अन्तराष्ट्रीय संबंधो में नरिवाद | नरिवाद के विभिन्न सिद्धांत
परिचय
नारीवादी सिद्धांत का प्रवेश 1980 से 1990 के दशक में होता है। इसे तीसरी बहस के रूप में देखा जाता है। इनका मानना है कि नारीवादी दृष्टिकोण को समझने के लिए लिंग विश्लेषण को समझना अनिवार्य है। यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लिंग अधीनता की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। विश्व में केवल 10% ही महिलाएं राज्य की प्रमुख हैं।
इनका मानना है कि महिलाओं को हमेशा हाशिए पर रखा जाता है इसीलिए इन्हें वैश्विक अर्थव्यवस्था में भाग लेने की अति आवश्यकता है। नारीवादी मानते हैं कि अगर हम लिंग के नजरिए से सिद्धांतों का अध्ययन करें तो हमें एक अलग छवि की प्राप्ति होगी। नारीवादी का मानना है कि यह अंतर समाजिक है।
पुरुष:-
स्त्री
यह उपरोक्त विशेषताएं समय व स्थान के मुताबिक बदल तो सकती हैं लेकिन खत्म नहीं हो सकती। राज्यों की विदेश नीतियों को भी हमें “Hegemonic” पुरुषत्व के रूप में परिभाषित किया जाता है।
Gender In IR
1980 के दशक में नारीवादी के तीसरी बहस ने कई प्रश्नों पर सवाल उठाया जिसमें पूर्व उपनिवेश, आधुनिकतावाद रचनावाद, प्रत्यक्षवादी, जैसे प्रश्नों के अंदर अमेरिका जैसे देशों पर निशाना लगाया गया।
उत्तर-प्रत्यक्षवादी मानते हैं कि ज्ञान का निर्माण अधिकतर पुरुषों द्वारा पुरुषों के बारे में ही बनाया गया है। अंतरराष्ट्रीय संबंध नारीवादी विशेष रूप से लिंग पदानुक्रम द्वारा गठित अंतरराष्ट्रीय प्रणाली को देखते हैं। इनकी जांच के लिए नारीवादी शून्य से अपनी जांच आरंभ करते हैं।
ये मुख्यतः दो पीढ़ियों में विभाजित हैं :-
- पहली पीढ़ी सिद्धांत के निर्माण पर कार्य करती थी। यह सिद्धांतों के लाने और समेटने से संबंधित है।
- दूसरी पीढ़ी लिंग के आधार पर भेद करती थी। यह आत्मनिर्भर होकर स्वयं को अनुसंधान खोज कार्यक्रमों से जोड़ते हैं।
नारीवादी दृष्टिकोण को एक विस्तृत विविधता है। जो अपने आपको आगे चलकर एक नया अमूर्त प्रदान कर देते हैं।
उदारवादी नारीवाद
यह महिलाओं के भीतर की स्थिति पर जांच करने के साथ उनके कारणों पर भी जांच करता है। इन्होंने महिलाओं की अधीनता को औपचारिकता प्रदान की है।
उदाहरण के लिए-
- शरणार्थी महिलाओं की समस्याओं पर बल
- आय की असमानता पर बल,
- अमानवीय व्यवहार का उल्लंघन इत्यादि
यह वैश्विक समस्याओं और राजनीति में महिलाओं की तलाश करते हैं तथा अंतरराष्ट्रीय नीति निर्माण पर इसके प्रभाव को दिखाते हैं। वह बिना महिला के एक काल्पनिक दुनिया को सोचते हैं। यह समस्या के समाधान के लिए कानूनी और अन्य बाधाओं को हटाने की बात करते हैं।
मैरी क्रेपीओली और मार्क बियर 2001 में एक “लोकतांत्रिक शांति परिकल्पना” के लिए एक अनुसंधान करती हैं। अर्थात इसमें वह घरेलू लिंग समानता और राज्यों द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंसा के संबंध को प्रदर्शित करती हैं और पता लगाती हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राज्यों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हिंसा की गंभीरता में कमी आती है क्योंकि इससे लैंगिक असमानता बढ़ती है।
मैरी क्रेपीओली और मार्क बियर के आंकड़े संसद जैसे क्षेत्रों को देखकर महिलाओं की स्थिति को मापतें हैं। लेकिन उत्तर प्रत्यक्षवादी नारीवादी इसे अपर्याप्त मानते हैं।
अतः प्रत्यक्षवादियों और अन्य लेखक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हम लंबे समय से समाज में अधिकारों की मांग कर रहे हैं। इसीलिए हमें लिंग असमानता की गहराई से अध्ययन करके जांच करनी चाहिए। जिससे वैश्विक राजनीति में लैंगिक पहचान और लैंगिक शक्ति के आधार पर महिलाओं को सफल बनाया जा सकेगा।
आलोचनात्मक नारीवादी
यह नारीवादी सिद्धांत उदारवाद से परे वैश्विक राजनीति में लिंग की पहचान और लिंग शक्ति के वैचारिक और भौतिक अभिव्यक्ति को बतलाता है। यह तीन प्रकार की ऐतिहासिक संरचनाओं के संदर्भ में दुनिया को चित्रित करता है।
- सामग्री की स्थिति
- विचार
- संस्थान
यह सभी तीन अलग-अलग स्तरों पर बातचीत करते हैं:-
इनका मानना है कि विचार कुछ संस्थानों को वैध बनाने में महत्वपूर्ण होते हैं। यह मानव का ही उत्पाद है। इसीलिए इसमें परिवर्तन की संभावना है। इस प्रकार हम देखते हैं यह सिद्धांत दुनिया को समझने के लिए प्रतिबद्ध है।
Sandra Whitworth अपनी पुस्तक “Feminism and IR” में उनका मानना है कि महिला और पुरुष की स्थिति उनके परिस्थितियों पर ही निर्भर है। लिंग का गठन भी महिला पुरुष संबंधों से ही शुरु होता है। यह उनके शोध IPPE तथा ILO के आंकड़ों में भी बताया गया है।
christine chin in service and servitude (1998)
इन्होंने घरेलू काम के अध्ययन के लिए नारीवादी दृष्टिकोण ko अपनाया उनके तीन मुख्य कार्य रहे हैं:-
- मलेशिया में अंडरपेड़ के बढ़ते प्रचलन
- विदेशी महिलाओं के शोषण की जांच
- और वह फिलीपींस और इंडोनेशिया में महिला घरेलू श्रम की आयात की भी आलोचना करती हैं।
उनका मानना है कि मलेशिया राज्य भी तटस्थ नहीं है लेकिन यहां कुछ नागरिकों द्वारा वर्ग, जाति, लिंग, आधारित समर्थन को अभिव्यक्ति मिली है।
फेमिनिस्ट कंजरवेटिज्म
इसके द्वारा नारीवाद पर पुनर्विचार करने के लिए आहवान किया गया। जिसमें सामाजिक व्यवस्था पर आंशिक जोर दिया गया। भौतिक तत्वों के बजाय सांकेतिकता पर यह जोर देते हैं। इनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय जीवन सामाजिक है और अभिकर्ता और संरचनाएं संगठित हैं। वे राज्यों को एकात्मक अभिनेता के रूप में चुनौती देते हैं।
राज्यों को उन सामाजिक प्रक्रियाओं के गतिशील परिणामों के रूप में देखते हैं जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के गठन और उनके अभिनेताओं के व्यवहार को आकार देती है।
ग्लोबल कंस्ट्रक्शन ऑफ जेंडर 1991
इनका केंद्र घर पर आधारित कार्य का विश्लेषण करना है क्योंकि इनका मानना है कि अधिकांश घर आधारित श्रमिक महिला है। हर घर के कार्य को निम्न और सार्वजनिक कार्य को ऊपर समझा जाता है जिस कारण इसका अध्ययन और भी आवश्यक हो जाता है। घर आधारित कार्य को कार्य का भी दर्जा नहीं दिया जाता है। घर के कार्य को निजी तथा प्रजनन क्षेत्र समझा जाता है।
प्रगल में इनको और प्रासंगिक बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का सहारा लिया है। 1996 का ILO द्वारा स्थापित कार्यक्रम इसमें मील का पत्थर साबित हुआ। जो लिंग को एक संस्था के रूप में देखती है और इसे हर स्तर पर शक्ति को घर से लेकर राज्य तक अंतरराष्ट्रीय संबंध में स्थापित करती है।
फेमिनिस्ट पोस्टस्ट्रक्चरलिज्म
यह नारीवादी सिद्धांत को भाषा में संहिताबद्ध करतें हैं। यह कहते हैं कि भाषा की समझ के कारण हमें मध्यस्थता में रखा जाता है। यह विशेष रूप से ज्ञान और शक्ति के बीच संबंध को भी चिंता का विषय बनाते हैं। जो लोग अर्थ का निर्माण करते हैं वही लोग ज्ञान का सृजन करते हैं। शक्ति प्राप्त करते हैं। नारीवादियों का मानना है कि पुरुषों को जानकारों के रूप में देखा जाता है जिन्हें वेद ज्ञान के रूप में गिना जाता है।
सार्वजनिक जीवन में पुरुषों के बारे में ही ज्ञान आधारित रहा है और महिलाओं को हमेशा से हाशिए पर रखा गया है। यह बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के निर्माण में सभ्य / असभ्य / आदेश / अराजकता / विकसित / अविकसित से दुनिया को विभाजित करते हैं। यह ग्रंथों की सहायता से लिंग के आधार पर की गई असमानता को दर्शाते हैं तथा इनके संदर्भ की चर्चा करते हैं।
पोस्ट कॉलोनियलिज्म फेमिनिज्म
उत्तर औपनिवेशिक लेखक पोस्ट स्ट्रक्चरलिस्ट हैं उनकी चिंता साम्राज्यवाद के तहत स्थापित वर्चस्व की अधीनता है। यह महिलाओं की स्थिति को पश्चिमी उपनिवेश के साथ जोड़कर देखते थे। जिस प्रकार से पश्चिमी महिलाओं ने गैर पश्चिमी महिलाओं के ज्ञान को दर्शाया है ठीक उसी प्रकार गैर पश्चिमी या नारीवादी महिलाओं ने इनके ज्ञान की आलोचना की है।
पश्चिमी नारीवादी का मानना है कि सभी महिलाओं को मुक्ति के संबंध में समान आवश्यकता होती है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो या अलग अलग होती है। महिलाओं की गरीबी, अशिक्षित, पीड़ित, जैसे एजेंसी वाले कार्य को चुनौती प्रदान करते हैं
निष्कर्ष
हम मानते हैं कि अंतिम 20 वर्षों में नारीवादियो ने वैश्विक मुद्दों में अपनी समझ को एक सैद्धांतिक रूप देने में कामयाबी हासिल की है। पहली पीढ़ी के नारीवादियों ने सैद्धांतिक सुधारों की पेशकश की तथा इस सिद्धांत को लागू करने का भी प्रयास किया। इन्होंने लिंग राजनीति और साहित्य की आलोचना को अपना मुख्य केंद्र बिंदु बनाया। यह सुझाव देते हैं कि विद्वानों से लिंग के प्रश्न करने चाहिए और इसके प्रति जागरूकता लानी चाहिए। लिंग राजनीति को वैश्विक करने की वकालत करते हैं।