fundamental rights in hindi

मौलिक अधिकार | fundamental right of indian constitution

भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की माँग यह थी कि भारत के हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए। 1918 में भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस ने यह माँग की थी कि मोटफॉर्ड रिर्पोट में भारत के लोगों के अधिकारों की घोषणा होनी चाहिए। 1928 में एक सर्वदलीय समिति बनी। श्री मोती लाल नेहरू उस समिति के प्रधान थे। उन्होंने एक रिर्पोट पेश की जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया कि सबसे जरूरी काम यह है कि मौलिक अधिकारो की गारन्टी दी जाए और उनको संविधान में इस प्रकार जोड़ दिया जाये कि किसी भी हालात में उनको वापिस न लिया जा सके। 1931 में कांग्रेस पार्टी का एक अधिवेशन करांची में हुआ। इस अधिवेशन में मौलिक अधिकारों की एक घोषणा को स्वीकार किया गया। इस घोषणा में राजनीतिक और नागरिक अधिकारों का जिक्र तो था ही लेकिन सामाजिक व आर्थिक अधिकारों को भी शामिल किया गया था। 1945 में सप्रू कमेटी ने भी सुझाव दिए थे। इस कमेटी का कहना था कि भविष्य में भारत का जो संविधान बने उसमें दो प्रकार के अधिकार जरूर होने चाहिए। एक तो वे अधिकार जो न्याय संगत (Justiciable) हो ओर दूसरे वे जो न्याय संगत न (Non-Justiciable) हो।

 

मौलिक अधिकार

 

हमारी संविधान सभा में इस बात पर एक मत था कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकार का पूरी तरह से वर्णन किया जाए और सारे मौलिक अधिकार का पूरी तरह से वर्णन किया जाए और सारे मौलिक अधिकार पूरी तरह से उसमें शामिल किए जाये। जो मौलिक अधिकारो का अध्याय था उसमें राजनीतिक और नागरिक अधिकारो को शामिल किया गया।

मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ : 

भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारो की विशेषताएँ इस प्रकार है:

विस्तृत अधिकार-पत्रः भारतीय अधिकार-पत्र की प्रथम विशेषता यह है कि यह एक विस्त त अधिकार-पत्र है। 2-3 अनुच्छेदों में जिनकी आगे जाकर कई धाराएँ, नागरिकों के अधिकारों का विस्त त वर्णन किया गया है। उदाहरणतः अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया हैं तथा इसके 6 भाग है जिनमें नागरिकों की 6 विभिन्न स्वतन्त्रताओं, उनके अपवादों आदि का विस्त त वर्णन है ऐसा ही विस्त त वर्णन उन्य अनुच्छेदों में किया गया

सभी नागरिकों के समान अधिकारः मौलिक अधिकार जाति, धर्म, नस्ल, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को प्राप्त है। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यको में कोई भेद नहीं। यह सभी पर समान रूप से लागु होते है

और कानुनी द ष्टि से सभी नागरिकों के लिए सुरक्षित हैं सरकार इन पर उचित प्रतियन्ध लगाते समय नागरिकों में भेदभाव नहीं कर सकती। 

अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं है: कोई भी अधिकार असीमित नहीं हो सकता । उसका प्रयोग दूसरो के हित को ध्यान में रख कर ही किया जा सकता है। अधिकार सापेक्ष होते है तथा उनका प्रयोग सामाजिक प्रसंग में ही किया जा सकता है। इसलिए हमारे संविधान में सरकार को राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक नैतिकता तथा लोक कल्याण की द ष्टि से मौलिक अधिकारो पर समय की आवश्यकता अनुसार उचित प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार दिया गया है। 

अधिकतर नकारात्मक अधिकारः भारतीय अधिकार -पत्र में लिखित अधिकार अधिकतर नाकारात्मक अधिकार है। दूसरे शब्दों में इन अधिकारों द्वारा राज्य पर प्रतिबन्ध तथा सीमाएँ लगाई गई हैं, उदाहरणतः राज्य पर यह सीमा लगाई गई है कि राज्य जाति, धर्म , रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा तथा न ही सरकारी पद पर नियुक्ति करते समय ऐसा कोई भेदभाव करेगा। परन्तु इसके साथ ही कुछ अधिकार साकारात्मक रूप से मे भी दिए गए हैं। उदाहरणतः स्वतन्त्रता का अधिकार जिस द्वारा नागरिकों को भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता समुदाय निर्माण करने की स्वतन्त्रता किसी जगह रहने तथा कोई भी पेशा अपनाने की स्वतन्त्रता आदि प्रदान की गई है।

अधिकार संघ, राज्यों तथा अन्य सरकारी संस्थाओं पर समान रूप से लागू है: मौलिक अधिकारों के भाग में ही संविधान राज्य शब्द की व्याख्या की गई है तथा यह कहा गया है कि राज्य शब्द के अर्थ है:- संघ, प्रान्त एवं स्थानीय संस्थाएँ। इस तरह अधिकार-पत्र द्वारा लगाई गई सीमाएँ संघ, प्रान्त एवं स्थानीय संस्थाओं-नगरपालिका तथा पंचायतों पर भी लागू है। इन सभी संस्थाओं को मौलिक अधिकारों द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्दर कार्य करना होता है। 

भारतीय नागरिकों और विवेशियों में अन्तरः भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में नागरिकों तथा विदेशीयों में भेद किया गया है। कुछ मौलिक अधिकार ऐसे है जो नागरिकों तथा विदेशियों को समान रूप से प्राप्त है जैसे कानूनी समानता, धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार ऐसे है जो नागरिको को तो प्राप्त है परन्तु विदेशियों को नहीं जैसे-भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता, घूमने फिरने और देश के किसी भी भाग में रहने की स्वतन्त्रता। अधिकार स्थगित किये जा सकते है हमारे संविधान में अधिकारों को संकटकाल में स्थगित किये जाने की व्यवस्था की गई है। बाहरी आक्रमण की सम्भावना से उत्पन्न होने वाले संकट का सामना करने के लिए राष्ट्रपति सम्पूर्ण भाग अथवा भारत के किसी भाग में सकंटकालीन घोषणा कर सकता है तथा ऐसी व्यवस्था में नागरिक के अधिकारो को स्थगित कर सकता है। 

मौलिक अधिकार न्यायसंगत है: मौलिक अधिकार न्यायालयों द्वारा लागू किए जाते हैं मौलिक अधिकार को लागू करवाने के लिए संविधान में विशेष व्यवस्थाएँ की गई हैं। संवैधानिक उपायों का अधिकार मौलिक अधिकारों में विशेष रूप से शामिल है। इसका अर्थ यह है कि कोई भी नागरिक जिसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो, हाई कोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट से अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अपील कर सकता है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के अधिकारो की रक्षा के लिए कई प्रकार के लेख जारी करते हैं। यदि मौलिक अधिकारों का उल्लघंन सिद्ध हो जाए तो वे किसी व्यक्ति, संस्था अथवा सरकार द्वारा की गई गलत कारवाई को अवैध घोषित कर सकते है। 

परिभाषा एवं उद्देश्य 

संविधान में मौलिक अधिकारों की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। परन्तु यदि इसका शाब्दिक अर्थ लिया जाए तो इन्हें मौलिक’ इसलिए कहा जाता है कि इन्हें देश के मौलिक कानून अथवा संविधान में शामिल किया गया है, ये न्यायसंगत हैं, जिन्हें न्यायालय लागू कर सकते हैं, ये सभी नागरिको को प्राप्त हैं। ये मौलिक इसलिए भी है कि सभी सार्वजनिक सत्ताएँ:-केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय सरकार उन्हें मानने के लिए बाध्य हैं। सुभाष कश्यप ने अपनी पुस्तक राजनीति कोष में कहा है कि इन अधिकारों को आसानी से संशोधित नहीं किया जा सकता। 

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में इन अधिकारों को नैसर्गिक और अप्रतिक्षेय माना है। इस मत की पुष्टि मेनका गाँधी मामले में भी की गई है। इस प्रकार मूल अधिकार वे आधारभूत अधिकार है जो नागरिकों के बौद्धिक, नैतिक, आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक ही नह वरन् अपरिहार्य हैं। इन अधिकारों के अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास संभव नहीं है। 

विभिन्न मूल अधिकार 

भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का वर्णन इसके तीसरे भाग में धारा 12 से 35 तक किया गया है। विभिन्न संवैधानिक संशोधनों के परिणामस्वरूप इनमें अन्य उपधाराएँ भी जोड़ी गई है। 44वें संशोधन द्वारा धारा 31 को निकाल दिया गया है जो निजी सम्पति के अधिकार से सम्बन्धित थी। इस प्रकार 7 की बजाए 6 मूल अधिकार बाकी बचे हैं। जो इस प्रकार हैं:

  • 1. समानता का अधिकार (धारा 14 से 18) 
  • 2. स्वतंत्रता का अधिकार (धारा 19 से 22) 
  • 3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (धारा 23 से 24)
  • 4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (धारा 25 से 28)
  • 5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (धारा 29 से 30) 
  • 6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (धारा 32) 

 

समानता का अधिकार (14-18) 

श्री निवासन के अनुसार इस अधिकार का उद्देश्य नागरिकों को राज्य द्वारा प्रशासनिक और वैधानिक क्षेत्रों में किए जाने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार से सुरक्षित करना है और सामाजिक असमानता के असंस्कृत रूप को कम करना है। इस अधिकार के माध्यम से भारतीय सीमा में रह रहे सभी व्यक्तियों को कानून के सामने समान माना गया है। इसकी उत्पत्ति इंग्लैंड में हुई जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति को विशेषाधिकार न देना। कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। भारत ने यह अधिकार आयरलैंड के संविधान से लिया है।

स्वतन्त्रता का अधिकार (धारा 19-22) 

M.V पायली के अनुसार स्वतंत्रता का अधिकार मौलिक अधिकारों में सर्वोच्च स्थान रखता है और उन्हें स्वतंत्रता के अधिकार पत्र’ कहा जाता है। 19 का अनुच्छेद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसके तहत निम्नलिखित व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का वर्णन हैं:

1. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। 

2. सभा करने की स्वतंत्रता। 

3. संघ बनाने की स्वतंत्रता। 

4. भ्रमण करने की स्वतंत्रता। 

5. आवास की स्वतंत्रता। 

6. व्यापार, व्यवसाय, पेशा करने की स्वतंत्रता। 

सातवीं स्वतंत्रता जो सम्पत्ति के अधिकार से सम्बन्धित थी उसे 44वें संविधान संशोधन द्वारा 1978 से निरस्त कर दिया गया है। परन्तु इन स्वतंत्रताओं के प्रयोग पर कुछ प्रतिबन्ध लगाए गए हैं, जैसे भाषण देते समय राज्य में शान्ति एवं सुरक्षा, प्रभुसत्ता एवं अखण्डता, विदेशी के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध आदि को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार एवं नैतिकता. न्यायालय का सम्मान आदि भी मद्देनजर रखे जाने चाहिएँ। किसी भी व्यक्ति को मानहानि एवं हिसा को प्रोत्साहन देने की छूट नहीं दी जा सकती। किसी सभा के आयोजन में यह आवश्यक है कि यह शान्तिपूर्ण एवं निशस्त्र हो।

शोषण के विरुद्ध अधिकार (धारा 23 से 24)

धारा 23 के तहत सभी प्रकार के बलात् श्रम और व्यक्तियों की खरीद-फरोक्त को निषिद्ध किया गया है। किसी भी व्यक्ति से उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करवाने की मनाही है। 

धारा 24 के तहत 14 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों को किसी भी कारखाने या खान में नौकर न रखने और किसी अन्य संकटमय नौकरी में न लगाने का प्रावधान है।  परन्तु राज्य को जनता के हितों के लिए अपने नागरिकों से आवश्यक सेवा करवाने पर पाबन्दी नह है। राज्य सैनिक, विद्या तथा सामाजिक सेवा की व्यवस्था कर सकता है पर ऐसा करते हुए वह धर्म, मूलवंश, जाति अथवा श्रेणी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। 

धर्म स्वातंत्रय का अधिकार (25-28) 

धारा 25 के तहत अन्तकरण तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गई है। परन्तु राज्य किसी भी धर्म को मानव बलि देने की आज्ञा नहीं दे सकता । 

धारा 26 के तहत धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतंत्रता दी गई है परन्तु ऐसा करते समय सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, तथा स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाएगा। 

धारा 27 में किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर अदा करने के लिए विवश नह किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी धर्म विशेष के विकास एवं संचालन हेतु व्यय किया जाए या किसी धार्मिक वर्ग विशेष के लिए खर्च किया जाए। 

धारा 28 में सरकारी शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर रोक का प्रावधान है। संविधान के ये सभी प्रावधान धर्मनिरपेक्ष राज्य की ओर इशारा करते हैं परन्तु विभिन्न राजनैतिक दलों और समूहों ने धर्मनिरपेक्ष शब्द की व्याख्या अपनी-अपनी सुविधानुसार की है। परन्तु भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने बम्बई मामले 1994 में कहा कि : राज्य को किसी धर्म के प्रति आक्रामक नहीं होना बल्कि सभी धर्मों के प्रति तटस्थ होना है, धर्म का सरकार एवं राजनैतिक दलों द्वारा राजनैतिक प्रयोग न करना। सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में बाबरी मस्जिद मामले में पुनः कहा कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं इसलिए उसके लिए सभी धर्म समान है। परन्तु नरसिम्हाराव सरकार द्वारा ‘नम्र हिन्दुत्त्व’ और वाजपेयी सरकार द्वारा ‘हिन्दुत्त्व’ या हिन्दू राष्ट्र का कार्ड चुनावों में पेश करना उचित नहीं है। 

सास्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (29-30) 

इसके तहत अल्पसंख्यकों को हितों के संरक्षण तथा शिक्षा संस्थाएँ स्थापित करने का मूल अधिकार प्रदान किया गया है। धारा 29 के तहत अल्पसंख्यक नागरिकों के सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक हितों के संरक्षण की दो व्यवस्थाएँ हैं:-

(1) भारत के राज्य क्षेत्र अथवा उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है। 

(2) राज्य द्वारा घोषित या राज्य निधि से सहायता पाने वाले किसी भी शिक्षा संस्थान में प्रवेश में धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। 

धारा 30 शिक्षा संस्थाओं की स्थापना एवं संचालन में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में निम्न व्यवस्थाएँ करती हैं:

(1) धर्म या भाषा पर आधारित अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि की शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना और संचालन का अधिकार होगा। 

(2) शिक्षा संस्थाओं को सहायता देते समय सरकार किसी भी संस्था से धर्म या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। 

संवैधानिक उपचारों का अधिकार (32-35) 

यह भारतीय संविधान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अम्बेडकर ने इस अधिकार को संविधान की आत्मा तथा हृदय बताया है और इसके बिना संविधान शून्य हो जाएगा। यह अधिकार मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन की बात करता है। देश का कोई भी नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में धारा 226 के तहत राज्य के उच्च न्यायालय में इसे चुनौती दे सकता है। इस उद्देश्य के लिए विभिन्न उपचारों का प्रावधान किया गया हैं। जैसे:

(1) बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाः- इसका शाब्दिक अर्थ है कि बन्दी बनाए गए व्यक्ति को न्यायालय में पेश करना ताकि कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से उसके मामले का निपटारा किया जा सके। ऐसा हिरासत में लेने के 24 घंटे के अन्दर-अन्दर किया जाना चाहिए वरना यह अवैध मानी जाएगी। 

(2) परमादेश याचिकाः- इसका अर्थ है कि किसी अधिकारी को कुछ करने का आदेश देना। यह आदेश उच्चतम न्यायालय अथवा न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है। उदाहरणतया यदि किसी व्यक्ति को सभी योग्यताएँ पूरी करने पर भर्ती कर लिया गया है तो उसे नियुक्ति पत्र दिया जाना चाहिए। यदि सम्बन्धित अधिकारी ऐसा नहीं करता तो वह व्यक्ति इस याचिका के माध्यम से न्यायालय में जा सकता है। 

(3) प्रतिषेध याचिकाः- इसका अर्थ है रोकना अथवा मनाही करना। यह याचिका उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय द्वारा निम्न न्यायालय को जारी की जाती है कि वह अमुक मामले की कार्यवाही बन्द करे जो उसके क्षेत्राधिकार से बाहर है। 

(4) अधिकार-पच्छा याचिकाः- इसका अर्थ है किसके आदेश से अथवा किस अधिकार से इसके तहत न्यायालय इस बात की जाँच करता है कि कोई भी व्यक्ति किसी सरकारी पद पर अवैध रूप से तो नहीं बैठा है। यदि ऐसा है तो उसे वहाँ से हटाया जा सकता है। 

(5) उत्प्रेषण याचिकाः- इसका अर्थ है अच्छी प्रकार सूचित करें। यह आदेश वरिष्ठ न्यायालय द्वारा निम्न न्यायालय को देता है कि वह किसी अमुक अभियोग को उसे हस्तातंरित करे। ऐसा क्षेत्राधिकार की कमी और दुरुपयोग के मामले में किया जाता है। 

धारा 33 सेना के सदस्यों के प्रति और धारा 34 मार्शल लॉ लागू होने की स्थिति में धारा 32 के अपवाद है। धारा 35 में संविधान के मूल्य अधिकारों वाले भाग 3 के उपबन्धों को प्रभावी करने के लिए प्रावधानों का वर्णन किया गया है।

निष्कर्ष 

मौलिक अधिकारों ने हमारे देश में राजनैतिक और सामाजिक जनतंत्र की स्थापना की है। नागरिकों को प्रदान की गई स्वतंत्रताएँ उनके व्यक्तित्व के विकास में मील का पत्थर साबित हुई हैं। फिर भी इन अधिकारों की कुछ कारणों से आलोचना की गई हैं जैसे:

 

  • ये अधिकार आर्थिक पक्ष पर जोर नहीं देते। 
  • ये अधिकार एक हाथ से दिए गए हैं तो दूसरे हाथ से वापिस ले लिए गए हैं। 
  • निवारक निरोध की व्यवस्था से इन अधिकारों का सार समाप्त होता जा रहा है। 
  • मौलिक अधिकारों की भाषा बड़ी जटिल एवं कठिन है और यह आम नागरिकों जो कि ज्यादातर अशिक्षित है, की समझ से बाहर है। 
  • समानता का अधिकार होते हुए भी राष्ट्रपति, मन्त्रियों, विधानमंडल के सदस्यों और राजदूतों के पास विशेषाधिकार हैं। 

अन्त में कहा जा सकता है कि इस अधिकारों के होते हुए भी समाज में मूलभूत परिवर्तन नहीं हो पाए हैं। आज जाति, धर्म, लिंग के आधार पर खुले आम भेदभाव किया जाता है। महिलाओं को द्वितीय दर्जे का नागरिक माना जाता है। आजादी के 55 साल बाद भी अछुतों की हालत बहुत दयनीय है। देश की एक-तिहाई जनता गरीबी की रेखा पर बसर करती है। लगभग 2 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करते हैं। धार्मिक एवं जातिगत हिंसा बढ़ रही है। 

इन सबका कारण है कि मौलिक अधिकारों को व्यवहार में लाने के लिए नागरिकों को शिक्षा एवं प्रशिक्षण चाहिए। धन का एकत्रण कुछ निजी हाथों में नहीं होने देना चाहिए। सत्ता में धनी लोग बैठे हैं जो अपने हितों को बढ़ावा देते हैं। जरूरत है ‘अवसर’ की जब स्वतंत्रता को वास्तविक जामा पहनाया जाए और ऐसी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक संस्थाएँ स्थापित की जाएँ जो मजदूर एवं किसान को गरीबी, अज्ञानता एवं बीमारी से लड़ने में मदद करें।

 

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