मतदान व्यवहार | Voting Behaviour
चुनावों का महत्व (Importance of Elections) चुनाव ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और किसी हद तक उन पर नियन्त्रण भी रखती है। चुनावों के महत्व अथवा ‘चुनावों के कार्यों को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है :
निर्वाचन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मतदाता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। निर्वाचन के माध्यम से ही संसद और विधानमण्डलों का गठन होता है, सरकार बनती है और राष्ट्रपति का निर्वाचन सम्भव हो पाता है। राष्ट्रपति ‘राज्यपालों’ तथा उच्चतम व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। इस प्रकार शासन का सारा ढांचा निर्वाचन के ही आधार पर खड़ा किया जाता है।
(2) जनता शासकों पर नियन्त्रण रखती है (People Exercise Control over their Rulers)
विजयी प्रत्याशियों को अगले चुनावों में पुनः जनता से वोट मांगने होंगे। इसलिए उन्हें यह बताना पड़ेगा कि उनकी क्या उपलब्धियां रही हैं। सत्ता प्राप्त कर लेने पर उन्होंने यदि वह अवसर लापरवाही से गंवा दिया तो जनता दोबारा उन्हें वोट नहीं देगी।
(3) चुनाव कई खास मुद्दों को लेकर लड़े जाते हैं (Elections throw up Issues)
राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणा-पत्र में बहुत-से वायदे करते हैं। घोषणा-पत्र में ऐसी बातें रखी जाती हैं जिससे पार्टी को सभी वर्गों का समर्थन मिल सके, परन्तु कभी-कभी चुनाव कुछ स्पष्ट मुद्दों को लेकर लड़े जाते हैं। 1977 का चुनाव लोकतन्त्रीय मूल्यों की रक्षा के लिए लड़ा गया तो 1980 के चुनावों में मुख्य मुद्दा ‘केन्द्र में मजबूत सरकार की आवश्यकता’ था।
(4) सरकार का वैधीकरण हो जाता है (Authority is Legitimatized)
चुनावों के माध्यम से सरकार को कानूनी मान्यता मिलती है। इससे उसकी प्रतिष्ठा बनती है। यही कारण है कि क्रान्ति के बाद आमतौर पर शासकों की पहली घोषणा यही होती है कि देश में शीघ्र ही स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव कराये जायेंगे।
(5) चुनाव सरकार के लोकतन्त्रीय स्वरूप को प्रकट करते हैं (Elections Give Government a Democratic Basis)
लोकतन्त्र को ‘जनता का शासन’ कहते हैं, परन्तु वास्तविक बात यह है कि शासन के कार्यों में जनता की साझेदारी बहुत सीमित है। अधिकांश नागरिक तो केवल चुनाव के दिन ही यह महसूस करते हैं कि सरकार उनकी ‘अपनी सरकार’ है।
(6) हिंसक क्रान्ति का भय समाप्त हो जाता है (Reduces the Danger of Violent Change)
मताधिकार नागरिको के हृदय में शासन के प्रति निष्ठा और भक्ति की भावना उत्पन्न करता है। नागरिक मताधिकार के माध्यम से ऐसी सरकार को बदल सकते हैं जो उनकी इच्छाओं का सम्मान नहीं करती है।
राजनीतिकरण की प्रक्रिया (Process of Politicization)
‘राजनीतिकरण’ का अर्थ है राजनीतिक विकास। राजनीतिक विकास को मापने का एक साधन ‘चुनाव’ भी है। एडवर्ड शिल्स ने ‘राजनीतिक लोकतन्त्र’ को ही ‘राजनीतिक विकास’ का नाम दिया है। उनके मतानुसार ‘विकसित राजनीतिक प्रणाली है जिसमें एक से अधिक राजनीतिक दल हैं और वे राजनीतिक सत्ता के लिए खुलकर प्रतियोगिता कर सकते है। यह तियोगिता स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से होती है।
चुनावों से राजनीतिकरण’ (Politicization) की प्रक्रिया तीव्र होती है क्योंकि:-
(i) लोकतन्त्र का निर्माण
लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति जनसाधारण की निष्ठा बनी रहे, इसके लिए यह जरूरी है कि बालिग नाधिकार पर आधारित चुनाव समय-समय पर होते रहें। हर चुनाव लोक-निष्ठा’ का प्रतीक है। चुनाव राजनीतिक भागीदारी प्रदान हते हैं और भारत की विशाल जनता के लिए राजनीति में हिस्सा लेने का एकमात्र साधन कहे जा सकते हैं। I
(ii) राजनीतिक स्थिरता
राजनीतिक विकास को मापने का एक साधन स्थायित्व यानी राजनीतिक स्थिरता भी है।
(iii) मतदाताओं को सक्रिय बनाना
चुनाव राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने के लिए जन-सम्पर्क माध्यमों (Mass media) और स्थानीय संगठनों (Local organization) का प्रयोग करते हैं। वे जनसाधारण को ‘क्रियाशील’ बनाने का प्रयास करते हैं। विदेश नीति, औद्योगिक लोकतन्त्र, ओवरड्राफ्ट, कीमत नियन्त्रण, निजी क्षेत्र, सार्वजनिक क्षेत्र, आदि ऐसी बातें हैं जिनके सम्बन्ध . एक साधारण मतदाता कुछ भी नहीं जानता। चुनावी प्रचार से इन बातों को समझने का अवसर मिलता है।
मतदान व्यवहार : समीक्षा (VOTING BEHAVIOUR AN ANALYSIS)
मतदान व्यवहार का आशय यह है कि मतदाता अपने मताधिकार के प्रयोग में किन तत्वों से प्रभावित होता है। मतदान व्यवहार में सर्वप्रथम तो यह अध्ययन किया जाता है कि कौन-से तत्व व्यक्ति को मताधिकार का प्रयोग करने के लिए प्ररित और कौन से तत्व उसे इस सम्बन्ध से निरुत्साहित करते हैं। द्वितीय स्तर पर इस बात का अध्ययन किया जाता है कि किन तत्वों से प्रभावित होकर व्यक्ति एक विशेष उम्मीदवार और एक विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। एक दृष्टि से मतदान व्यवहार का अध्ययन चुनाव के पूर्व भी किया जाता है और चुनाव के बाद भी।
मतदान व्यवहार का अध्ययन बीसवीं सदी की ही एक प्रक्रिया है। सर्वप्रथम, फ्रांस में 1913 में मतदान व्यवहार का अध्ययन किया गया। इसके बाद अमरीका में दो विश्वयुद्धों के बीच के काल में और ब्रिटेन में महायुद्ध के बाद मतदान व्यवहार का अध्ययन किया गया। भारत में द्वितीय आम चुनाव के बाद इस प्रकार के अध्ययनों को अपनाया गया और अभी हाल ही के वर्षों में भारत में इस विषय पर प्रचुर साहित्य प्रकाशित हुआ है जो आनुभाविक एवं वस्तुनिष्ठ सर्वेक्षण पर आधारित है।
मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्व
(FACTORS INFLUENCING VOTING BEHAVIOUR)
सर्वप्रथम, मतदान में भाग लेने वाले लोगों का अनुपात जनसंख्यात्मक लक्षणों और सामाजिक-आर्थिक पद के अनुसार बदलता रहता है। मतदान में भाग न लेने की प्रवृत्ति स्त्रियों में पुरुषों से अधिक, निरक्षरों में साक्षरों से अधिक, कम आय समूह में ज्यादा आय समूह से अधिक तथा सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों में सामाजिक दृष्टि से उन्नत वर्गों की तुलना में अधिक होती है। मतदान में भाग न लेने की प्रवृत्ति उनमें भी अधिक होती है, जिन्हें कम राजनीतिक सूचना प्राप्त है अथवा जिन पर संचार के साधनों और अन्य दबावों का प्रभाव कम है।’
भारतीय राजनीति के निर्धारक तत्वों व चतुर्थ आम चुनाव, 1971 के लोकसभा चुनाव और मार्च 1977, जनवरी 1980, दिसम्बर 1984, नवम्बर 1989, मई-जून 1991, अप्रैल-मई 1996 तथा फरवरी 1998 के लोकसभा चुनावों के विश्लेपण में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्वों की यथास्थान व्यापक विवेचना की गई है, यहां पर इन तत्वों की संक्षिप्त विवेचना ही अपेक्षित है। मतदान में भाग लेने वाले व्यक्ति सामान्यतया निम्न तत्वों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं :
जातिवाद
जातिवाद मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख तत्व रहा है। वैसे तो इस तत्व का प्रभाव भारतीय संघ के सभी राज्यों में है, लेकिन फिर भी बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और केरल में इस तत्व का प्रभाव अधिक है। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण और आशावर्द्धक तथ्य यह है कि यदि चुनाव के अन्तर्गत कोई महत्वपूर्ण प्रश्न या विशेष समस्या सामने हो, तो फिर जाति के तत्व का प्रभाव बहुत कम हो जाता है। 1971 के लोकसभा चुनाव, 1972 के विधानसभा चुनाव, 1977 के लोकसभा चुनाव और दिसम्बर 1984 व नवम्बर 1989 के लोकसभा चुनावों में यह वात देखी गयी।
आर्थिक स्थिति
व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति भी मतदान व्यवहार को प्रभावित करती है। सामान्यतया यदि व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति अच्छी हो तो मतदाता शासक दल के पक्ष में मतदान करते हैं; अन्यथा शासक दल के विरुद्ध इसी कारण शासक दल की यह चेष्टा रहती है कि चुनाव ‘अच्छी कृषि’ के वर्ष में हों। 1980 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की पराजय का एक प्रमुख कारण जनता की आर्थिक कठिनाइयां थीं, जिसके लिए उन्होंने जनता पार्टी और जनता ‘एस’ को उत्तरदायी माना ।
नेतृत्व
मतदाता को प्रभावित करने वाला एक बहुत अधिक मुख्य तत्व नेतृत्व है और इस तत्व के आधार पर भारत के अब तक चुनाव परिणामों की व्याख्या की जा सकती है। प्रथम तीन आम चुनावों में कांग्रेस की विजय का कारण नेहरू का व्यक्तित्व था. चौथे आम चुनाव में कांग्रेस की आंशिक पराजय का कारण था कि कांग्रेग के पास नेहरू जैसा कोई व्यक्तित्व नहीं था। 1971 और 1972 के चुनावों में श्रीमती गांधी के नेतृत्व के आधार पर विजय प्राप्त की जा सकी ऑर 1977 में कांग्रेग भारी पराजय का कारण यह था कि श्रीमती गांधी के व्यक्तित्व की छवि बहुत अधिक धूमिल हो गयी थी। नेतृत्व का प्रश्न चुनाव मे कितना अधिक महत्वपूर्ण होता है, यह बात 1980 के लोकसभा चुनावों से पूर्णतया स्पष्ट हो गयी है। दिसंबर 1984 के लोकसभा जनावों में भी जनता ने नेतृत्व के प्रश्न पर ही मतदान किया। 1989 में कांग्रेस की पराजय का कारण वोफोर्स में दलाली को लेकर राजीव गांधी की छवि का धूमिल होना था। फरवरी 1998 के चुनावों में भाजपा की सफलता का राज श्री अटल बिहारी जपेयी का व्यक्तित्व भी प्रमुख कारक माना जाता है।
राजनीतिक स्थिरता और केन्द्र में सुद्रढ़ सरकार की आकांक्षा
भारतीय मतदाता सामान्यतया राजनीतिक स्थिरता और केन्द्र में सुद्रढ़ शासन चाहते हैं और 1977 के पूर्व तक उनके द्वारा कांग्रेस को समर्थन प्रदान किये जाने का यह एक प्रमुख कारण रहा 1977 में जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि जनता पार्टी स्थायी शासन देने में समर्थ है तभी उनके द्वारा इस दल को सत्ता प्रदान की गयी। 1980 तथा 1984 के लोकसभा चुनावों में जनता द्वारा इन्दिरा कांग्रेस को भारी बहुमत प्रदान किये जाने का यह सबसे प्रमुख कारण था।
दलों की विचारधारा, कार्यक्रम और नीति
भारतीय मतदाता यद्यपि बहुत अधिक नहीं, लेकिन कुछ सीमा तक दलों की विचारधारा, कार्यक्रम और नीति से भी प्रभावित होते हैं। इस सम्बन्ध में उनके द्वारा निषेधात्मक विचारधारा और कार्यक्रम के स्थान सकारात्मक विचारधारा और कार्यक्रम को पसन्द किया जाता है। 1971 के चुनाव में जनता ने ‘गरीबी हटाओ’ के कार्यक्रम को देखते हुए अपना मत दिया था और 1977 में उन्होंने महसूस किया कि जनता पार्टी अन्य बातों के साथ-साथ सकारात्मक आर्थिक कार्यक्रम रख रही है।
क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति
भारत के कुछ क्षेत्रों में क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति भी प्रबल है। पंजाब में अकाली दल 1967 से 1971 तमिलनाडु में डी. एम. के. और 1977 के चुनावों में अन्ना डी. एम. के. की सफलता इस क्षेत्रवादी प्रवृत्ति का परिचय देती प. बंगाल और केरल, आदि राज्यों में कुछ क्षेत्रीय दलों की सफलता का कारण भी यही है।
भाषाई स्थिति
भाषा का तत्व भी भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करता रहा है। 1967 और 1971 के चुनावों में डी. एम. के. ने हिन्दी विरोध के नाम पर समर्थन प्राप्त किया और 1977 के लोकसभा चुनावों में दक्षिण भारत में जनता पार्टी की असफलता का एक कारण यह रहा है कि दक्षिण भारत के व्यक्ति अब तक जनता पार्टी की भाषा नीति के सम्बन्ध में पूर्णतया आश्वस्त नहीं थे।
युद्ध में सफलता-असफलता
युद्ध में सफलता-असफलता भी मतदान व्यवहार को प्रभावित करती है। 1962 की असफलता का 1967 में कांग्रेस के भाग्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा और 1971 के युद्ध में प्राप्त सफलता ने 1972 के विधानसभा चुनावों में न कांग्रेस की सफलता को बहुत सरल कर दिया।
सामन्तशाही व्यवस्था का प्रभाव
मतदान व्यवहार पर सामन्तशाही व्यवस्था का प्रभाव भी देखा गया, लेकिन यह प्रभाव क्रमशः कम होता जा रहा है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में कांग्रेस और अन्य दलों की भूमिका
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्रथम तीन चुनावों में इस तत्व की भूमिका प्रमुख रही लेकिन यह क्रमशः कम होती गयी और ऐसा होना नितान्त स्वाभाविक भी है।
आर्थिक साधन
आर्थिक साधन भी मतदान-व्यवहार को प्रभावित करते हैं, लेकिन 1977 से चुनावों ने स्पष्ट कर दिया कि आर्थिक साधन चुनाव को निर्णायक रूप में प्रभावित नहीं कर पाते। 1984 के लोकसभा चुनावों तथा 1985 के विधानसभा चुनाव में आर्थिक साधनों की भूमिका का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।