औपचारिक समानता ऑर अवसर की समानता

समानता

सामाजिक, आर्थिक, नैतिक व राजनीतिक दर्शन संबंधी मूल संकल्पनाओं में, समानता की संकल्पना से आधिक भ्रामक और विस्मयकारी कोई और नहीं, क्योंकि यह न्याय, स्वतंत्रता, अधिकार, स्वामित्व, आदि सदृश अन्य सभी संकल्पनाओं में गण्य है। गत दो हजार वर्षों के दौरान, यूनानवासियों, प्राचीन यूनानी दर्शनशास्त्र के अध्येताओं, ईसाई पादरियों द्वारा समानता के अनेक आयामों का विस्तारपूर्वक प्रतिवादन किया गया, जिन्होंने भिन्न-भिन्न रूप से और सामूहिक रूप से इसके एक न एक पहलू पर जोर दिया। उदारवाद व मार्क्सवाद के प्रभाववश, समानता ने एक पूर्णरूप से भिन्न सम्पृक्तार्थ ग्रहण कर लिया। नारी-अधिकारवाद, पर्यावरणवाद सरीखे समसामयिक सामाजिक आन्दोलन इस संकल्पना को एक नया अर्थ प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं।

बुनियादी रूप से, समानता एक मूल्य है और एक सिद्धांत, जो अनिवार्यतः आधुनिक व प्रगतिशील है। यद्यपि समानता विषयक बहस तो सदियों से चलती आयी है, आधुनिक समाजों का खास यह लक्षण है कि अब हम समानता को सच अथवा स्वाभाविक चीज़ नहीं मानते।

औपचारिक समानता

अंग्रेजी दार्शनिक जॉन लॉक मनुष्य की नैसर्गिक समानता पर आधारित समानता-संबंधी विचार के सर्वाधिक वाकपटु समर्थकों में से एक हैं। (कहने की जरूरत नहीं कि लॉक की कार्य-योजना में महिलाओं का कतई स्थान नहीं था!) कैन्ट ने इस सार्वभौम मानवता के एक निष्कर्ष रूप में सार्वत्रिकता और समानता के बारे में बात कर इस विचार को और मज़बूती प्रदान की। इस प्रकार, औपचारिक समानता का अर्थ हो गया – अपनी सर्वमान्य मानवता के बल पर सभी व्यक्तियों से समान रूप से व्यवहार किया जाए।

इस विचार की सबसे महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति है- विधि-संगत समानता अथवा कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत कानून के द्वारा सभी लोगों से समान रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए, बेशक उनकी जाति, प्रजाति, वर्ण, लिंग, धर्म, सामाजिक पृष्ठभूमि, इत्यादि कुछ भी हो। जबकि यह प्रजाति, लिंग, सामाजिक पृष्ठभूमि व इसी प्रकार के अन्य मानदण्डों पर आधारित विशेषाधिकारों के खिलाफ संघर्ष में एक स्वागतयोग्य कदम था, अपने आय में यह एक बहुत सीमित धारणा है।

यह सिद्धांत इस तथ्य से इंकार करता है कि जाति, लिंग व सामाजिक पृष्ठभूमि द्वारा डाली गई अड़चनें इतनी दुर्दमनीय हो सकती थीं कि व्यक्ति उस औपचारिक समानता को लाभ उठाने में भी समर्थ नहीं होता जो कि कानून सभी व्यक्तियों को प्रदान करता है।

इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि यही वो अल्पता थी, जिसने मार्क्स को अपने निबंध ‘ऑन दृजूइश क्वैश्चन’ में इस समस्या पर सूक्ष्म दृष्टि डालने को प्रवृत्त किया। उसने निश्चयपूर्वक कहा कि औपचारिक समानता जबकि एक महत्त्वपूर्ण अग्रसर कदम है, वह मानव का उद्धार नहीं कर सकती। जबकि बाजार ने लोगों को सामाजिक दर्जे व अन्य समरूप श्रेणियों द्वारा लगाए गए अडंगों से मुक्त कर दिया, उसने तिस पर भी वर्गाधारित भेदों को पैदा कर दिया, जिनको कि निजी स्वामित्व की विद्यमानता द्वारा परिपुष्ट किया गया। इसका निहितार्थ था कि व्यक्तिजन नितान्त भिन्न बाजार मूल्य रखते हैं और इसी कारण से मार्क्सवादी जन इस संदर्भ में औपचारिक समानता का वर्णन बाजार समानता के रूप में करते हैं, जोकि समाज की गहन असमान प्रकृति को छिपाने हेतु कुछ ज्यादा ही दिखावा है।

आज, समतावादी जन इस धारणा से दूर चले गए हैं कि सभी मनुष्यों को समान बनाया गया है और इसी कारण से, उन्हें समान अधिकार रखने चाहिए। ऐसा इस तथ्य की वजह से है कि मनुष्य जन अधिकांश महत्त्वपूर्ण पहलुओं में समान नहीं हैं। इसीलिए, आज, समानता शब्द विवरणकारी के स्थान पर एक व्यवस्थाकारी अर्थ में अधिक प्रयोग होता है; उन नीतियों का समर्थन किया जाता है जो मनुष्यों के कुछ वर्णनात्मक विशेष गुणों पर निर्भर न रहते हुए समानता के आदर्श को बढ़ावा देती हैं।

अवसर की समानता

सहज ही समझी जाने वाली, अवसर की समानता का अर्थ है उन सभी अवरोधों को दूर करना जो व्यक्तिगत आत्म-विकास में बाधा डालते हैं। इसका अर्थ है कि पेशे या व्यवसाय प्रतिभावान व्यक्ति के लिए ही खुले होने चाहिए और तरक्कियाँ योग्यताओं पर आधारित होनी चाहिए। सामाजिक स्थिति, पारिवारिक संबंधों, सामाजिक पृष्ठभूमि व ऐसे ही अन्य कारकों का हस्तक्षेप नहीं होने देना चाहिए।

अवसर की समानता एक अत्यन्त आकर्षक धारणा है, जो उस बात से संबंधित है जिसका जीवन के आरम्भ बिन्दु के रूप में वर्णन किया जाता है। निहितार्थ यह है कि समानता यह अपेक्षा रखती है कि सभी व्यक्ति एक समतल क्रीड़ा-स्थल से जीवन शुरू करें। तथापि, यह जरूरी नहीं कि इसके परिणाम बिल्कुल भी समतावादी हों। यथार्थतः चूँकि हर व्यक्ति ने समान रूप से शुरुआत की, असमान परिणाम स्वीकार्य एवं वैध-सिद्ध होते हैं। इस असमानता को तब भिन्न-भिन्न नैसर्गिक प्रतिभाओं, कठोर श्रम-क्षमता अथवा भाग्य के भी शब्दों में स्पष्ट किया जाएगा।

यह लगता है कि इस तरह से बनी अवसर की समानता एक ऐसी व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा करने का समान अवसर प्रदान करती है जो कि क्रम-परम्परागत रही है। अगर ऐसा है तो यह तत्त्वतः कोई समतावादी सिद्धांत प्रतीत नहीं होता। अवसर की समानता, इस प्रकार, एक असमतावादी समाज की ओर इशारा करती है, यद्यपि यह योग्यता के उच्च आदर्श पर आधारित, है। यह धारणा स्वयं को प्रकृति और परम्परा के बीच भिन्नता पर आधारित करती है। तर्क यह है कि वे भिन्नताएँ जो प्रतिभाओं, कौशलों, कठोर श्रम इत्यादि जैसे विभिन्न प्राकृतिक गुणों के आधार पर प्रकट होती हैं, नैतिक रूप से समर्थनीय हैं। तथापि, वे भिन्नताएँ जो परम्पराओं अथवा गरीबी, आश्रयहीनता जैसे सामाजिक रूप से बने भेदों से पैदा होती हैं, समर्थनीय नहीं हैं। 

सच्चाई, हालाँकि, यह है कि यह एक विशिष्ट सामाजिक पक्षपात है जो समाज में भेदों को स्पष्ट करने के लिए सुन्दरता अथवा बुद्धिमत्ता जैसी किसी प्राकृतिक भिन्नता को एक प्रासंगिक आधार बना देती है। तदनुसार, हम देखते हैं कि प्रकृति व परम्परा के बीच भेद इतना सुस्पष्ट नहीं है जैसा कि समतावादी बतलाते हैं।

अवसर की समानता को प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए पेशे या व्यवसाय खुले रखना, निष्पक्ष समान अवसर उपलब्ध कराना और सकारी-भेदभाव सिद्धांत विषयक अनेक विसामान्यताओं को स्वीकृति के माध्यम से संस्थापित किया जाता है। ये सब इस प्रकार काम करते हैं कि समानता की व्यवस्था तर्कसंगत और स्वीकार्य लगे। निहित धारणा यह है कि जब से प्रतिस्पर्धा निष्पक्ष हुई है, लाभ अपने आप आलोचना से परे हो गया है। इस बात में कोई शक नहीं कि इस प्रकार की व्यवस्था ऐसे लोगों को जन्म देगी जो सिर्फ अपनी प्रतिभाओं एवं वैयक्तिक सहजगुणों पर ध्यान देंगे। यह बात उन्हें अपने लोगों के साथ किसी भी सामुदायिक अनुभूति से वंचित करती है, क्योंकि वे सिर्फ प्रतिस्पर्धा की भाषा में ही सोच सकते हैं।

शायद, यह सिर्फ एक ऐसे समुदाय को जन्म दे सकती है जो एक ओर तो सफल व्यक्तियों का समुदाय होगा. और दूसरी ओर असफल व्यक्तियों का ऐसा समुदाय जो अपनी तथाकथित विफलता के लिए स्वयं को ही दोष देगा। तो भी अवसर की समानता के साथ एक और समस्या यह है कि वह एक पीढ़ी व दूसरी पीढ़ी की सफलताओं व विफलताओं के बीच एक बनावटी वियोजन पैदा करने का प्रयास करती है।

इस प्रकार, यह देखने में आता है कि समानता विषयक उदारवादी विचार अवसर की समानता पर आधारित है। यह वकालत, समानता संबंधी किसी भी यथेष्ट धारणा के विरुद्ध है क्योंकि ये वो अवसर हैं जो असमान परिणामों की ओर ले जाते हैं। यह सिद्धांत, इस प्रकार, परिणामों से असम्बद्ध है और सिर्फ प्रक्रिया में रुचि रखता है। यह पूरी तरह से इस उदारवादी विचार को कायम रखने के साथ है कि व्यक्तिजन समाज की बुनियादी इकाई हैं और समाज को अवश्य ही उनके लिए यह संभव बनाना होगा कि वे अपने निजी हितों को सिद्ध कर पाएँ।

क्या इसका मतलब यह हुआ कि समतावादी जन अवसर की समानता को अनदेखा करेंगे? उत्तर है स्पष्ट रूप से नहीं। तथापि, वे अवसर की समानता संबंधी एक अधिक व्यापक परिभाषा को लेकर चलेंगे, जो कि हर किसी को एक संतोषजनक एवं पालनयोग्य तरीके से अपनी क्षमताओं को विकसित करने के साधन मुहैया करायेगी। एक समतावादी समाज कुछ लोगों को अपनी क्षमताएँ विकसित करने हेतु वास्तविक अवसर प्रदान देने से इंकार नहीं करेगा। इस अवसर का निष्कपट समतावादी प्रयोग एक सार्थक जीवन की ओर प्रवृत्त करेगा। चूंकि यह सुनिश्चित करना सम्भव नहीं है कि हर व्यक्ति एक सार्थक जीवन बिताए, ऐसी सामाजिक परिस्थितियों के लिए जो सभी व्यक्तियों को सार्थक जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करे, इस बात के लिए ही समतावादी जन प्रयास करेंगे।

परिणामों की समानता

तथापि, परिणाम पर नज़र डालने हेतु जीवन के आरंभ-बिंदु से आगे चलकर समानता के संबंधी धारणा एक और अभिव्यक्ति परिणामों की समानता के शब्दों में होगी। मार्क्स, उदाहरण के लिए, यह विचार रखते थे कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से घिरा समानता हेतु कोई भी अधिकार पक्षपाती के सिवा कुछ और नहीं हो सकता। तदनुसार, उसने संपूर्ण समाजिक समानता के लिए, जोकि तभी संभव है यदि अन्य सभी समानताओं से निजी संपत्ति को समाप्त कर दिया जाये, तर्क दिया कि तब तक अपर्याप्त रहेगी जब तक कि परिणाम की समानता सुनिश्चित नहीं हो जाती।

परिणाम-संबंधी समानता के आलोचक यह बात रखते हैं कि इस प्रकार का काम निष्क्रियता, अन्याय और बुरी से बुरी नादिरशाही का रास्ता दिखलायेगा। हयेक ने, उदाहरण के लिए. तर्क दिया है कि लोग चूँकि बहुत भिन्न होते हैं, उनकी अभिलाषाएँ व लक्ष्य भिन्न होते हैं तथा कोई भी व्यवस्था जो उनसे समान रूप से सुलूक करती है, वस्तुतः असमानता में परिणत होती है। समानता हेतु प्रेरणा, यह तर्क दिया जाता है, वैयक्तिक स्वतंत्रता की कीमत पर होती है। समाजवादी समतावादी उपायों का लागू किया जाना, यह दलील दी जाती है, व्यक्ति की गरिमा और आत्म-सम्मान को गुप्त रूप से क्षति पहुँचाता है और ऐसे उपायों के साथ चलने वाला सहज पैतृकवाद व्यक्ति की एक विवेकपूर्ण पसंदकर्ता बनने संबंधी योग्यता को अस्वीकार करता है।

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