कानूनी ऑर नैतिक अधिकार | Legal and Moral Right’s
कानूनी अधिकार (Legal Rights)
क़ानून सामान्य जीवन या नैतिक विमर्श से अलग होते हैं। किसी भी क़ानूनी कथन (legal statement) की सच्चाई कुछ निश्चित प्राधिकारियों (authorities) के कार्यों पर निर्भर करती है। क़ानूनी प्राधिकारियों द्वारा तय किए जाने के कारण ही कोई भी काम क़ानूनी या गैर-क़ानूनी होता है। इसलिए हर क़ानूनी कथन इन क़ानूनी प्राधिकारियों के कार्यों से ही तय होता है। इसका कारण यह है कि पायालयों ने क़ानूनी शब्दावलियों को एक निश्चित तरीके से परिभाषित किया है। इस संदर्भ में यह बात अप्रासंगिक है कि इनका नैतिक अर्थ क्या है।
क़ानूनी प्राधिकारियों ने ‘अधिकार’ शब्द की चार अलग-अलग विशेषताएँ बताईं हैं: एक क़ानूनी कर्त्तव्य से इसका जुड़ाव (दावा), कर्त्तव्य का अभाव (विशेषाधिकार या स्वतंत्रता), क़ानूनी संबंध बदलने की क्षमता (शक्ति). किसी के द्वारा अपनी कानूनी स्थिति में बदलाव के ख़िलाफ़ सुरक्षा (प्रतिरक्षा या उन्मुक्ति) (immunity)।
नैतिक अधिकार (Moral Rights)
आम भाषा में हम अधिकार शब्द का उपयोग कम-से-कम दो अर्थों में करते हैं: हम कहते हैं कि किसी व्यक्ति को कोई (वस्त हासिल करने का) अधिकार है, और हम यह भी कहते हैं कि किसी व्यक्ति के पास कोई निश्चित काम करने का अधिकार है। पहले अर्थ में, अधिकार का अस्तित्व अधिकार-धारक के अलावा किसी दूसरे व्यक्ति से संबंधित है।
इसका कारण यह है कि यदि हम यह कहते हैं कि हमारे पास कोई अधिकार है. तो इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह मुझसे एक ख़ास तरीके से व्यवहार करे दुसरे अर्थ में कार-धारक का व्यवहार सवालों के घेरे में है। अधिकार-धारक को एक खास तरीके से काम करने का अधिकार वह नीतक रूप से ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है और उसके द्वारा ऐसा किया जाना ग़लत नहीं है। ड्वोकिन ने इसी अर्थ में अधिकारों को क्रमशः ‘मज़बूत’ और ‘कमज़ोर’ की संज्ञा दी है।
आधकार के पहले अर्थ को हम दावा-अधिकार (claim right) भी कह सकते हैं। इसका मानक का ह कि दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य है कि पहले व्यक्ति का जिस वस्त पर अधिकार है, वह उस ‘वस्तु’ के संदर्भ में एक ख़ास तरीके से काम करे। लेकिन क्या किसी वस्तु का अधिकार होने का अर्थ यह है कि दूसरे व्यक्ति का उस वस्तु के संदर्भ में कोई कर्त्तव्य हो या यह मानकीय लाभ (normative advantage) के पैकेज के रूप में है? दरअसल दोनों ही तरह से, अधिकार का मुख्य विचार यह लगता है कि एक कर्त्तव्य के द्वारा जिस वस्तु या हित की सुरक्षा किए जाने की ज़रूरत है, उसमें कछ शभ (good) होता है।
यदि यह कहा जाता है कि किसी व्यक्ति को ऐसी वस्तु का अधिकार है, तो इसका अर्थ यह है कि उस वस्तु में उस व्यक्ति के हित की सुरक्षा किए जाने की ज़रूरत है।सभी वस्तुओं या हितों से अधिकार उत्पन्न नहीं होते हैं। जब किसी वस्तु या हित की सुरक्षा का कोई विशिष्ट नैतिक कारण हो, तभी यह कहा जा सकता है कि उससे अधिकार जुड़ा हुआ है। यह विचार ड्वोकिन के इस प्रसिद्ध दावे में अभिव्यक्त हुआ है कि व्यक्तिगत अधिकार व्यक्तियों के पास राजनीतिक इक्के (political trumps) के रूप में होते हैं।
ड्वोर्किन के अनुसार, मान लीजिए कि किसी सामूहिक लक्ष्य के आधार पर व्यक्तियों की व्यक्ति के रूप में इच्छा को नकारा जाता है; या सामूहिक लक्ष्य के नाम पर उन्हें उनकी इच्छानुसार काम करने या मनपसंदे वस्तएँ रखने से रोका जाता है और व्यक्ति यह मानते हैं कि यह सामूहिक लक्ष्य उन्हें नुक़सान की स्थिति में रखने या उन्हें चोट पहुँचाने का कोई पर्याप्त कारण नहीं है, तो ऐसी स्थिति में व्यक्तियों के पास अधिकार होते हैं।
रैज भी इसी तरह का विचार व्यक्त करते हैं। उनके अनुसार, यदि किसी व्यक्ति की भलाई के लिए किसी दसरे व्यक्ति या व्यक्तियों पर कुछ कर्त्तव्य थोपना सही लगे, तो वहाँ अधिकार का अस्तित्व होता है। राजनीति मिटांत में इस बात पर मतभेद रहेगा कि मनुष्यों के लिए कौन से निश्चित हित या वस्तुएँ अधिक महत्वपूर्ण हैं।
इस कारण विभिन्न राजनीति सिद्धांत अलग-अलग अधिकारों को ज्यादा महत्व देंगे। लेकिन हर राजनीति सिद्धांत में यह केंदीय विचार कायम रहता है कि व्यापक नैतिक चिंताओं के ख़िलाफ़ व्यक्तियों के महत्वपूर्ण हितों की सुरक्षा की न होती है। इसलिए हार्टने का यह मानना है कि समाज को अधिकार देने से व्यक्तिगत अधिकार खत्म हो जाएंगे क्योंकि दोनों में होड़ होने पर समाज के अधिकारों को ही वरीयता दी जाएगी। लेकिन वे इस महत्वपर्ण की उपेक्षा करते हैं कि व्यक्ति अणु के रूप में नहीं होते, बल्कि वे सांस्कृतिक रूप से समाहित होते हैं और किसी व्यक्ति के ‘शुभ’ या कल्याण का विचार उसकी संस्कृति से जुड़ा होता है।