आलोचनात्मक सिद्धांत [अन्तराष्ट्रीय संबंध] | रॉबर्ट कॉक्स व एनड्रीव लिंकलेटर

आलोचनात्मक सिद्धांत

ग्राम्सीवाद तथा आलोचनात्मक सिद्धांत दोनों की जड़े 1920 तथा 1930 के दशक के पश्चिमी यूरोप में है। यह वह समय व स्थान था जिसने क्रांतिकारियों के प्रयासों के बावजूद मार्क्सवाद असफलता का सामना कर रहा था। हम यह तर्क देते हैं कि दोनों विचारशील स्कूलों के बीच विभाजन रेखा खींचना उचित नहीं होगा।

आलोचनात्मक सिद्धांत फ्रैंकफर्ट स्कूल की छत्रछाया में विकसित हुआ। फ्रैंकफर्ट स्कूल में असामान्य रूप से प्रतिभाशाली विचारको का समूह था। जिसने 1920 से 1930 के दशक में एक दूसरे के साथ काम करना शुरू किया।

फ्रैंकफर्ट स्कूल की पहली पीढ़ी में नाम दर्ज कराने वाले मुख्यता मैक्स हर्खामर, थ्योडोरो, एडार्नो तथा हरबर्ट मार्कह्यूज थे। इन विचारकों का अनुगमन करने वाले विचारों की एक पीढ़ी भी विकसित हुई जिन्होंने उनके विचारों को महत्वपूर्ण तथा नवीन तरीके से विकसित किया इनमें सबसे उत्तम युर्गेन हैबरमास को माना जाता है।

दूसरे शब्दों में यदि परंपरागत मार्क्सवादी रूप में कहें तो आलोचनात्मक सिद्धांत मुख्यता संपूर्ण रूप से सर्वोच्च संरचना को महत्व देता है। इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि आलोचनात्मक सिद्धांत का समकालीन समाज में मुक्ति दायक बदलाव के लिए सर्वहारा वर्ग की क्षमतापूर्ण अभिव्यक्ति पर संदेह करता है।

हरबर्ट मार्क्यूज के शब्दों में यह एक आयामी समाज रह गया है जिसके लिए बहुसंख्यक सामान्यता कोई विकल्प नहीं सोच सकते। यह शब्द उसने अपनी प्रसिद्ध कृति “एक आयामी मानव” उन्नत औद्योगिक समाज की विचारधारा का विश्लेषण के अंतर्गत तर्क दिया कि पूंजीवाद ने जन संचार के साधनों को बड़ी चतुरता से इस्तेमाल करते हुए पीड़ित वर्ग के असंतोष को संवेदन शून्य बना दिया है।

आलोचनात्मक सिद्धांतकारो ने मुक्ति के अर्थ की खोज में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जैसा कि हमने देखा है कि मुक्ति मार्क्सवादी विचारकों की मुख्य चिंता रही है लेकिन दिए गए अर्थ से यह विचार बहुत ही अस्पष्ट तथा गंभीर रूप से दो अर्थ लिए हुए हैं।

आलोचनात्मक सिद्धांतकारों की पहली पीढ़ी के लिए मुक्ति एक प्रकृति के साथ समाधान स्थापित करने के संबंध को धारण करती है। मार्क्स आवश्यकता के युग से स्वतंत्रता के युग तक एक प्रस्थान करने को कहता था जिसका अर्थ था कि उस काल से प्रस्थान करना जहां प्राकृतिक प्रक्रिया के कारण पुरुष तथा स्त्रियां दास के भांति प्रभुत्व के अंतर्गत थे। उस काल तक प्रस्थान करना जिसमें उन्होंने (दासो ने) प्रभुत्व जमाया।

 हैबरमास का तर्क है कि बेहतर समाज के लिए वादा करना सिर्फ संचार प्रवाह में संभव है। लिंकलेटर समकालीन अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतकारों के लेखन से अलग हैं तथा आलोचनात्मक सिद्धांतकारों के लेखन के बहुत ज्यादा अलग बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है।

इसने हैबरमास के कार्यों के संबंध में कई अवधारणाएं तथा मुख्य सिद्धांतों को विकसित किया तथा यह तर्क दिया है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जगत में मुक्ति को एक राजनीतिक समुदाय की नैतिक सीमा रेखाओं के विस्तार के संबंध में समझा जाना चाहिए।

आलोचनात्मक अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत कांट से मार्क्स और मार्क्स से हैबरमास तक विशेषता मुक्तिदायक राजनीति की वंश परंपरा को निर्माणाधीन करता हुआ चलता है तथा सार्वभौमिक स्वतंत्रता तथा समानता को प्राप्त करने के लिए आवश्यक बाधाओं को हटाने के संबंध में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बदलाव की संभावनाओं की जांच करने की खोज में लगा है।

रिचर्ड डेबेटॉक :- के अनुसार आलोचनात्मक सिद्धांत की उत्पत्ति ज्ञानोदय के कारण हुई जोकि कांट, हीगल, एवं मार्क्स की रचनाओं से जुड़ा था।

रॉबर्ट कॉक्स का समस्या निवारण सिद्धांत पर विचार

रोबट कॉक्स के अनुसार सिद्धांत किसी एक के लिए तथा किसी उद्देश्य के लिए होता है। रोबोट कॉक्स ने 1961 में अपने लेख “Social forces, states and world orders: Beyond International Relations Theory” में हरखाइमर का अनुगमन किया जिसने परंपरागत सिद्धांत तथा आलोचनात्मक सिद्धांत में अंतर किया है। रोबट कॉक्स ने उसे समस्या निवारण सिद्धांत कहा है। समस्या निवारण या परंपरागत सिद्धांतों में दो विशेषताएं देखी जाती है।

  • प्रत्यक्षवादी शैली (पॉजिटिविस्ट मेट्रोलॉजी)
  • प्रबल सामाजिक तथा राजनीतिक संरचनाओ/ढांचों को वैध बनाने की प्रवृत्ति

प्राकृतिक विज्ञान की शैलियों से प्रभावित होकर समस्या विचारक समझता है कि प्रत्यक्षवाद ही ज्ञान के आधार को वैधता प्रदान करता है। स्मिथ के कथन में भी प्रत्यक्षवाद झलकता है जैसे कि स्वर्ण स्तर अन्य सिद्धांतों के मूल्यांकन के विरुद्ध है। प्रत्यक्षवाद के द्वारा पहचानी जा सकती है लेकिन हमारे विचार विमर्श में मुख्यता दो विशेषताएं प्रासंगिक है-

  • प्रत्यक्षवाद मानते हैं कि तथ्यों तथा मूल्यों को अलग किया जा सकता है।
  • विषय तथा वस्तु को अलग करना संभव है।

इसका परिणाम ना केवल यह निकलता है कि वस्तु के लिए स्वता ही मानव चेतना के संघ अस्तित्व में आता है बल्कि सामाजिक वास्तविकता का वस्तुनिष्ठ ज्ञान इसी प्रकार तभी तक संभव है जब तक कि विश्लेषण द्वारा भूलो को छोड़ दिया जाए। यह दार्शनिक दृष्टिकोण है कि एक स्थाई सैद्धांतिक ढांचे के लिए हम वस्तु परखतापूर्ण समाजिक वास्तविकता के बारे में दावा करने वाले ज्ञान को वंचित करना चाहिए।

कॉक्स समस्या निवारण सिद्धांत की परिभाषा इस प्रकार करते हैं कि विश्व को प्रचलित समाजिक तथा शक्ति संबंधों के साथ तथा जिन समस्याओं के अंदर से कार्यात्मक रूपरेखा के साथ होते हैं उसी रूप में लिया जाए। यह वर्तमान समस्या पर प्रश्न नहीं उठाती लेकिन इसे मूर्त रूप देने में व वैधता प्रदान करने में प्रभाव डालती है।

कॉक्स का कहना है कि इसका सामान्य उद्देश्य होता है मौजूदा व्यवस्था के निर्माण के लिए समस्या के विशेष स्रोतों के साथ पूर्णता जूझते हुए कार्य करना। नव यथार्थवाद समस्या निवारक सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय ताकतों के प्रचलन के साथ कार्य करने के लिए यथार्थवादी शक्ति को गंभीरता से लेता है। अवस्था के अंदर कार्य करते हुए नियंत्रण का प्रभाव रखता है वो भी सामाजिक तथा राजनीतिक संबंधों के वैश्विक ढांचे को संरक्षित करते हुए।

कॉक्स कहते हैं कि नव उदार अंतर्राष्ट्रीयवाद भी समस्या निवारक सिद्धांत का हिस्सा है। इसके उद्देश्य जैसा कि कई व्याख्या में बताया गया है कि विकेंद्रित अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था को सुगम बनाना है। स्वयं को राज्य व्यवस्था तथा उदार पूंजीवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच रखते हुए नव उदारवादी यह निश्चित करने के लिए चर्चित हैं कि दोनों व्यवस्थाएं सह–अस्तित्व के साथ कार्य करें।

नव उदारवाद यह व्यक्त करने में लगा है कि दोनों व्यवस्थाओं के बीच में संघर्ष, तनाव, या संकट उत्पन्न हो सकता है। लेकिन फिर भी दोनों एक दूसरे के अनुरूप तथा स्थित हैं।

कॉक्स का कहना है कि समस्या निवारक सिद्धांत वह है जो सिद्धांतों में प्राथमिक रूपरेखा को प्रभावित करने में असफल है इसका अर्थ यह हुआ कि यह प्रचलित विचारधारा युक्त प्राथमिकताओं के पक्ष में ही क्रियान्वित होने लगा है। यह दावा भी करता है कि मूल्य उदासीन होते हुए भी समस्या निवारक सिद्धांत के द्वारा मूल युक्त है जो अपने स्वयं की रूपरेखा के रूप में निसंदेह प्रचलित होती हुई व्यवस्था को स्वीकार करता है। परिणाम स्वरुप यह पूर्व घटित शक्ति तथा हितों को भुला देता है तथा ज्ञान के दावों को आकृति प्रदान करता है।

आलोचनात्मक अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत उस धारणा के साथ शुरू होता है की बौद्धिक प्रक्रिया स्वयं राजनीतिक हितों का विषय है तथा इनका आलोचनात्मक मूल्यांकन होना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत के जैसा कोई भी ज्ञान सामाजिक सांस्कृतिक तथा विचारधारात्मक प्रभाव की परिस्थिति लिए हुए होता है तथा आलोचनात्मक सिद्धांत इन परिस्थितियों के प्रभाव को दर्शाता है।

जैसा कि रिचर्ड डेबेटॉक  कहते हैं कि ज्ञान का निर्माण हमेशा हितों के प्रभाव से होता है इसीलिए आलोचनात्मक सिद्धांत को इन छिपे हुए हितों, समझोतो या मूल्यों को जो किसी भी सिद्धांत को आगे बढ़ाते हैं या उस सिद्धांत के लिए उन्मुख है उसके लिए जागरूकता लानी चाहिए।

रिचर्ड डेबेटॉक के अनुसार आलोचनात्मक सिद्धांत प्रचलित व्यवस्था की व्याख्या करने के लिए सावधानियों की आवश्यकता पर बल देता है। यह व्यवस्था को वैसी ही लेने से मना करता है जैसी वह दिखती है यह मानता है कि स्वयं खुद परिस्थितियों के इतिहास का निर्माण नहीं होता जैसा की मार्क्स ने अपनी पुस्तक “18th Brumaire of Louis Bonaparte” में कहा की परिस्थितियों को पूर्ण रूप से लेकर वर्णनात्मक रूप से परीक्षण करना चाहिए। अतः जो व्यवस्था हमारे लिए दी है स्वभाविक नहीं है ना ही इसकी जरूरत है ना ही इतिहास की देन है।

रिचर्ड डेबेटॉक के अनुसार आलोचनात्मक सिद्धांत परंपरागत सिद्धांतिकरण के अंधानुकरण की आलोचना करता है। यह आलोचना परीक्षणआत्मक अवधारणा को दर्शाती है जो चिंतन के परंपरागत रूप का मार्गदर्शन करती है तथा यह प्रचलित राजनीतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में चिंतन के परंपरागत स्वरूप की जटिलता का खुलासा करता है।

रिचर्ड डेबेटॉक का कहना है कि:–  साथ ही ये यह प्रश्न उठता है कि प्रचलित विश्व व्यवस्था के बारे में नैतिक रूप से फैसला कैसे लिया जा सकता है क्योंकि कोई  वस्तुनिष्ठ सिद्धांत ढांचा नहीं है। इतिहास के बाहर कोई निर्माणाधीन शुरुआती बिंदु नहीं है जिससे कि कोई नैतिक निर्णय लिया जा सके। यह नैतिक आदेशों के निर्माण तथा उनके प्रयोग का मुद्दा नहीं है जिससे  राजनीतिक संगठन के रूपों के बारे में निर्णय लिया जा सके।

कांट तथा लिंकलेटर की “मुक्ति” संबंधी विचार

लिंकलेटर कहते हैं कि आलोचनात्मक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत के दो विचारक एक जैसे हैं वे है कांट तथा कार्ल मार्क्स। कांट का उपागम आदर्शआत्मक है क्योंकि यह शक्ति व्यवस्था  तथा मुक्ति की अवधारणा का समावेशित रूप से खोज करता है।

लिंकलेटर कहते हैं कि कांट इस संभावना को मानते हैं कि राज्य शक्ति को अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के सिद्धांतों द्वारा  सौम्य बनाया जाएगा तथा समय के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था जब तक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हो जाती तब तक उसमें बदलाव किया जाता रहेगा।

कांट का अंतरराष्ट्रीय संबंधों का सिद्धांत सार्वभौमिक स्वतंत्रता तथा न्याय के हित के अंतर्गत यथार्थवादी तथा तर्कवादी चिंतन की कमजोरियों की आलोचना करते हुए तथा उनके अंतभूत झांकते हुए आलोचनात्मक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत के लिए पहले से की गया प्रयास था। जबकि लिंकलेटर यह मानते हैं कि मार्क्स का उपागम वर्ग आधारभूत पर केंद्रित होते हुए भी काफी संकीर्ण है।

वह सोचते हैं कि यह सामाजिक सिद्धांत एक आधार प्रदान करेगा जिस पर आलोचनात्मक अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत जरूर निर्मित होगा।

लिंकलेटर ने अपने कार्य में पहले ही अन्वेषण किया है की मार्क्स एवं कांट दोनों ही स्वतंत्र व्यक्तियों के एक सार्वभौमिक समाज के लिए तथा साध्यो के एक सार्वभौमिक प्रभुत्व के लिए साझी इच्छा रखते हैं। दोनों ही ज्ञानोदय की स्वतंत्रता तथा सार्वभौमिकता की अवधारणाओं से गहरा लगाव रखते हैं तथा दोनों ने ही नैतिक तथा राजनीतिक समुदाय को विस्तार के इरादे के साथ जीवन के विशेष रूपों की ठोस रूप से आलोचना की है।

लिंकलेटर का राजनीतिक समुदाय एवं बहिष्करण का विचार

आलोचनात्मक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत पर विचार करने की शुरुआत हम यहां मार्क्स द्वारा की गई उनकी बात की आलोचना से करते हैं। मार्क्स की भांति आलोचनात्मक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत का प्रभुत्व तथा समानता के स्रोतों का आलोचनात्मक विश्लेषण करने तथा खुलासा करने में कार्यरत हैं जो इन स्रोतों को समाप्त करने के इरादे के साथ वैश्विक शक्ति संबंध का निर्माण करेगी। 

1990 के दशक के मध्य में स्वतंत्रता, समानता तथा  स्वा निर्धारण के लिए मानवीय क्षमता के ऊपर से वैश्विक बाध्यताओं की पहचान करने के लिए तथा समाज विकसित करने की आवश्यकता के कारण आलोचनात्मक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत विकसित हुआ।

बदलती विश्व व्यवस्था, सामाजिक ताकतों तथा राज्यों पर आलोचनात्मक सिद्धांत का प्रहार

रिचर्ड डेबेटॉक बहस को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि अराजकता की परिस्थिति तथा राज्य की संबंधित गतिविधियों को स्वाभाविक तथा अनिवार्य बनाने वाले यथार्थवादी दावों को अस्वीकार करते हुए आलोचनात्मक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत रचनावाद का सहारा लेते हैं। इसके महत्वपूर्ण कार्यों में से एक कार्य परंपरागत सिद्धांतों द्वारा जरूरत पड़ने पर संरचनाओं तथा एजेंटों दोनों की समाजिक तथा ऐतिहासिक परिणाम का विश्लेषण करना है।

रिचर्ड डेबेटॉक का कहना है कि आलोचनात्मक अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत यह वर्णन करते हैं कि यह इस बात में ज्यादा रुचि लेता है कि किस प्रकार व्यक्तिगत अभिकर्ता तथा सामाजिक संरचनाऐं उभरी तथा परिस्थितियां या इतिहास निर्मित हुआ। 

लिंकलेटर आलोचनात्मक सिद्धांत को एक सामाजिक सिद्धांत मानकर इसकी चार उपलब्धियां गिनाता है: –

  • आलोचनात्मक सिद्धांत बहस के द्वारा प्रत्यक्षवाद के साथ मुद्दे को उठाता है कि ज्ञान एक वस्तु वास्तविकता के साथ विषय की निष्पक्षता को ग्रहण करते हुए नहीं निर्मित होता बल्कि या पहले से मौजूद सामाजिक उद्देश्य तथा हितों का प्रभाव लिए होता है।
  • आलोचनात्मक सिद्धांत सामाजिक विश्व के अनुभववादी दावों के भी विरोध में है जो यह मानते हैं कि मौजूदा संरचनाएं अपरिवर्तनीय हैं। इसका विरोध यह है कि शक्ति तथा धन की असमानता का समर्थन करने वाली संरचनाओं की अनिवार्यता की धारणाएं परिवर्तनीय सिद्धांतों से हैं।
  • आलोचनात्मक सिद्धांत मार्क्सवाद में आई खामियों से शिक्षा और उन पर विजय प्राप्त करता है। हैबरमास द्वारा ऐतिहासिक भौतिकवाद पर पुनर्विचार करना इसमें मुख्यता शामिल है। यह कार्य us बात को नकारता है कि शक्ति समाजिक बहिष्करण का मौलिक रूप है या उत्पादन ही समाज तथा इतिहास का मुख्यतः निर्धारक है।
  • आलोचनात्मक सिद्धांत राजनीतिक समुदाय के नए रूप को विकसित करने हेतु जो समुदाय अन्यायकारी बहिष्करण को समाप्त कर दे । सभी के साथ खुले संवाद की अपनी क्षमता के द्वारा सामाजिक प्रबंधों को समझा सकता है या उन पर निर्णय ले सकता है। यथार्थवाद तथा नव यथार्थवाद  तर्कों की समुदायों को सैन्य शक्ति की मुद्रा में एक दूसरे के साथ व्यवहार करना चाहिए, इस तर्क को आलोचनात्मक सिद्धांत नकारता है।

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