वितरणकारी न्याय क्या है | Distributive justice
अरस्तू की धारणा उसकी सिद्धांत नींव रखने वाली सिद्ध हुई. जिसको ‘वितरणकारी न्याय‘ कहा जाता है। अरस्तू की व्याख्या का महत्त्वपूर्ण निहितार्थ यह है कि न्याय या तो ‘वितरणात्मक होता है अथवा दोषनिवारक‘: पूर्ववर्ती अपेक्षा करता है कि समानों के बीच समान वितरण हो और परवर्ती वहाँ लागू होता है, जहाँ किसी अन्याय का प्रतिकार किया जाता है।
वह सिद्धांत जो मार्क्स ने क्रांति-पश्चात् साम्यवादी समाज में वितरणकारी न्याय हेतु प्रस्तुत किया, वो है – ‘हर एक से उसकी क्षमता के अनुसार, हर एक को उसके काम के अनुसार‘ । वितरणकारी न्याय का विचार कुछ हाल के राजनीतिक अर्थशास्त्रियों की पुस्तकों में प्रकट होता है। इस संदर्भ में, जे.डब्ल्यु. चैपमैन की पुस्तक प्रशंसनीय है, जो ‘मनुष्य की आर्थिक तर्कशक्ति‘ संबंधी अपने सिद्धांतों को नैतिक स्वतंत्रता संबंधी व्यक्तिगत दावे से जुड़ी उपभोक्ता की संप्रभुता से जोड़ने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार, न्याय का प्रथम सिद्धांत उन लाभों का वितरण होना प्रतीत होता है, जो उपभोक्ताओं के सिद्धांतों के अनुसार लाभ-वृद्धि करते हों। दूसरा सिद्धांत यह है कि ऐसी व्यवस्था अन्यायपूर्ण होती है, यदि मात्र कुछ लोगों के भौतिक कल्याण को अनेक लोगों की कीमत पर खरीद लिया जाता है। इसका अर्थ यह है कि न्याय यह अपेक्षा करता है कि कोई भी व्यक्ति दूसरे की कीमत पर लाभ प्राप्त न करे।
1 आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना
वितरणकारी न्याय आम कल्याण की शर्त के अधीन है। वह चाहता है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थिति को इस प्रकार सुधारा जाए कि लाभ आम आदमी तक पहुँच सकें। इस तरीके से आर्थिक न्याय की धारणा का अर्थ होगा समाज का एक साम्यवादी प्रतिमान ।
आर्थिक न्याय का पहला काम है, हर सक्षम-देही नागरिक को रोजगार, खाद्य, आश्रय व वस्त्रादि मुहैया कराना। सभी की प्राथमिक व मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने के इस क्षेत्र के संबंध में यह ठीक ही कहा गया है कि स्वतंत्रता अर्थहीन है, यदि वह आर्थिक न्याय दिलाने में रुकावट डालती है। तदनुसार, उदारवादीजन यह मानते हैं कि आर्थिक न्याय समाज में हासिल किया जा सकता है. यदि राज्य कल्याणकारी सेवा प्रदान करता हो और वहाँ कराधान की सुधारवादी व्यवस्था हो; सामाजिक सुरक्षा वाले रोजगार प्रबन्ध हेतु अच्छी आमदनी हो, जैसे वृद्धावस्था पेंशन, आनुतोषिक एवं भविष्य निधि।
तथापि, न्याय-संबंधी मार्क्स के विचार का मल अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ही है। मार्क्स के अनुसार, राज्य का सकारी कानून उस वर्ग-विशेष के प्राधिकार द्वारा ही अपने सदस्यों पर थोपा जाता है, जो उत्पादन के साधनों को नियंत्रित करता है। कानून शासक वर्ग के आर्थिक हित द्वारा तय किया जाता है। जब निजी सम्पत्ति को समाप्त कर दिया जाता है और कामगार वर्ग उत्पादन-साधनों पर नियंत्रण कर लेता है, तो ये कानून कामगार वर्ग के हित को सोचने-विचारने के लिए बाध्य होते हैं। इसी कारण, न्याय की विषयवस्तु उत्पादन-साधनों पर नियंत्रण रखने वाले वर्ग पर निर्भर करती है। जब राज्य का क्षय हो जाएगा, जैसा कि साम्यवादी जन इरादा रखते हैं, तो यहाँ आर्थिक मूल के बगैर न्याय व्याप्त हो जाएगा।
आधुनिक उदारवादी जन काफी लम्बे समय से आर्थिक अहस्तक्षेप संबंधी आम सिद्धांत को छोड़ चुके हैं। पुनर्वितरणकारी न्याय (जिसकी अरस्तू ने बात की) ‘संशोधन उदारवाद‘ का एक अभिन्न हिस्सा है, जिसका कि जे.डब्ल्यु. चैपमैन, जॉन राल्स, व अर्थर ओकुन ने समर्थन किया। इन लेखकों ने सभी के लिए न्याय व स्वतंत्रता के हितार्थ अर्थव्यवस्था में राज्यीय हस्तक्षेप के अपने आशय के साथ “पुनर्वितरणकारी न्याय” की वकालत की।