राजनीतिक समानता क्या है | Political Equality
राजनीतिक समानता का अर्थ है, नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों (Political Rights) की समानता। इसका अभिप्राय है, निर्णयन संस्थाओं (Decision-Making Bodies) में समानता के आधार पर प्रतिनिधित्व का अधिकार, अर्थात् ‘एक व्यक्ति, एक वोट‘ (One Man, One Vote) के नियम का पालन। इसमें यह विचार भी निहित है कि किसी व्यक्ति को जन्म, लिंग या धर्म के आधार पर राजनीतिक पद प्राप्त करने से नहीं रोका जाएगा। मतलब यह कि समाज में कोई ऐसा विशेषाधिकारयुक्त वर्ग (Privileged Class) नहीं होगा जिसे शासन का अनन्य अधिकार हो; शासक भी समाज में किसी समूह या व्यक्ति-विशेष की इच्छा या हितों को विशेष महत्त्व नहीं देंगे।
राजनीतिक समानता का सिद्धांत इस विश्वास पर टिका है कि मनुष्य स्वयं एक विवेकशील प्राणी है और वह राजनीतिक सूझ-बूझ रखता है, चाहे भिन्न-भिन्न मनुष्यों के बाहु-बल, बुद्धि-बल, शिक्षा या संपदा में कितना ही अंतर क्यों न हो! इसके साथ यह मान्यता भी जुड़ी है कि जब सब मनुष्यों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे तब वे सर्व-हित. (Common Good) को सर्वोत्तम अभिव्यक्ति प्रदान कर सकेंगे, और नीतिनिर्माताओं को सर्व-हित के अनुरूप सार्वजनिक नीति बनाने के लिए प्रेरित तथा विवश कर सकेंगे।
राजनीतिक समानता की मांग क़ानूनी समानता की मांग के साथ ही शुरू हुई। शुरू-शुरू में इन दोनों में कोई फ़र्क नहीं था। जैसा कि डी.डी. रफ़ील ने ‘प्रॉब्लम्स ऑफ़ पोलिटिकल फ़िलॉसफ़ी‘ (राजनीति-दर्शन की समस्याएं) (1976) के अंतर्गत लिखा है: “फ्रांसीसी क्रांतिकारी समानता की मांग करते समय उस तर्कशून्य विशेषाधिकार की समाप्ति की मांग कर रहे थे जिसके अंतर्गत राजनीतिक अधिकार धनवान और कुलीन वर्ग तक सीमित थे।” उदारवादी सिद्धांत की विकसित अवस्था में राजनीतिक समानता को जनसाधारण के लोकतंत्रीय अधिकारों के रूप में पहचाना जाने लगा, जैसे कि सार्वजनीन मताधिकार (Universal Franchise), बिना भय या पक्षपात के कोई भी राजनीतिक मत रखने और उसे व्यक्त करने की समान स्वतंत्रता और राजनीतिक निर्णयों को प्रभावित करने के लिए संघ बनाने का समान अधिकार।
राजनीतिक समानता का आरंभ एक प्रगतिशील विचार के रूप में हुआ। इसका परिणाम पश्चिमी जगत् में लोकतंत्र (Democracy) की स्थापना के रूप में सामने आया। परंतु आगे चलकर यह अनुभव किया गया कि यह विचार सर्वसाधारण की आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं था क्योंकि जैसे-जैसे पूंजीवाद (Capitalism) का विकास हुआ, वैसे-वैसे समाज में सामाजिक-आर्थिक विषमताएं बढ़ती गईं। इन्हें दूर करने के लिए ही सामाजिकआर्थिक समानता की मांग प्रस्तुत की गई।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक अलेक्सी द ताकवील (1805-59) ने ‘डेमोक्रेसी इन अमेरिका‘ (अमरीका में लोकतंत्र) (1835) के अंतर्गत लिखा कि राजनीतिक समानता और आर्थिक विषमता में जो विसंगति पाई जाती है, उसे लोकतंत्रीय समाज अनिश्चित काल तक स्वीकार नहीं करेंगे। अतः उसने यह मत प्रकट किया कि लोकतंत्रीय विश्वक्रांति का पहला दौर राजनीतिक परिवर्तन का दौर था, परंतु वह अनिवार्यतः उसके दूसरे दौर को जन्म देगा जो मुख्यतः सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का दौर होगा। उसने यह भविष्यवाणी की कि राजनीतिक संघर्ष के दौर के बाद जल्दी ही धनवान् और निर्धन वर्गों के बीच संघर्ष का दौर आएगा। उसने लिखा कि कामगार वर्ग राजनीतिक प्रश्नों से हटकर सामाजिक प्रश्नों की ओर ध्यान देने लगा है, और ये लोग ऐसे मत और विचार बना रहे हैं जो समाज से आर्थिक विषमता को मिटाकर छोड़ेंगे। इस तरह ताकवील ने अपने चिंतन में समाजवादी सिद्धांत के विकास का पूर्वसंकेत दे दिया जिसका मुख्य सरोकार सामाजिक-आर्थिक समानता की समस्या से था।