न्यायापालिका की स्वतन्त्रता | भारतीय न्यायपालिका

न्यायापालिका की स्वतन्त्रता

(Independence of the Judiciary) 

एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों और संविधान की संरक्षिका हो सकती है। भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए निम्नलिखित उपबन्धों का समावेश किया गया

1. पदावधि की सुरक्षा-एक बार नियुक्त किए जाने के उपरान्त न्यायाधीशों को, उनके स्वैच्छिक त्याग-पत्र के अलावा, महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा हटाया जा सकता हैं । यह विशेष प्रक्रिया अत्यन्त कठिन है, अतः न्यायाधीश को पद से हटाना कोई सरल कार्य नहीं है। 

2. न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते आदि विधायिका के अधिकार से परे होना-उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन संविधान द्वारा नियत है और भारत की संचित निधि पर भारित है। उन पर संसद में मतदान नहीं हो सकता हैं। न्यायाधीशों के कार्यकाल के दौरान उनके वेतन और भत्तों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। वित्तीय आपात की स्थिति ही इसका अपवाद है। साथ ही यह भी व्यवस्था है कि उच्चतम न्यायालय का कोई अवकाश प्राप्त न्यायाधीश देश के किसी न्यायालय में अथवा किसी अन्य प्राधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता है। 

3. कार्य प्रणाली के नियमन हेतु नियम बनाने की शक्ति-उच्चतम न्यायालय को अपनी कार्य-प्रणाली के नियमों हेतु स्वयं ही नियम बनाने का अधिकार है। यह आवश्यक है कि ये नियम संसद द्वारा निर्मित विधि के अर्न्तगत होने चाहिए और इन पर राष्ट्रपति की अनुमति ली जानी चाहिए। उच्चतम न्यायालय के निर्णय या आदेश भारत राज्य क्षेत्र के भीतर सभी न्यायाधीशों को मान्य होंगे।

4. कर्मचारी वर्ग पर नियन्त्रण-उच्चतम न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूरा नियन्त्रण सौंपा गया है, क्योंकि इसके अभाव में उसकी स्वतन्त्रता को आघात पहुंच सकता है। न्यायालय के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों द्वारा की जाती है। सेवा शर्ते भी न्यायालय द्वारा ही निर्धारित की जाती है। 

5. संसद क्षेत्राधिकार बढ़ा सकती है, घटा नहीं सकती-संसद को उच्चतम न्यायालय की शक्ति और क्षेत्राधिकार को बढ़ाने का अधिकार है, घटाने का नहीं। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय को संसदीय दबाव से मुक्त रखा गया है।

6. उन्मुक्तियां-अपनी अधिकारिक क्षमता में किए गए न्यायालयों के निर्णयों और कार्य की अवहेलना नही की जा सकती। संसद भी न्यायाधीशों के ऐसे कार्यो पर जिसे उन्होंने कर्त्तव्य-पालन करते हुए किया हो, विचार-विर्मश नही कर सकती। 

7. अवकाश प्राप्त करने के बाद वकालत करने पर प्रतिबन्ध-अवकाश प्राप्ति के बाद न्यायाधीश भारतीय क्षेत्र में किसी भी न्यायालय या अधिकारी के समक्ष वकालात नहीं कर सकते हैं। किन्तु संविधान विशेष प्रकार के कार्य-सम्पादन के लिए उनकी नियुक्ति की अनुमति देता है, उदाहरणार्थ विशेष जांच-पड़ताल तथा अन्वेषण करना। 

उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस तरह हमारे संविधान में उच्चतम न्यायालय की स्थिति बड़ी मजबूत हे और उसकी स्वतन्त्रता पर्याप्त रूप से संरक्षित है। किन्तु सेवा निवत न्यायाधीशों को आयोग एवं समितियों के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए जाने की वर्तमान प्रथा से न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को खतरा उत्पन्न हो सकता है। भारतीय विधि आयोग ने इस प्रथा के संकटों के बारें में संकेत करते हुए इसे शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करने की सरकार से सिफारिश की है।

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