राजनीतिक दलीय व्यवस्था | Political party system
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात राजनीतिक दलीय व्यवस्था
भारतीय स्वतंत्रता के दौरान दलीय व्यवस्था में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, अखिल भारतीय मुस्लिम लीग, अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ, अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ और, भारतीय साम्यवादी दल राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली थे, वहीं क्षेत्रीय स्तर पर पंजाब में अकाली दल, मद्रास में द्रविड़ मुनेत्र कषगम, पूर्व में झारखण्ड विकास दल, जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉफेन्स आदि दल सामान्यतया क्षेत्रीय दल के रूप में विद्यमान थे।
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चूँकि भारतीय संविधान सभा में लगभग हर प्रभावी दल की सहभागिता थी जिसका तात्पर्य था कि ये सभी दल नव-निर्मित स्वतंत्र राष्ट्र तथा उसके संविधान के प्रति आस्थावान तथा कृतज्ञ होंगे और भारतीय लोकतान्त्रिक-गणतन्त्र को सहयोग करने के लिए भी पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध होंगे। फिर भी जैसा कि यहाँ साधारण सी दिखने वाली दलीय व्यवस्था इतनी सरल नहीं थी। इसे समझने के लिए हमें विभिन्न चरणों से गुजरना पड़ेगा।
1947 से 1967 तक : एक दलीय प्रभुत्त्व अर्थात कांग्रेस प्रभुत्त्व काल
स्वतन्त्रता के पश्चात भारत में चुनाव कराना काफी कठिन कार्य था। स्वतंत्रता पूर्व जहाँ चुनाव प्रक्रिया का स्वरूप संकुचित एवं गौण स्तरीय था, वहीं स्वतन्त्र भारत में यह काफी विस्तृत और प्राथमिक निष्पक्ष होने वाला था। इसके लिए सबसे पहले जनवरी 1950 में निष्पक्ष चुनाव आयोग स्थापित किया गया जिसके आयुक्त सुकुमार सेन बनाए गए। देश-व्यापी आधार पर चुनाव मतदाता सूची, मतदाता की अहर्ताएँ, उम्मीदवारों की अहर्ताएँ आदि के लिए संविधान के भाग 15 में चुनाव प्रक्रिया और जन-प्रतिनिधित्त्व अधिनियम 1950 स्वीकार किया गया। उस समय देश में 17 करोड़ मतदाताओं को 489 सांसद और 3200 विधायकों का चयन करना था।
भारत में प्रथम आम चुनाव अक्तूबर 1951 से फरवरी 1952 के बीच कराए गए। यद्यपि इस प्रकार का निष्पक्ष व लोकतान्त्रिक मतदान विश्व के सभी लोकतंत्रों के लिए सपने की भाँति था। प्रथम आम चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (प्रचलित नाम कांग्रेस पार्टी) को 489 सीटों में से 364 सीटें प्राप्त हुई जो स्पष्ट बहुमत सीटों के आधार पर मिला, लेकिन कुल पड़े वैद्य मत 49.17 प्रतिशत में से कांग्रेस को केवल 40.7 प्रतिशत मत ही प्राप्त हो सके जो कि मतों का स्पष्ट बहुमत नहीं था। यद्यपि कांग्रेस की जीत पर किसी को भी कोई भी संदेह नहीं था, क्योंकि राष्ट्रीय आन्दोलन में सहभागिता स्वतंत्रता प्राप्त करने में उसके योगदान, गाँधी, नेहरू और पटेल का करीश्माई व्यक्तित्त्व तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व राष्ट्रव्यापी संगठन का लाभ केवल कांग्रेस पार्टी के पास ही था जिसका लाभ कांग्रेस को तो होना था।
जैसा कि भारतीय लोकतन्त्र में चुनाव जीत का सिद्धान्त ‘सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत है’ न कि ‘वैध मतों का बहुमत पाने वाली की जीत’ तो इससे भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोई खास फर्क नहीं पड़ता। जैसे-सोशलिस्ट पार्टी (जिसकी स्थापना कांग्रेस के समाजवादियों को मजबूरन 1948 में अलग होकर करनी पड़ी, क्योंकि समाजवादी नेता कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा परिवर्तनवादी और समतावादी बनाना चाहते थे लेकिन ऐसा हो न सका इसलिए सरदार पटेल की सिफारिश से इसे कांग्रेस से अलग कर दिया गया) को 1952 के चुनाव में 10 प्रतिशत मत मिले जो दूसरे नम्बर पर थे, लेकिन सीटों के मामले में 12 सीटें अर्थात 3 प्रतिशत से भी कम मिली। अतः इस बात से सीख लेते हुए उन्होंने ‘किसान मजदूर प्रजा दल’ के साथ विलय कर लिया और जिससे ‘प्रजा समाजवादी दल’ अस्तित्त्व में आया।
1955 तक इनमें असहमति का दौर चलता रहा। अत: इस दल में फूट पड़ गयी। इससे दो दलों का उदय हुआ पहला-अशोक मेहता और आचार्य नीन्द्र देव के नेतृत्व में प्रजा समाजवादी दल को बनाया और डॉ. गमननाह लोहिया न वि.वर 1955 में भारतीय समाजवाद बलको सामना की। इस दल की मुख्य नीति जीव समाजवाद, विकेन्द्रीकरण, कुटीर उद्योग, भारत की विदेश नीति जिसमें ग्रह-निरपेक्ष नीति का विरोध किया और हिन्दी को गष्ट्रभाषा घोषित करने पर भी जोर दिया गया।
भारत के प्रथम आम लोक सभा एवं विधान सभा चुनावों से कुछ समय ही पूर्व कांग्रेस और समाजवादी एवं साम्यवादी दलों के विपरीत भारतीय जन संघ का 1951 में गठन किया गया। इसके संस्थापक सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्यक्ष थे। यद्यपि इसकी जड़ स्वतंत्रता पूर्व स्थापित ‘राष्ट्रीय स्वयं संघ’ और ‘हिन्दू महासभा” में देखी जा सकती थी। यह दक्षिण पंथियों का ऐसा राजनीतिक दल था जो ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र के सिद्धान्त’ पर जोर देता था। इसके मुख्य राजनीतिक बिन्दू भारत-पाकिस्तान का एकीकरण, अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को राजभाषा घोषित करना, जिसके लिए इसने देश व्यापी आन्दोलन भी चलाया और धार्मिक-सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधा का विरोध किया। इसने प्रथम आम चुनाव में केवल तीन सीटें ही जीतीं और 1957 के आम चुनावों में केवल 4 सीटें ही प्राप्त कर सकी।
1957 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक और गुट, जो कांग्रेस सरकार की राजकीय हस्तक्षेप, केन्द्रीयकृत नियोजन, राष्ट्रीयकरण और अर्थव्यवस्था के भीतर सार्वजनिक क्षेत्र के वर्चस्व और व्यक्ति की आर्थिक स्वतंत्रता को संकुचित करने वाली नीति की आलोचना करता था, अलग हो गया। इस गुट ने अगस्त 1959 में ‘स्वतंत्र’ पार्टी गठित की। इसके सदस्य ज्यादातर राज-घराने के लोग, उद्योगपति तथा कुछ पाश्चात्य शिक्षित बुद्धिजीवी ही बने, किन्तु 1962 के आम चुनावों में यह दल कांग्रेस की 361 सीटों के मुकाबले केवल 14 सीटें ही जीत सका।
इस दौरान पूरे भारत में केवल दो ही राज्य ऐसे थे जहाँ कांग्रेस की सरकार नहीं थी। पहला जम्मू और कश्मीर. क्योंकि वहाँ अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत विशेष व्यवस्था का प्रावधान था और वैसे भी जम्मू कश्मीर संवेदनशील राज्यों की श्रेणी में आता था। जिस वजह से या तो वहाँ आपातकाल घोषित करना पड़ा था या फिर वहाँ नेशनल कॉफ्रेंस शासन करती रही थी। दसरा केरल में 1957 में ‘डेमोक्रेटिक लेफ्ट फ्रंट’, जिसकी अगुआई ई.एम.एस. नम्बदरीपाद कर रहे थे ने पहली बार किसी लोकतान्त्रिक देश में लोकतान्त्रिक प्रक्षिण द्वारा सरकार गठित की। इसके अलावा कांग्रेस का वर्चस्व 1947-67 के बीच बिना किसी सशक्त बाधा के पूरे राष्ट्र पर रहा। ऐसा नहीं है कि सरकार अपना कार्य माला में निष्पादित करती रही हो।
1962 में चीन ने जब भारत पर आक्रमण कर दिया तो भारत की नवगठित राष्ट्रीय अस्मिता को काफी आघात लगा। इससे सरकार पर तो कोई आँच नहीं आई, लेकिन इससे भारतीय साम्यवादी दल में जरूर दरार पड़ गयी। बल्कि कहना चाहिए कि पूर्व से ही इसमें आपसी दरार थी, लेकिन चीनी आक्रमण के समय यह पूरी चरम सीमा पर पहुँच गई और सुन्दरैया, ए.के. गोपालन, नम्बूदरीपाद, प्रमोद दास गुप्ता, भूपेश गुप्त तथा ज्योति बस जैसे वरिष्ठ सदस्यों ने भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी) स्थापित कर लिया। इस तरह सी.पी.आई. और सी.पी.आई (एम) दो वामपंथी दल हो गए।
इतना होने के बाबजद भारत ने इस चरण में कई स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं का ता निवाहन च लान में स्वस्थ दलीय प्रतिद्वन्दता, विचारधारा पर आधारित दलीय प्रणाली तथा कार्यक्रम उन्मुखी दलीय व्यवस्था का भी नाव बहु-दलीय व्यवस्था के रूप में पड़ी। इस दौरान कांग्रेस का प्रभुत्त्व ‘बहु-दलीय व्यवस्था में एक दलीय’ प्रभुत्व के रूप में रहा। जैसा कि योगेन्द्र यादव और सुहास पाल्शीकर कहते हैं, “कांग्रेस की राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप ‘सबको लपको व आपसी सहमति’ वाला था।” यद्यपि यह तथ्यात्मक रूप में तो उचित जान पड़ता है, लेकिन वास्तव में कांग्रेस की आन्तरिक दलीय व्यवस्था आपसी सहमति पर अधारित नहीं थी।
इस नियम ने कांग्रेस को दो तरह से लाभांवित किया पहला-उसने ऊपरी जातिय नेतृत्त्व के साथ समझौता किया जिसमें राजा-रजवाड़े, उद्योगपति आदि को राजनीतिक नेतृत्व का लाभ पहुँचाया और प्रक्रियात्मक लोकतन्त्र से कल्याण उन्मुखी विकासवाद स्थापित कर निम्न जातीय दावा भी राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में कमतर (क्षुब्ध) कर दिया। दूसरा कांग्रेस ‘सबको लपको’ नियम के माध्यम से सभी चुनाव जीतती रही और वह भी अपनी नीति एवं नेतृत्त्व में बिना किसी खास परिवर्तन के। इस दौरान कांग्रेस को आमजन का सहयोग प्राप्त था खासकर समाज के सभी वर्गों एवं जातियों का। 27 इसी वजह से कांग्रेस बहुदलीय व्यवस्था में भी प्रधान दल की भूमिका लिए हुए थी। इस समय केन्द्र राज्यों की अपेक्षा काफी मजबूत स्थिति में था।
1967 से 1971 तकः बहुदलीय व्यवस्था की ओर संक्रमण
कांग्रेस में करिश्माई व्यक्तित्त्व पंडित जवाहर लाल और लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु से जहाँ एक ओर कांग्रेस के लिए नेतृत्त्व संकट पैदा हुआ, वहीं दूसरी ओर भारत आर्थिक संकट के दौर से भी गजा रहा डालर के मुकाबले रूपये की गिरावट, चीन तथा पाकिस्तान से युद्ध में हानि और देश में व्यापक स्तर पर पड़ा अकाल। देश के चौथे आम लोक सभा एवं विधान सभा चुनावों में कांग्रेस के विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव लड़े इसका परिणाम कांग्रेस को तत्कालीन 17 राज्यों में से 8 में अपनी सरकार खोकर चुकाना पड़ा।
अर्थात भारतीय संघीय 17 राज्यों में से 9 (आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, जम्मू कश्मीर, हरियाणा, मध्य प्रदेश, नागालैण्ड, मैसर और महाराष्ट्र) में ही कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो सका, लेकिन इन राज्यों में भी कांग्रेस को तीसरे आम चुनावों की अपेक्षा कम सीटें प्राप्त हुई थीं और लोक सभा में कांग्रेस की सदस्य संख्या 361 से घटकर 281 रह गयी थी। जो इस बात का प्रमाण था कि इस संक्रमण काल में कांग्रेस के विपक्षी सक्रिय हो गये हैं और एक दलीय प्रभुत्त्व के लिए सशक्त चुनौता बनकर उभरे हैं।
राज्यों में मिली-जुली (गठबंधन) सरकार का युग आरम्भ हो चुका है जो कांग्रेस की लोकप्रियता के लिए काफी बड़ा आघात था और जनसंघ (वर्तमान की भारतीय जनता पार्टी) तथा भारतीय साम्यवादी दल के लिए भारतीय दलीय प्रणाली में मजबूत आधार तैयार हो रहा था। यह एक ऐसा दौर था जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गुटबाजी अपनी चरम सीमा पर थी। पश्चिम बंगाल में अभय मुखर्जी के नेतृत्त्व में ‘बंगला कांग्रेस’, राजस्थान में कुम्भाराम के नेतृत्त्व में ‘जनता पार्टी’ और बिहार में महामाया प्रसाद का ‘जनक्रान्ति दल’ इन गुटबाजियों का ही परिणाम थे। कुल मिलाकर चौथे आम चुनाव में दलीय प्रणाली को अनिश्चित ही सही लेकिन एक नया आयाम जरूर प्रदान कर दिया। यद्यपि यह केवल राज्यों तक ही सक्रिय था और राष्ट्रीय सरकार अभी भी बहुमत पर ही चल रही थी, लेकिन सशक्त विपक्ष के साथ।
1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मध्य गुटबाजी अपने चरम सीमा पर प्रभावी होने लगी थी। कांग्रेस का सिंडीकेट (के.कामराज, एन. संजीवारेड्डी, मोरारजी देसाई और एस निजलिगप्पा) ऑर्गेनाइजेशन सत्तासीन गुट कांग्रेस से राष्ट्रपति चुनाव के मुददे पर टकरा बैठा जिससे कांग्रेस दो दलों में विभाजित हो गई। पहला गुट सिंडिकेट संगठन कांग्रेस (ऑर्गेनाइजेशन) बन गया और सत्तासीन इन्दिरा गुट कांग्रेस (रिक्विजिनिस्ट) कहा जाने लगा। कांग्रेस के विभाजन से इन्दिरा गाँधी की सत्ता कांग्रेस अल्पमत में आ गई। अतः इसने भारतीय साम्यवादी दल, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, प्रजा समाजवादी दल तथा अन्य छोटे दलों व निर्दलीय सदस्यों की सहायता से पहली बार संघीय गठबंधन सरकार बनायो। यह स्वयं में अब तक कि अद्वितीय घटना थी।
1971 से 1977 तकः पुनः एक दलीय प्रभुत्त्व एवं अधिसत्तावादी काल
फरवरी 1971 में पाँचवे आम चुनाव हुए। इस चुनाव के दौरान कांग्रेस के विपक्षी दलों का नारा ‘इन्दिरा हटाओ’ था। यह आम चुनाव इन्दिरा बनाम विपक्ष हो गया। इन्दिरा गाँधी ने इस दौरान ग्रामीण क्षेत्र की समृद्धि, आय की असमानता में कमी एवं प्रीवी पर्स की समाप्ति से गरीबी हटाओ का नारा दिया और कांग्रेस की आन्तरिक व्यवस्था उचित जातीय प्रतिनिधित्त्व के आधार पर स्थापित की। इसका असर 1971 के चुनाव के नतीजों पर इस प्रकार पड़ा।
सत्ता कांग्रेस 350 सीट तथा 43.6 प्रतिशत मत, संगठन कांग्रेस 10 सीट तथा 10.6 प्रतिशत मत, म्णवर्सवादी-साम्यवादी दल 25 सीट एवं 4.9 प्रतिशत मत, भारतीय साम्यवादी दल 23 सीट एवं 4.5 प्रतिशत मत, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम 23 सीट एवं 4.5 प्रतिशत मत तथा जनसंघ 22 सीट तथा 7.5 प्रतिशत मत। कहने का मतलब है कि एक बार फिर भारतीय दलीय व्यवस्था का स्वरूप एक दलीय प्रभुत्त्व हो गया जिसके विपक्षी खण्डित थे। सत्ता कांग्रेस के बाद दूसरे नम्बर का दल मार्क्सवादी साम्यवादी दल था। जिसका अन्तर काफी व्यापक था।
जनवरी 1974 में गुजरात के छात्रों ने खाद्यान्न, भ्रष्टाचार, मंहगाई और आर्थिक संकट के कारण आन्दोलन छेड़ दिया वही 1974-75 में जय प्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम पर बिहार और इसके बाद कांग्रेस सरकार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। इसके साथ ही जून 1975 में इलाहाबाद बेंच ने इन्दिरा गाँधी की लोक सभा सदस्यता रदद कर दी। इससे निजात पाने के लिए इन्दिरा गाँधी ने तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूददीन अली अहमद से आपातकाल लाग करने की सिफारिश कर दी। प्रस्ताव तत्काल से ही लागू कर दिया गया। इस फैसले में साम्यवादी दल भी सरकार के साथ थे और यह आपातकाल 18 माह चला। इस दौरान दलीय व्यवस्था एक दलीय अधिसत्तावाद में परिवर्तित हो गई जो निश्चित ही गैर लोकतान्त्रिक थी। लेकिन इस प्रक्रिया के फलस्वरूप विपक्ष एक-जुट हो गया।
1977 से 1989 तकः द्विदलीय व्यवस्था के लिए संक्रमण
1977 छठे आम लोक सभा से पर्व ही कांग्रेस (ओ) मोरारजी देसाई, भारतीय लोकदल चौधरी चरणसिंह. नव निर्मित कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी बाब जगजीवन राम और जनसंघटल बिहार बाब जगजीवन राम और जनसंघ बिहारी वाजपेयी ने गठबंधन कर एक नया दल जनता पार्टी बनाई। यह दल मख्यतः कांग्रेस (आई) के विरुद्ध बनाया गया था। जनता पाटी का अध्यक्ष मारारजी रणछोड़जी देसाई, तथा उपाध्यक्ष चौ. चरणसिंह (उ.प्र. के जनप्रिय किसान नेता) को बनाया गया। इस दल ने चुनाव में – स्थान आर 43.12 प्रतिशत मत प्राप्त किए जबकि पहली बार सत्तारूढ कांग्रेस का केवल 153 स्थान और 34.54 प्रतिशत ही मत प्राप्त हुए।
पहली बार कागेस को मोरारजी देसाई की सरकार में विपक्ष की भूमिका निभानी पड़ी। लेकिन आपसी कलह से एक बार फिर तख्ता पलट हुआ तो चौ. चरणसिंह ने कांग्रेस (आई) की मदद से सरकार बनायी, लेकिन विश्वास मत के दौरान कांग्रेस ने चौ. चरणसिंह से समर्थन वापस ले लिया और सरकार फिर गिर गई और इस प्रकार फिर से मध्यावधि चुनाव देखने को मिले।
1977-1980 तक दलीय प्रणाली में पहली बार चुनाव-पूर्व राजनीतिक दलों का गठबंधन देखने को मिला जो अद्वितीय था। इस घटना ने पहली बार ही सही गठबंधन बनाम सत्तादल के विरुद्ध मुकाबला कर द्विदलीय व्यवस्था को अस्वस्थ नींव डाली जो कालान्तर में नष्ट हो गई। दूसरा इसी दौरान दूसरी बार मतदान पश्चात गटबंधन से संघीय सरकार बनी जो भारतीय दलीय इतिहास में गठबंधन को और मजबूत करता नजर आया। किन्तु यह मृगमरीचिका ज्यादा सिद्ध हुई।
जनवरी 1980 में सातवाँ लोक सभा चुनाव सम्पन्न हुआ इसमें जातिय समीकरण. (जिसे सोशल इंजीनियरिंग भी कहते हैं) कमजोर मिली जुली सरकार का अस्थायित्त्वपन और फिर आर्थिक व विपक्षी दलों की फुट का लाभ कांग्रेस आई ने भरपूर उठाया। इन्दिरा कांग्रेस को 351 सीट और 42.66 प्रतिशत मत मिले जबकि जनता पार्टीको और 18.94 प्रतिशत मत जनता (एस.) 41 सीट और 9.43 प्रतिशत मत और कांग्रेस (अर्ग) 13 सोट और 5.31 प्रतिशत मत पर सीमित होकर रह गये। इस से एक बार फिर बहुदलीय व्यवस्था में एक दलीय प्रभुत्व स्थापित हो गया और सत्तापक्ष के मुकाबले विपक्ष छितराया हुआ तथा कमजोर साबित हुआ।
इस दौरान अपने कटु अनुभव से सीख लेते हए जनता पार्टी के एक गुट ने 6 दिसम्बर 1980 को दिल्ली में। दो दिवसीय सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता अटल बिहारी वाजपेयी ने की। यही भारतीय जनता पार्टी की आपचारिक घोषणा अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में कर दी गयी। लाल कृष्ण आडवानी इसके उपाध्यक्ष, सिकन्दर बख्त, मुरली मनोहर जोशी इसके मुख्य सदस्य थे। इनका स्टेंड कांग्रेस का विकल्प, भारत को हिन्दु राष्ट्र घोषित करना, रामजन्मभूमि पर राम मन्दिर बनाना तथा जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति करना था। अपने आरम्भिाक चुनाव 1984 में तो यह केवल 2 सीट ही जीत सका, लेकिन आगे चलकर यह राष्ट्रीय दल में परिवर्तित हो गया।
आठवें लोक सभा चुनाव से कांशीराम ने अपने संगठन बामसफ और डी एस. 4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) को 14 अप्रेल 1984 को बहुजन समाज पार्टी में बदलकर पूर्ण राजनीतिक दल की स्थापना कर दी। इसका मूल उद्देश्य दलित बहुजन समाज को एकत्रित करके राजनीतिक लाभ से लाभांवित करना था। आरम्भ में तो इसका खास असर नहीं पड़ा, लेकिन धीरे-धीरे यह राष्ट्रीय दल की श्रेणी में आ गया। इसने लोकसभा राज्यसभा में तो अपनी भूमिका निभाई ही, लेकिन इसने उत्तर प्रदेश की राजनीति पूरी तरह तो दलित उन्मुखी कर दी। वर्तमान में बसपा अध्यक्षा मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। दिसम्बर 1984 में चनाव से पूर्व 21/10/1984 को दृदिरा गांधी की हत्या कर दी गई इससे कांग्रेस (आई) में नेतृत्व का संकट पैदा हो गया, लेकिन इस खाली स्थान की पूर्ति उनके पुत्र गजीव गाँधीन कर दी ऑर भारी मतों से विजय हुई।
1989 से वर्तमान तकः वास्तविक बहुदलीय व्यवस्था तथा गठबंधन सरकार
रजनी कोठारी कहते हैं. “राजीव गाँधी ने लोकतान्त्रिक बहुमत का इस्तेमाल एक प्रबन्धकीय और तकनीकी शाही राज्य कायम करने में किया। उनकी हकमत का अन्त 1989 के आम चुनावों ने किया जब उन्हीं के मंत्रीमण्डल में वित्त और फिर रक्षा मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्त्व में विपक्ष ने एक जुट होकर उन्हें पराजित कर दिया। वी.पी.सिंह के साथ कांग्रेस से निकले नेताओं की कतार थी। दलीय प्रणाली के लिहाज से यह 1977 जैसा ही नजारा था। अन्तर सिर्फ वह कि नयी सरकार अल्पमत की थी और उसे बने रहने के लिए एक तरफ वामपंथी साम्यवादियों का और दूसरी तरफ दक्षिण पर्थी भारतीय जनता पार्टी के समर्थन की जरूरत थी। यह एक बेहद अस्थिर व्यवस्था थी जिसका अन्त शीघ्र होने पर कोई आश्चर्य नहीं होने वाला था।” 1989 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस (आई) को कवल 193 साट. जनता दल का 141. भाजपा को 86. माकपा को 12 और बसपा को उत्तर प्रदेश में 3 सीटें मिली।
यहाँ 1989 में राष्ट्रीय मोर्चे (नेशनल फ्रंट. जनता दल, कांग्रेस (एस), तेलगु देशम और असम गण परिषद) ने भाजपा और वामपंथियों के साथ जो सरकार वी.पी.सिंह के नेतृत्त्व में बनी वह 7 नवम्बर 1980 को मण्डल आयोग सिफारिशें लाग करने से गिर गयी। राजीव गाँधी के इशारे पर चन्द्रशेखर ने जनता दल से नाता तोड लिया और अपने 60 सांसद लेकर 211 काग्रेस (आई) और समर्थकों के साथ मिलकर सरकार बना ली। यह लंगड़ी सरकार गठबंधन प्रतिस्पर्धा के दौर में ज्या श देर तक नहीं दौड़ने वाली थी फिर चन्द्रशेखर ने अल्पमतीय सरकार बनाई। परिणाम केवल कुछ माह में ही सरकार गिर पड़ी।
1991 में लोक सभा के चुनावों में यद्यपि कांग्रेस 225 सीटे जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी, लेकिन वह स्पष्ट बहुमत से काफी पीछे छूट गई। लेकिन फिर भी कांग्रेस ने अन्ना द्रमुक, जे.डी. (जी.), आई.यू.एम.एल. के. सी. (एम) यू.सी. पी.आई. व निर्दलीय से मिलकर पामुलपति वैंकट नरसिम्हाराव के नेतृत्त्व में सरकार बनाई। यह सरकार ऐसी पहली संविदा सरकार बनी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया, लेकिन समर्थन पाने के लिए सदस्यों को घूस तथा घोटालों के लिए यह सरकार काफी प्रसिद्ध रही। दूसरा इस समय सभी राजनीतिक दलों को अपनी सीमा का अहसास होने लगा था। क्योंकि नरसिम्हाराव की सरकार त्रिशुंक लोकसभा से भी नीचे गिरकर अस्पष्ट जनादेश तथा खरीद फरोख्त बाली सरकार बनी।
ग्यारहवीं लोकसभा (अप्रैल-मई 1996), बारहवीं लोकसभा (1998) फिर अस्पष्ट जनादेश, राष्ट्रीय दलों का अवसान क्षेत्रीय दलों का उत्थान क्योंकि जहाँ पहले कांग्रेस के गुट विखरकर पृथक राजनीतिक दल बना लेते थे। अब इस दोड में जनता पार्टी से निकले गुट जनता दल में बिखराव आना शरू हुआ। जैस- 5 नवम्बर, 1990 का चन्द्रशेखर ने 54 सांसदों के साथ दल में विभाजन कर सजपा बनाई. 5 फरवरी 1992 को अजीत सिंह ने पार्टी छोड़कर अपना दल जनता दल (अ) बनाया जो बाद में भारतीय लोकदल बना
21 जून 1994 को जार्ज फर्नानडीज और नितिश कुमार ने नई समता पार्टी बनाई. जुलाई 1997 में लालू प्रसाद यादव ने राष्ट्रीय जनता दल बनाया. 15 दिसम्बर 1997 को बीजू पटनायक ने बीजू जनता दल बनाया, 21 जुलाई 1999 को शरद यादव ने, जनता दल (एकीकृत) बनाया तथा हरदनाहल्ली डढेगौडा देवगौडा तथा रामविलास पासवान ने जनता दल (सेक्युलर) बनाया, लेकिन बाद में रामविलास ने अपने को अलग करके लोक जन शक्ति बना ली। एसे ही मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के उत्तराधिकारी के रूप में 4 अक्तूबर 1992 को समाजवादी पार्टी घोषित कर दी। इस दौरान कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में भी काफी गुटबाजी रही और दल बनने बिगाड़ने तथा पुनः विलय की अस्वस्थ परम्परा बहुदलीय संविदा सरकार के युग में चल पड़ी।
1999 में तेरहवी लोकसभा का गठन किया गया तो राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (राजग) की सरकार बनी जो मूल रूप से भाजपा के नतृत्व में बनी। ऐसा ही मई 2004 की चौदहवीं लोकसभा में देखा गया जहाँ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (सप्रंग) कांग्रेस के नेतृत्त्व में सरकार चला रहे हैं और इसे वामपंथी बाहर से सहयोग कर रहे हैं। जहाँ पहले राजग 13 पार्टियों का गठबंधन से सरकार चला रहा था। वहीं संप्रग 15 राजनीतिक दलों के साथ मिलाकर सरकार चला रहा है। इस प्रकार की स्थिति से भारतीय संघीय व्यवस्था में नैतिक पतन तथा अस्पष्ट बहुमत से पंगू संसद का गठन होता है।
जैसा कि एम.पी. सिंह और रेखा सक्सेना कहती हैं, ‘कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते क्षेत्रीय दल एवं बिना किसी देश-व्यापी विचारधारा एवं कार्यक्रम वाले राष्ट्रीय दलों ने अब पंगु संसद (Hang Parliament) की अस्वस्थ परम्परा डाल दी है। गठबंधन बनाने की रणनीति आरम्भ में चुनाव पश्चात की जाती थी और वृहद दल चुनाव-पूर्व सभी प्रकार के लाभ उठाने से गुरेज नहीं करते थे, लेकिन ऐसी रणनीति ने धीरे-धीरे अपना प्रभाव निष्क्रिय कर दिया और अब चुनावपूर्व भी गठबंधन प्रभावी होने लगे हैं। जैसे राजग और सप्रंग वर्तमान में काफी प्रभावी गठबंधन है, लेकिन संयुक्त मोर्चा अपनी प्रांसगिक्ता खो चुका है।