directive principles of indian constitution in hindi

राज्य-नीति के निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy

राज्य-नीति के निदेशक तत्त्व हमारे संविधान की संजीवनी व्यवस्थाएँ हैं। इन सिद्धांतों में हमारे संविधान का और उसके सामाजिक न्याय दर्शन का वास्तविक तत्त्व निहित है। ये तत्त्व हमारे संविधान की प्रतिज्ञाओं और आकांक्षाओं को वाणी प्रदान करते हैं। संविधान निदेशक सिद्धान्तों का मार्ग प्रशस्त करता है और निदेशक सिद्धांत एवं उनका क्रियान्वयन संविधान को सामाजिक शक्ति से अभिसंचित करता है। निदेशक सिद्धांतों का प्रयोजन शान्तिपूर्ण तरीकों से सामाजिक क्रान्ति का पथ-प्रशस्त कर कुछ सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को तत्काल सिद्ध करना है। इस प्रकार की सामाजिक क्रान्ति के माध्यम से संविधान सामान्य व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकताओं की पूति करना और हमारे समाज की संरचना में परिवर्तन करना चाहता है। संविधान के भाग चतुर्थ का, जिसमें राज्य-नीति के निदेशक तत्त्वों का विवेचन किया गया है, उद्देश्य उस सामाजिक और ङ्केआर्थिक प्रान्ति को मूर्त रूप प्रदानफरना है, जिससे स्वाधीनता के पश्चात पूरा करना बाकी रह गया था. भारतीय संविधाना में इन्हें अपनाने की प्रेरणा आयरलैंड से प्राप्त हुई।
नीति निर्देशक सिद्धांत

निर्देशक तत्त्वों का अर्थ और उद्देश्य

(Meaning and Objectives of Directive Principles) 

संविधान के चतुर्थ भाग में अनुच्छेद 36 से 51 तक निदेशक तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांत देश की विभिन्न सरकारों और सरकारी अभिकरणों के नाम जारी किए गए निर्देश हैं जो देश की शासन-व्यवस्था के मौलिक तत्त्व हैं। दूसरे शब्दों में, निदेशक कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को दिए गए ऐसे निदेश हैं जिनके अनुसार उन्हें अपने अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार करना होता है कि इन सिद्धांतों का पूरा और उचित रूप से पालन हो। ये सिद्धांत ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की घोषणाएं हैं। सिद्धांत पथ-प्रदर्शन तथा ऊँची-ऊँची आकांक्षाओं के घोषणा-पत्र हैं। 

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार, राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है। संविधान की प्रस्तावना में जिन उद्देश्यों को प्रकट किया गया है उन्हें व्यावहारिक रूप देने के लिए राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का स्थान दिया गया है। 

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार, राज्य के नीति के निदेश सिद्धांत सन् 1935 के अधिनियम में जारी किए गए अनुदेश-पत्रों के समान ही हैं। बस अन्तर केवल यही है कि अधिनियम में गवर्नर-जनरल तथा गवर्नरों को निर्देशन दिए गए थे जबकि इस संविधान में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को निदेश दिए गए हैं।”

सर आइवर जैनिस के अनुसार, भारतीय संविधान का यह भाग फेवियन समाजवाद की ही स्थापना करता है, जबकि समाजवाद’ शब्द का उल्लेख नहीं मिला है। 

प्रो. पायली के अनुसार, “निदेशक तत्त्व भारतीय प्रशासकों के आचरण के सिद्धांत हैं। 

जी.एन.जोशी के शब्दों में, “इन निदेशक तत्त्वों को विधानमण्डलों को कानून बनाते समय और कार्यपालिका को इन तत्वों को लागू करते समय ध्यान में रखना चाहिए। ये उस नीति की ओर संकेत करते हैं, जिसका अनुसरण संघ और राज्यों को करना चाहिए। 

न्यायाधीश केनिया के अनुसार, “निदेशक तत्त्वों में राष्ट्र की बुद्धिमतापूर्ण स्वीकृति बोल रही है, जो संविधान सभा के माध्यम से अभिव्यक्त हुई थी। 

संक्षेप में ये सिद्धांत शासन की नीतियों को निर्दिष्ट करने के लिए विधान में निहित किए गए हैं। डॉ. पायली ने इसे ‘आधुनिक संवैधानिक प्रशासन की एक नवीन विशेषता बतलाया है, जिसकी प्रेरणा हमें आयरिश संविधान से ही मिली है। ये सिद्धांत प्रजातन्त्रामक भारत का शिलान्यास करते हैं। जब भारत सरकार इन्हें कार्यरूप में परिणत कर सकेगी तो भारत एक सच्चा लोककल्याणकारी राज्य कहला सकेगा।

निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूपः

राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों से सम्बन्धित अध्याय में कुल 19 उद्धेश्यों का उल्लेख हैं, जिनके अंतर्गत राज्य को अनेक कल्याणकारी उपाय करने हैं। इनका उद्देश्य नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराना, जीवन-स्तर में सुधार करना, जन-स्वास्थय में सुधार करना, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना और यह सुनिश्चित करना है कि आर्थिक प्रणाली के कार्यान्वयन से सम्पति एवम् उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण न होने पाए।

निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य राज्य के कुछ कर्तव्य निर्धारित कर आम जनता को वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान कराना है। यह निर्देशक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं :

अनुच्छेद 36 से 51  (राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का उल्लेख)

राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का महत्व 

(Importance of Directive Principles of State Policy)

राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों की जो आलोचना की गई है उसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि वे बिल्कुल व्यर्थ और महत्वहीन है। वास्तव में संवैधानिक और व्यावहारिक द ष्टिकोण से राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का बहुत अधिक महत्व है। डॉ. पायली के अनुसार, “इन निर्देशक सिद्धान्तों का महत्व इस बात में है कि ये नागरिकों के प्रति राज्य के सकारात्मक दायित्व है।” इन सिद्धान्तों के महत्व का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है:

1. सरकार के लिए निर्देश : (Directives for government): ये सिद्धान्त सरकार के लिए मार्ग-दर्शन का काम करते हैं। संविधान की धारा 37 में इन सिद्धान्तों को शासन के सर्वोच्च आदेश घोषित किया गया है। सरकार का यह परम कर्तव्य है कि नीति निर्माण करते समय इन सिद्धान्तों को पालन करे तथा यथा-सम्भव इनको लागू करे।

2. नैतिक आवों के रूप में (Asmoral ideas ): यह ठीक है कि राजनीति तथा नैतिकता दो अलग-अलग विषय हैं। परन्तु इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता कि राजनीति का आधार नैतिकता होनी चाहिए। हमारे संविध

न के निर्देशक सिद्धान्त वे सिद्धान्त है जिनके आधार पर सरकार को चाहे वह किसी भी दल द्वारा निर्मित सरकार क्यों न हो, अपने कार्य करने होते है। इतिहास इस बात का गवाह हैं कि नैतिक आदर्शों ने बहुत बार राज्य की नीति को महत्वपूर्ण रूप से बदलता है।

3. संविधान की ध्याच्या के लिए सहायक (Helpful for the Interpretation of Constitution): भारतीय संविधान की व्याख्या करने का अधिकार न्यायपालिका को है। न्यायपालिका ने संविधान की व्याख्या करते समय सदैव नीति निर्देशक सिद्धान्तों को द ष्टि में रखा। न्यायपालिका ने सदैव इन सिद्धान्तों को संविधान निर्माताओं की इच्छा तथा सम्पूर्ण राष्ट्र की इच्छा का प्रतीक माना है। गोपालन बनाम मद्रास राज्य (Gopalan Vs The State of Madras) नामक केश में उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश श्री केनिया ने स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य को स्वीकार किया। उनके शब्दों में, “राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्त संविधान के भाग है इस कारण वह समस्त राष्ट्र के विवेक के प्रतीक हैं, न कि बहुमत दल की इच्छा के प्रतीक, जिन्हें संविधान सभा द्वारा प्रकट किया गया, जिसको समस्त देश के लिए सर्वोच्च तथा स्थायी कानून बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था।

4. राज्य के कार्यों को जाँचने की कसौटी: (A Standard for measuring the work of state): राज्य के कार्यों को जाँचने के लिए निर्देशक सिद्धान्त लोगों के हाथ में एक माप-दण्ड है। लोग सरकार के कार्यों की परख इस आध पार पर करते हैं कि कहाँ तक सरकार ने निर्देशक सिद्धान्तों को व्यवहार में लाया है। अगर लोग यह समझे कि एक दल की सरकार ने इन सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने के लिए ठोस तथा द द कदम नहीं उठाए तो उस दल की सरकार के स्थान पर चुनाव में किसी अन्य दल की स्थापना कर लेते है।

5. निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे जनमत की शक्ति (Power of Public opinion behind the Principles): इसमे सन्देह नहीं कि निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानून की शक्ति नहीं है परन्तु इनके पीछे कानून की शक्ति से बढ़कर एक अन्य शक्ति, जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में जनमत की शक्ति से अधिक और कोई शक्ति नहीं होती। चूँकि ये सिद्धान्त एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायता करते है, इसलिए जनता सरकार से यह आशा करती हैं कि वह इन्हें लागू करे। यदि कोई सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना करती है, तो वह जनता का विश्वास खो बैठगी और उसे अधिकार समय तक अपने पद पर बने रहना असम्भव हो जाएगा। प्रो. एम. वी. पायली के अनुसार, “ये निर्देशक सिद्धान्त राष्ट्रीय चेतना के आधारभूत स्तर का निमार्ण करते है और जिनके द्वारा इन सिद्धान्तों का अल्लघंन किया जाता है, वे ऐसा कार्य उत्तदायित्व की स्थिति से अलग होने की जोखिम पर ही करते है।”

6. चरम सीमाओं से सुरक्षा (An Insurance Against Extremes) हमारे संविधान निर्माता इस तथ्य से पूर्णतया परिचित थे कि प्रजातान्त्रिक राज्य में परिवर्तनशील जनमत के परिणाम स्वरूप विभिन्न समों में विभिन्न राजनीतिक दल सत्तारूढ़ हो सकते हैं। कभी दक्षिणपल्यी दल शासन सता पर अधिकार कर सकता हैं और कभी कोई वामपंथी दल। निर्देशक सिद्धान्त दोनों प्रकार की सरकारों के मार्यादिल रखेंगे तथा उन्हें किसी प्रकार का एक तरफ झुकाव रखने से रोकेगे।

7. कार्यपालिका प्रधान इनका दुरूपयोग नही कर सकते हैं (Executive Head can not exploit Provision): कुछ संविधान नेताओं ने यह भय प्रकट किया कि राष्ट्रपति या राज्यपाल इस आधर पर किसी विधेयक पर अपनी सहमति देने से इन्कार कर सकते है कि वह निर्देशक सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। लेकिन व्यवहार में ऐसी घटना की सम्भावना कम है क्योंकि संसदात्मक शासन प्रणाली में नाममात्र का कार्यपालिका प्रधान लोकप्रिय मन्त्रिपरिषद द्वारा पारित विधि को अस्वीकार करने का दुस्साहस नहीं कर सकता। डा. अम्बेडकर के शब्दों में, “विधायिका द्वारा पारित विधि को अस्वीक त करने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल निर्देशक तत्वों का प्रयोग नहीं कर सकते।

मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धान्तों में अन्तर 

(Distenction between the Fundamental Rights and Directive Principles): 

भारतीय संविधान के तीसरे अध्याय मे धारा 12 से 35 तक छः प्रकार के मौलिक अधिकारों की घोषणा की गई है, जिनका प्रयोग करके नागरिक अपने जीवन का पूर्ण विकास कर सकते है जबकि संविधान को चौथे भाग में धारा 35 से 51 में, निर्देशक सिद्धान्तों की घोषणा की गई है, जिनका उद्देश्य भारतीय नागरिकों का आर्थिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास करना तथा भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। दोनों के ही उद्देश्य समान प्रतीत होते है। लेकिन दोनों में अन्तर हैं जो कि निम्नलिखित है: 

1. मौलिक अधिकार नकारात्मक है जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक है:- निर्देशक सिद्धान्त राज्य को दिए गये निश्चित आदेश है जो कि हमें य बतलाते हैं कि राज्य ने क्या करना हैं जैसे निर्देशक सिद्धान्तों के द्वारा राज्यों को यह निर्देश दिया गया है कि राज्य में पंचायत प्रणाली का गठन किया जाए, बेकारी को दूर करने की योजनाएँ बनाई जाए, गो हत्या को रोक जाए आदि। इसके विपरीत मौलिक अधिकारों द्वारा राजय का अधिकतर नकारात्मक आदेश दिए गये हैं। दूसरे शब्दों में, राज्य शांति पर पर प्रतिबन्ध लगाए गए है। उदाहरण के तौर पर, राज्य धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। ग्लैडहिल के शब्दों में, “मौलिक अधिकार राज्य के लिए कुछ निषेध आज्ञाएँ है। इनके द्वारा राज्य को कुछ निश्चित कार्य न करने को कहा गया है, निर्देशक सिद्धान्त सरकार को दिए गए सकारात्मक निर्देश हैं जो कि बतलाते हैं कि सरकार ने क्या करना है।”

2. मौलिक अधिकार न्याय-संगत है, निर्देशक सिद्धान्त नहीं:- संविधान में यह स्पष्ट किया गया है कि मौलिक अधिकार न्याय-संगत हैं। इन्हें न्यायपालिका द्वारा सुरक्षित करवाया जा सकता है। संवैधानिक उपचारों का अधिकार नागरिकों का मौलिक अधिकार है। इसके विपरीत निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं। संविधान की धारा 37 में यह स्पष्ट कहा गया है कि निर्देशक सिद्धान्त न्यायपालिका द्वारा लागू नहीं करवाये जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, निर्देशक सिद्धान्त केवल मात्र निर्देश है, कानूनी आदेश नहीं। 

3. मौलिक अधिकारों का उद्देश्य राजनैतिक स्वतन्त्रता है तो निर्देशक सिद्धान्तों का उद्धेश्य आर्थिक स्वतन्त्रता: जहाँ कि मौलिक अधिकारों द्वारा राजनैतिक लोकतन्त्र की व्यवस्था की गई है। वहीं निर्देशक सिद्धान्तों द्वारा आर्थिक तथा सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना की गई है। सफल लोकतन्त्रीय व्यवस्था के लिए यह एक महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है कि राजनैतिक लोकतन्त्र आर्थिक और सामाजिक लोकतन्त्र पर आधारित हो। भारत में इस तत्व को अपनाने के लिए संविधान के दो भागों में क्रमशः राजनैतिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र की व्यवस्था की गई है। 

4. मौलिक अधिकार प्राप्त किए जा चुके हैं परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को प्राप्त करना अभी बाकी है:- मौलिक अधिकार लोगों को प्राप्त हो चुके हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त अभी तक लोगों को प्राप्त नहीं हुए। सरकार इन सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप देने का प्रयोग कर रही है।

5. मौलिक अधिकारों का सम्बन्ध व्यक्तियों से है, निर्देशक सिद्धान्तों का राज्य से हैं: मौलिक अधिकारों का मुख्य उद्धेश्य व्यक्ति का विकास करना तथा उसके जीवन को सुखी व समय बनाना है। वे ऐसी परिस्थितियों की स्थापना करते है। जिसमें व्यक्ति अपने में निहित गगुणों का उचित रूप से विकास कर सके। इसके विपरीत, निर्देशक सिद्धान्त समाज के विकास पर बल देते है। निर्देशक सिद्धान्तों के अध्याय में धारा 38 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करेगा जिसमें सभी को सामाजिक व आर्थिक न्याय मिल सके। 

6. मौलिक अधिकारों को (धारा 20 तथा 21 में वर्णित अधिकारों को छोड़कर):- अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत घोषित आपातकालीन स्थिति के प्रवर्तन काल में स्थगित किया जा सकता है। जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को जब तक क्रियान्वयन नहीं होता अवस्था में ही बने रहते है। 

7. मौलिक अधिकार सार्वभौम (Absolute) नहीं है, उन पर कुछ प्रतिबन्ध हैं। जबकि निर्देशक सिद्धान्तों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

नीति निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचना

(Criticism of Directive Principles) 

जिस समय संविधान का निर्माण हो रहा था उस समय संविधान सभा में और बाहर भी राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों सम्बन्धी उपबन्धों की यहुत आलोचना हुई थी। संविधान के स्वीक त होने बाद भी अनेक विद्वानों ने कई आधारों पर इन उपबन्धों की आलोचना की निर्देशक सिद्धान्तों के विरूद्ध की जाने वाली आलोचना के मुख्य आधार निम्नलिखित है:

1. वैधानिक शक्ति का अभाव (Lack of Legal Sanctions): संविधान द्वारा राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों को एक ओर तो देश के शासन में मूलभूत माना है, किन्तु साथ ही वे वैधानिक शक्ति प्राप्त अथवा न्याय योग्य नहीं हैं। न्यायालय उपयुक्त सिद्धान्त को क्रियान्वित नहीं करा सकते। अतः आलोचकों की राय में ये निर्देशक सिद्धान्त शुभ इच्छाएँ (Pious Wishes) या नैतिक उपदेश (Moral Principles) के समान है जिनका कोई संवैधानिक महत्व नहीं है।

2. अस्पष्ट तथा अनिवार्य रूप से सग्रहीत (Vague and illogically arranged): नीति निर्देशक सिद्धान्तों के विरूद्ध यह भी आलोचना की जाती हैं कि वे किसी निश्चित या संगतपूर्ण दर्शन पर आधारित नहीं है। वे अस्पष्ट है, उनमें क्रमबद्धता का अभाव है और इनमें एक ही बात को बार बार दोहराया गया है। उदाहरण के लिए, इन सिद्धान्तों में पुराने स्मारकों की रक्षा जैसे महत्वहीन प्रशन अपेक्षाक त अत्यन्त महत्वपूर्ण आर्थिक तथा सामाजिक प्रश्नों को साथ मिला दिए गए है। 

3. अव्यावहारिक (Imprncticable): भाग IV में वर्णित कुछ निर्देशक सिद्धान्त अव्यावहारिक हैं। उदाहरण के लिए, राज्य को नशाबन्दी के निर्देश दिये गये हैं। सरकार कानून द्वारा नशाबंदी लागू करने में असर्मथ है। इसका प्रमाण पिछले वर्षों का इतिहास है। भारत के जिन राज्यों में भी पहले नशाबंदी लागू थी उनकों अपनी नीति बदलनी पड़ी है। तमिलनाडु ने अब शराय के प्रयोग को फिर कानूनी रूप दे दिया है। हरियाणा में 1966 मे स्थापित बंसीलाल जी की सरकार ने राज्य में पूर्ण शराय बंदी लागू की थी, परन्तु इसके असफल होने पर अप्रैल 1998 से इसे समाप्त कर दिया गया। 

4. एक प्रभुसत्ता राज्य में अस्वाभाविक (Unnatural inaSovereign State): एक प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य में इस प्रकार के सिद्धान्तों की व्यवस्था करना अस्वाभाविक भी लगता है। एक उच्च सत्ता अधीन सत्ता को आदेश दे सकती है जैसा कि 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में ब्रिटिश संसद द्वारा गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों को दिए गए थे। परन्तु यह बड़ा अस्वाभाविक लगता है कि एक प्रभुसता सम्पन्न राष्ट्र अपने आपको कुछ आदेश दे। विधिवेत्ताओं की द ष्टि में एक प्रभुसता सम्पन्न राज्य के लिए इस प्रकार के आदेशों का कोई औचित्व नहीं है। 

5. निर्देशक सिद्धान्त कोरे आश्वासन ही (Directive Principles are mere Promises):- संविधान मे यह नहीं दिया गया कि राज्य कय तक इन सिद्धान्तों में वर्णन किए गए आदेशों को व्यवहार मे लाएगा और अगर सरकार इन सिद्धान्तों को व्यवहार में नहीं लागू करेगी तो जनता न्यायिक सरक्षण के अभाव में, क्या करेगी? यह कहना कि निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे जनता की मान्यता है, केवल सैद्धान्तिक रूप में ही ठीक है। सरकार प्रत्येक समय जनता को यह कहकर टाल सकती है कि वह प्रयत्न कर रही है। अतः ऐसी स्थिति में निर्देशक सिद्धान्त केवल कोरे आश्वासन ही रह जाते है। 

6. संवैधानिक बन्द (Constitutional Conflict): आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति जो अपने पद को ग्रहण करते हुए संविधान के सरंक्षण की शपथ लेते है, किसी बिल को इस आधार पर स्वीक ति देने से इनकार कर दे कि वह बिल निर्देशक सिद्धान्तों का उलंलघन करता है, तो क्या होगा? इस सम्बन्ध में के.सन्थानम (K.Santhanam) ने संविधान सभा में कहा था कि इन निर्देशक सिद्धान्तों के कारण राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री अथवा राज्यपाल और मुख्यमन्त्री के बीच मतभेद उत्पन्न हो सकता है। 

7. मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धान्तों में बन्द की संभावना (Possibility or conflict between Fundamental Rights and Directive Principles): मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धान्तों में द्वन्द्व की संभावना बनी रहती है। इसका मूल कारण यह है कि एक और निर्देशक सिद्धान्तों को देश के शासन में आधारभूत माना गया है तथा दूसरी और उन्हें न्यायालयों के सरंक्षण से परे रखा गया है। नौकरशाही को निर्देशक सिद्धान्तों को भी लागू करना पड़ता है और मौलिक अधिकारों की भी रक्षा उन्हें करनी होती है। 

सक्षेप में, उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि निर्देशक सिद्धान्तों का संविधान मे समावेश करना कई कारणों से अनुचित है। 

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