भारतीय संघवाद
भारतीय संघवाद
by:- Balveer arora, K.K Kailash, Rekha saxena
समकालीन भारतीय राजनीति को समझने के लिए संघीय तथ्य केंद्रीय है। परंपरागत रूप से संघवाद की अवधारणा में केंद्रीय सरकारों और संघीय इकाइयों के बीच संबंध शामिल है। तथा केंद्र सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय सरकार के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है जिसे संविधान में परिभाषित किया गया है।
संघवाद के उभरने या उदय होने के तीन प्रमुख विशेषताएं हैं। जब 1990 के दशक में आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव पड़ा-
पहला:- नए राजनीतिक गतिशीलता ने इस प्रणाली को धक्का दिया, जिसे Polycentric Federalism कहा जा सकता है।
Denial Elazar मानते हैं कि संघवाद केंद्रीयकरण से परे है। तथा वह इसे गैर केंद्रीकरण मानते हैं इनका मानना है कि इसका तात्पर्य शक्ति के कई केंद्रों के अस्तित्व से है जो लंबवत और क्षैतिज के रूप में है।
दूसरा:- भागीदारी के लिए एक साधन के रूप में सूचना प्रौद्योगिकी का उद्भव और इसने नागरिक समाज संगठनों को एक नई ताकत दी तथा सूचना के अधिकार अधिनियम द्वारा इसे और बढ़ाया गया।
तीसरा:- केंद्र सरकार की विनियामक नियमको को एक नई व्यवस्था की मध्यस्थता के माध्यम से नियामक भूमिका को मजबूत करना। इस प्रकार केंद्र राज्य की बातचीत को एक अलग बनावट दिया गया। इस प्रकार से नियामक निकायों (रेगुलेटरी बॉडी) को इस तरह से तैयार किया गया है ताकि निर्देश देने की शक्ति केंद्र सरकार के पास बनी रहे।
भारतीय संघवाद की बहु स्तरीय संस्थागत रचना
1989 के बाद से भारत ने एक पार्टी वर्चस्व वाली व्यवस्था से राष्ट्रीय स्तर पर एक बहुपक्षीय विन्यास और राज्य स्तर पर पार्टी प्रणालियों का एक अत्यंत विविध व्यवस्था देखा जा सकता है। इतने विभाजित सरकार की घटना को बढ़ा दिया जैसे कि संसद और राज्य विधानसभाओं के दोनों सदनों को संघ सरकार व कई राज्यों में गठबंधन सरकारों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
अरोड़ा यह तर्क देते हैं कि अंतर सरकारी सहभागिता (इंटरगवर्नमेंटल इंटरेक्शन) ने गठबंधन की राजनीति और बहुपक्षीय सरकारों के युग में महत्वपूर्ण महत्व प्राप्त किया।
Saez का मत है कि भारत में अंतर सरकारी (इंटर गवर्नमेंटल) संबंध महत्वहीन और अप्रभावी है।
रेखा सक्सेना का मानना है कि भारतीय संघवाद और कनाडाई संघवाद में कई समानता है तथा इसकी कई सामान विशेषताएं हैं। वह बताती हैं कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 को आंशिक रूप से “ब्रिटिश नार्थ अमेरिका एक्ट 1867” के कनाडा के संविधान पर आधारित है। सरकारिया आयोग की रिपोर्ट (भारत सरकार 1988) ने इन स्रोतों पर अधिक ध्यान दिया था और सिफारिश की थी कि उन्हें संवैधानिक दर्जा दिया जाए।
विधायी संघवाद
विधायी संघवाद उन प्रणालियों की एक विशेषता है जहां संघ का द्वितीय सदन राज्य के अधिकारों और हितों के लिए एक महत्वपूर्ण साधन बन जाता है।
कुलदीप नायर ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें कहा गया कि यह संघ का राज्य सभा की प्रतिनिधि साख के रूप में होना विनाशकारी है।
एमपी सिंह- इस बिंदु को रेखांकित करते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर बहुदलीय व्यवस्था के आगमन और विभिन्न राज्यों की पार्टी प्रणालियों में भेदभाव ने राज्यसभा की भूमिका को काफी हद तक पुनः परिभाषित किया है । वह यह भी बताते हैं कि राज्य विधानसभा में पार्टी के विन्यास को दर्शाते हुए लोकसभा सदैव सरकारी बहुमत और राज्यसभा में विपक्षी बहुमत के अधीन रही है ।
शास्त्री- इन्होंने राज्यसभा के सदस्यों का एक विस्तृत और व्यापक अध्ययन किया तथा इस अध्ययन के आधार पर वह तर्क देते हैं कि भले ही संविधान के निर्माताओं ने वास्तविक व्यवहार में राज्यसभा के क्षेत्रीय और संघीय चरित्र को गिरा दिया लेकिन इसकी सदस्यता पिछले विधायी अनुभव के संदर्भ में एक मजबूत क्षेत्रीयवादी पृष्ठभूमि को दर्शाती है ।
मेहरा- भी यह मानती हैं कि राज्यसभा एक प्रभावी संघीय व्यवस्था का दूसरा सदन नहीं है ।
न्यायपालिका और भारतीय संघवाद
संघीय न्यायपालिका प्रारंभ में संघात्मक थी इसीलिए समीक्षाधीन अवधि के दौरान न्यायपालिका ने कार्यकारी और संसद की शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिए बार-बार अनुरोध किया । भाटिया ने सर्वोच्च न्यायालय के कुछ ऐतिहासिक निर्णय की जांच की जो संविधान की संघीय विशेषताओं को बयान करते हैं मुख्य रूप से उन्होंने विधायी और कार्यकारी क्षमता से संबंधित अंतर सरकारी संबंधों के मामलों पर ध्यान केंद्रित किया-
1. एक राज्य में संघ द्वारा भूमि प्राप्त करना
2. राज्य सरकारों की संवैधानिक विफलता
3. संवैधानिक और चुनावी जनादेश के बीच टकराव
4. संविधान का बुनियादी ढांचा (Basic structure of the constitution)
इनका मानना है कि अदालत आमतौर पर न्यायपालिका के रूप में अपनी भूमिका में काफी न्यायपूर्ण और संतुलित रही है। वह यह भी दावा करते हैं कि संबंधों के कई पहलुओं का सामंजस्य है ।
सक्सेना और सिंह का तर्क है कि न्यायपालिका की भूमिका काफी बढ़ गई है और न्यायालय क्षेत्रीय अभिनेताओं की स्थिति के लिए अधिक ग्रहणसील हो गया है ।
धवन और सक्सेना तीन अलग-अलग क्षेत्रों में न्यायपालिका की भूमिका का विश्लेषण करते हैं-
पहला- एक राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता के मामले में राष्ट्रपति शासन के संदर्भ में,
दूसरा- संघ कार्यकारिणी द्वारा संधि निर्माण शक्ति का प्रयोग,
तीसरा- संघ और राज्यों के बीच विवादों के न्यायिक समाधान में,
बहुस्तरीय संघवाद
73 वां और 74 वां संविधान संशोधन द्वारा स्थानीय सरकारी संस्थानों को संवैधानिक अनुमोदन प्रदान किया गया । अर्थात इस संशोधन से उन्हें चुनाव संघ और राज्य सरकारों से वित्तीय आवंटन स्थानीय शासन और नियोजन में भागीदारी के साथ-साथ अनुबंधों के संदर्भ में अधिक अनियमितता प्रदान की है । फिर भी स्थानीय सार्वजनिक कार्यों के लिए इन पंचायत और नगर निकाय को अभी लंबा रास्ता तय करना है 11वीं और 12वीं संविधान की अनुसूचियां में उनके लिए सभी शक्तियों की परिकल्पना की गई है ।
Jayal:- द्वारा एक अध्ययन से यह पता चलता है कि देश में पंचायती राज संस्थानों के चुनावों के पहले दौर में बड़े पैमाने पर राजनीतिक लामबंदी और समान प्रतिनिधित्वआत्मक प्रभाव देखा गया इस तथ्य से स्पष्ट है कि पूरे देश में 31,98,554 प्रतिनिधित्व ग्राम पंचायतों के लिए चुने गए थे ।
ओपी माथुर ने शहरी प्रशासन और अनुसंधान की स्थिति पर यह कहा है कि ज्ञान की मौजूदा स्थिति शहरों के स्तर पर संस्थागत आधार का वर्णन करने के लिए मुश्किल से पर्याप्त है । वस्तुत शहरी क्षेत्रों को नियंत्रित करने की प्रक्रिया के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है इससे भी कम के रूप में जाना जाता है जो बड़े शहरों के शासन को छोटे लोगों से अलग करता है । माथुर के अनुसार शहरी स्थानीय सरकारी वित्त खराब स्थिति में है ।
संघीय प्रक्रियाएं
रुडोल्फ और रुडोल्फ व अरोड़ा के अनुसार भारत मजबूत केंद्र सुविधाओं के साथ एक महासंघ बना हुआ है । यह अतीत की तुलना में आज अधिक संघीय है भारत दुनिया के सबसे संपन्न महासंघ में गिना जाता है और निश्चित रूप से एशिया में सबसे सफल महासंघ है । इनका मत है कि भारत में संघवाद की सफलता निसंदेह “Federalization” प्रक्रिया का परिणाम है ।
दलीय व्यवस्था का संगीकरण
भारत की राजनीतिक पार्टियों और दलीय व्यवस्था आजादी के बाद से लगातार विकास और बदलाव में है हालांकि 2000 के दशक में एक दलिय, कांग्रेस प्रभुत्व प्रणाली का अंत हुआ तथा एक प्रतिस्पर्धी बहुदलीय प्रणाली का उद्भव हुआ यह एक विशिष्ट परिवर्तन था । इस नई पार्टी प्रणाली में एकल राज्य और क्षेत्र आधारित दलों की संख्या और महत्व कई गुना बढ़ गया है ।
भारत में फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम (चुनावी प्रणाली) के साथ संसदीय संघीय व्यवस्था एक महत्वपूर्ण व्याख्यात्मक कारक रही है । श्री धवन ने बहुत ही सशक्त रूप से कहा कि यह महासंघ है जो पार्टी प्रणाली के बुनियादी ढांचे को परिभाषित करने के लिए आया है । संघवाद ने राज्य पार्टी प्रणालियों के निर्माण की अनुमति दी है जो कुल मिलाकर राष्ट्रीय पार्टी प्रणाली बन जाती है ।
राजनीतिक दलों पार्टी प्रणालियों और संघवाद के बीच के अंतर विरोधियों की गतिशीलता पर ध्यान केंद्रित करने वाले विद्वानों में संघीकरण शब्द का प्रयोग एक दल के प्रभुत्व के अंत, राजनीतिक दलों के प्रसार और पार्टी प्रणाली के बाद के पुनर्निर्माण को दर्शाने के लिए किया गया है । शक्ति और कमजोरी राजनीतिक दलों का एक अलग क्षेत्रीय करण है जो नई दलीय व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता है ।
संघीय गठबंधन
एकल राज्य दलों की बढ़ती हुई संख्या और किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त करने में असमर्थता के परिणाम स्वरूप पूर्व प्रधानमंत्री आई के गुजराल ने इसे केंद्र में संघीय गठबंधन कहा है । संघवाद के विद्वानों ने मुख्य रूप से संघ यह गठबंधन को एक शक्ति साझा करण के उपकरण के रूप में देखा है । जो साझा विचारधाराओं की अनुपस्थिति में भी एक सामान्य पूर्ण क्षेत्रीय पहचानो को समेटना चाहता है ।
अरोड़ा और कैलाश ने यह बात कही है कि व्यापक पार्टी की अनुपस्थिति में संघीय गठबंधनो ने यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है कि कई विविधाएं धार्मिक, जाति, भाषाई, सांस्कृतिक, और क्षेत्रीय यह केवल प्रतिनिधित्व नहीं है बल्कि जहां राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता तक पहुंच है ।
अरोड़ा और एमपी सिंह- संघीय गठबंधनो ने राज्यव्यवस्था की संघीय राजनीतिक संस्कृति को भी मजबूत किया है संजय गठबंधन के चरण के दौरान केंद्रीय हस्तक्षेप ने अनुच्छेद 356 का उपयोग करने वाले राज्य में गिरावट आई है । संघीय गठबंधन में राज्य के हितों की उपस्थिति ने राज्यों की लंबे समय से चली आ रही मांगों में से एक को पूरा किया है कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर के निर्णय लेने में परामर्श दिया जाता है।
भारतीय संघ की राजनीतिक अर्थव्यवस्था
राजनीतिक अर्थव्यवस्था के आयाम पर ध्यान केंद्रित करने वाले विद्वानों ने उल्लेख किया है कि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के भारतीयकरण ने केंद्र राज्य के साथ-साथ राज्य बाजार संबंधों को बहुत बड़े पैमाने पर बदल दिया है । रूडोल्फ और रूडोल्फ इसे “कमांड इकोनामी से फेड्रल मार्केट इकोनामी” के एक आंदोलन के रूप में कैप्चर किया वही saez ने इस बदलाव को राज्यों के बीच अंतर सरकारी सहयोग से अंतर न्यायिक प्रतियोगिता में शामिल किया ।
सी.के शर्मा बताते हैं कि सुधार के बाद के युग में केंद्रीय नियंत्रण पूर्व सुधार से गुणात्मक रूप से अलग था । पूर्व सुधार युग के पदानुक्रमित केंद्रीयकरण के विपरित उत्तर सुधार युग में केंद्रीय नियंत्रण नियम पर आधारित था और केंद्रीयकरण उपकरणों को लागू करने के लिए यांत्रिकी को अधिक संख्याकरण किया गया । वह कहते हैं कि नियंत्रण अब केंद्र द्वारा एकतरफा नहीं है बल्कि अब राज्य की सहमति से निर्धारित किया जाता है ।
बागची:- संघीय राजकोषीय और राजनीतिक संस्थानों में अंतर्निहित कमजोरियों विशेष रूप से हस्तांतरण प्रणाली पर दोषपूर्ण रूप से आरोप लगातें है । तथा वे समन्वय की विफलता और राजकोषीय अनुशासनहीनता का जिक्र करतें है।