ब्रिटिश भारत के स्वायत प्रांत शामिल थे। जिनका अधिकार विभाजन के अंतर्गत दिये गए विषयों पर संपूर्ण अधिकार था। 
  • श्रेणी ‘ख’ के राज्यों के अन्तर्गत हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर की देशी रियासत तथा इसी प्रकार के देशी रजवाड़ों के पांच संघ शामिल थे। 
  • श्रेणी ‘ग’ के राज्य सीधे संघीय सरकार के अधीन रखे गए। किंतु यह व्यवस्था अस्थायी थी और राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया अब भी समाप्त नहीं हुई है। सातवाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1956 में पारित हुआ, उसने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया। 

राज्यों का पुनर्गठन

पाकिस्तान के निर्माण के बाद राज्यों के पुनर्गठन की माँग का एकमात्र आधार धर्म नहीं रहा। पंजाबी सूबा का निर्माण 1966 में तभी हुआ जब अकाली दल ने अपनी माँग का आधार धार्मिक राष्ट्रवाद के बदले भाषा को बनाया। धार्मिक राष्ट्रवाद का प्रतिपादन अकाली नेता मास्टर तारासिंह ने किया था। जम्मू एवं कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों के सांप्रदायिक आधार पर पुनर्गठन की माँग को वहाँ के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला और केंद्रीय सरकार ने ठुकरा दिया। उत्तर पूर्व-क्षेत्र में ईसाई-बहुमत वाले इलाके को धार्मिक राज्य का रूप नहीं दिया गया यद्यपि इस क्षेत्र में बाद में अनेक राज्यों का जन्म हुआ। यह संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का सूचक था। फिर भी, पुनर्गठन की माँग स्वातंत्र्योत्तर काल में लगातार सुनाई पड़ती रही।

प्रशासनिक सुविधा बनाम भाषायी पुनर्गठन

संविधान निर्माण के समय दर आयोग (संविधान-सभा द्वारा नियुक्त आयोग) द्वारा राज्यों के पुनर्गठन के भाषाई सिद्धांत को ठुकरा दिया गया और प्रशासनिक सुविधा के सिद्धांत को सुझाया गया। कांग्रेस दल की अपनी समिति भी, जिसमें नेहरू, पटेल तथा सीतारमैया जैसे नेता सम्मिलित थे, प्रशासनिक एवं वित्तीय कारणों से भाषाई पुनर्गठन के विरुद्ध थी। संविधान के अनुच्छेद 3 ने भी स्पष्ट किया कि संविधान इसे खुला प्रश्न मानता है।

इसके बावजूद केंद्रीय सरकार को हमेशा राज्यों के पुनर्गठन के लिए बाध्य किया गया है। इस प्रक्रिया का आरंभ आंध्र में आंदोलन तथा पोट्टी श्रीरमालु के आमरण अनशन द्वारा हुआ। नेहरू के चमत्कारी नेतृत्त्व में भी शक्तिशाली केंद्र पृथक् आंध्र राज्य के निर्माण के लिए बाध्य हो गया। इस राज्य का जन्म 1अक्टूबर, 1953 को मद्रास राज्य के क्षेत्रों को लेकर हुआ और भाषा पर आधारित पुनर्गठन का सिद्धांत अपनाया गया।  

राज्यों के पुनर्गठन के सिद्धांत को अपनाते हुए भानुमती का पिटारा खुल गया और स्थानीय बोलियों को स्वयत्तता का आधार बना दिया गया। उदाहरण के लिए मैथिली के लिए भी स्वायत्तता की बात की गई। स्थानीय दंगे हुए और अस्थिरता की स्थिति दिखाई देने लगी। फलतः एक राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति करनी पड़ी। उसने (क) पनुर्गठन की मोटी कसौटी के रूप में भाषा और (ख) बहुत ज्यादा राज्यों की प्रशासनिक अवांछनीयता के आधार पर राज्यों के निर्माण का सुझाव दिया। किंतु पंजाब और बंबई में भाषाई सिद्धांत को लेकर टकराव हुए तथा आंदोलनों का जन्म हुआ। 

1960 में बंबई को बंबई तथा गुजरात और 1966 में पंजाब को पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में विभाजित कर दिया गया। राज्य पुनर्गठन की इच्छाओं के विपरीत 1963 में नागालैंड को राज्य बना दिया गया, 1963 में ‘मेघालय’ असम के अंतर्गत ‘स्वायत्त राज्य’ बन गया तथा 1972 में उत्तर पूर्व भारत में बड़े पैमाने पर पुनर्गठन किया गया। उत्तर-पूर्व भारत के पुनर्गठन ने राज्यों के पुनर्गठन का एक अन्य आधार पैदा कर दिया है। वह है “जनजाति-राज्यों” का निर्माण जहाँ अधिकांश जनसंख्या (संविधान द्वारा परिभाषित) “अनूसूचित जातियों” की हो और उनके परंपरागत अधिकारों को संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त हो।

राज्य-स्वायत्तता की माँग 

केन्द्र राज्य संबंधों को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक सहयोग व सहमति का आधार संविधान में मौजूद है। लेकिन पिछले पांच दशकों के दौरान यह आधार कमजोर हुआ है और इसकी जगह “टकराव” की राजनीति ने ले ली है। राज्य अपने आपको स्वायत्तता से वंचित पाते हैं, जबकि संविधान में राज्यों को काफी स्वायत्तता दी गयी है। दुर्भाग्य की बात यह है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बावजूद भी केंद्रीकरण की प्रवृत्ति कम नहीं हुई है। इसलिए राज्यों ने अधिकारों के उचित बंटवारे की माँग जोरदार ढंग से उठायी है। 

1967 के आम चुनाव में आठ राज्यों में कांग्रेस की पराजय के बाद राज्यपालों की विवादस्पद भूमिका के परिवेश में केंद्र-राज्य संबंधों की आलोचना की गयी। चौतरफा आलोचना का असर यह हुआ कि 1967 में केंद्र सरकार ने जब प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया तो इसे केंद्र व राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंधो की पड़ताल का काम भी सौंपा। आयोग ने यह सुझाव दिया कि राज्यों को अधिक अधिकार दिये जाएँ।

आयोग का मानना था कि केंद्रीय नियोजन प्रक्रिया ने राज्यों द्वारा अपनी नीतियों व कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में अत्यधिक हस्तक्षेप किया है। राज्यपाल के पद के बारे में भी आयोग ने सुझाव दिये और संविधान की धारा 263 के अन्तर्गत एक अंतर्राज्यीय परिषद की सिफारिश की लेकिन आयोग की सिफारिशें फाइलों में धूल चाटती रही और केंद्रीयकरण की प्रक्रिया और मजबूत होती चली गयी।

1969 में तमिलनाडु सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों की पड़ताल करने के लिए राजामन्नार समिति का गठन किया। समिति ने 1971 में अपनी रिपोर्ट पेश की। समिति ने सिफारिश की कि संविधान की आठवीं अनुसचि में संशोधन कर अवशिष्ट अधिकार राज्यों को सौंप दिए जाएँ; धारा 249 को समाप्त कर दिया जाए और वित्त आयोग व योजना आयोग की संरचना में बदलाव किया जाए।

दिसंबर, 1977 में पश्चिम बंगाल सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों पर एक ज्ञापन प्रकाशित करवाया। इस ज्ञापन में कहा गया कि जाति, धर्म, भाषा व संस्कृति विविधताओं वाले देश भारत में स्वैच्छिक प्रयासों से ही राष्ट्रीय एकता कायम रखी जा सकती है। विखंडनकारी प्रवृत्तियों पर रोक लगाने के लिए राज्यों को अधिकार देकर विकेंद्रीकरण करना आवश्यक है। संविधान की प्रस्तावना में ‘युनियन’ हटाकर ‘फेडरल’ शब्द का उल्लेख करने की माँग की गयी। इस ज्ञापन में संविधान की धारा 356, 357 व 360 को समाप्त करने का सुझाव भी दिया गया। यह मांग भी की गयी कि नये राज्यों के गठन, और राज्यों का क्षेत्र, सीमा या नाम में परिवर्तन के लिए राज्यों की सहमति लेने को अनिवार्य बनाया जाए।

इसके बाद अकाली दल ने 1978 में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का संशोधित संस्करण जारी किया। इस प्रस्ताव में राज्यों के लिए और स्वायत्तता की माँग की गयी और केंद्र के अधिकारों को न्यूनतम करने का सुझाव दिया गया। इस प्रस्ताव के अनुसार केंद्र सरकार के अधिकार रक्षा, विदेश मामले, संचार, रेलवे व मुद्रा तक सीमित रहने चाहिए और अवशिष्ट अधिकार राज्यों को हस्तांतरित कर दिय जाने चाहिए।

1980 के दशक से अनेक विपक्षी पार्टियों का स्वरूप लगभग क्षेत्रीय हो गया है इसलिए राज्यों की स्वायत्तता की माँग और जोर पकड़ने लगी है। विजयवाड़ा, दिल्ली व श्रीनगर में आयोजित सम्मेलनों में फारूख अब्दुल्ला, एम. करूणानिधि सुरजीत सिंह बरनाला, राम कृष्ण हेगड़े, एन. टी. रामाराव और प्रफुल्ल कुमार महंत सरीखे प्रमुख विपक्षी नेताओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। केंद्र व राज्यों के बीच तनाव व विवादों को समाप्त करने के लिए यह जरूरी है कि राज्यों के मामले में केंद्र की मनमानी को रोका जाए। इस सम्मेलन में संविधान की धारा 356 में संशोधन करने की माँग की गई। संवैधानिक संकट उत्पन्न होने पर छह महीने के भीतर चुनाव करवाने की मांग भी इस सम्मेलन में उठी।

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