न्यायिक समीक्षा और न्यायिक सक्रियता
न्यायिक पुनर्निरीक्षण (Judicial Review)
सर्वोच्च न्यायालय का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य संविधान की व्याख्या तथा रक्षा करना है और यही सर्वोच्च न्यायालय का सबसे महत्वपूर्ण अधिकार भी है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक होने के नाते उसकी अन्तिम व्याख्या करने का अधिकार भी प्राप्त है। इसके अधीन वह संसद तथा राज्य विधानमण्डल द्वारा बनाए कानूनों की पुनःछानबीन कर सकता है तथा उनकों असंवैधानिक तथा नियम–विरुद्ध घोषित कर सकता है। न्यायिक पुनर्विचार का अर्थ है, “उच्च शक्ति जिस के द्वारा उच्चतम न्यायालय यह देखता है कि राज्य सरकारें, तथा केन्द्रीय सरकार के कार्य शासन रचना के विरोधी तो नहीं।” इस के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय जांच करता है कि राज्य विधानमण्डलीय तथा केन्द्रीय सरकार के निर्मित कानून भारतीय संविधान के अनुसार है अथवा नहीं।
यदि उच्चतम न्यायालय यह अनुभव करे कि कोई कानून संविधान की धाराओं के विरूद्ध है तो उसको संविधान के विरुद्ध होने के कारण रद्द कर दिया जाता है। इस प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय के पास संविधान की व्याख्या करने की अन्तिम शक्ति है। केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के अंग अपनी समस्त शक्ति संविधान से ही प्राप्त करते हैं। एक संघीय राज्य में केंद्रीय तथा राज्य सरकारों के अंग अपनी समस्त शक्ति संविधान से ही प्राप्त करते हैं। एक संघीय राज्य में केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों की शक्तियों सीमित होती हैं तथा किसी के द्वारा भी अधिकारों का अतिक्रमण संविधान का उल्लंघन समझा जाता है। हमारे संविधान में शक्तियों का विभाजन किया जाता है।
संघीय सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद को दिया गया है। इसी प्रकार राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों के पास है। इसी प्रकार जब भी संसद अथवा राज्य सरकारें अपने अधिकारों से बाहर हो कर कोई कार्य करती हैं तब उच्चतम न्यायालय को ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार है।
संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार भी संसद तथा राज्य विधानमण्डलों की शक्तियों को सीमित करते हैं। जो भी कानून संविधान में दिए इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध जाता है, उच्चतम न्यायालय, उसको रद्द कर देता है। यह शक्ति उच्च न्यायालय को भी दी गई है।
42वें संशोधन द्वारा संविधान में 144ए नामक एक नया अनुच्छेद सम्मिलित किया गया है जिसके अनुसार केन्द्रीय कानून और राज्य कानूनों की संवैधानिक वैधता का निर्णय ऐसी न्यायपीठ (Bench) द्वारा होना चाहिए जिसमे 7 न्यायाधीश हों और तब तक कोई कानून अवैध करार नहीं दिया जा सकता जब तक कानून की अवैधता के बारे में निर्णय न्यायपीठ के दो तिहाई न्यायाधीशों द्वारा न किया गया हो। 42वें संशोधन द्वारा ही संविधान में अनुच्छेद 131ए शामिल किया जाता है जिसके द्वारा केन्द्रीय कानून की संवैधानिक वैधता को केवल सर्वोच्च न्यायालय मे ही चुनौती दी जा सकती है।
42वे संशोधन से पूर्व केन्द्रीय कानून की संवैधानिकता वैधता की जांच करने का अधिकार उच्च न्यायालय को भी भी प्राप्त था । परन्तु इस संशोधन द्वारा यह अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया। जिन विषयों पर केन्द्र और राज्य दोनों के कानूनों की वैधता का प्रश्न निहित हो, उन पर भी केवल सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार दिया गया; परंतु 42 वें संशोधन द्वारा संविधान में अनुच्छेद 32 ए अंकित किया गया जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को राज्य के कानून की संवैधानिकता जांच करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने लिए राज्य के कानून की संवैधानिक जांच तभी तक कर सकता था यदि उसमें केन्द्रीय कानून का भी प्रश्न हो।
दिसम्बर, 1977 में 43वां संशोधन पास किया गया जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के 42वें संशोधन से पहले की स्थिति को स्थापित किया गया है। अर्थात् 43वें संशोधन द्वारा अनुच्छेदों 32ए, 131ए तथा 144ए को संविधान में से निकाल दिया गया है। अतः अब पुनः सर्वोच्च न्यायालय केन्द्र तथा राज्यों के कानूनों की संवैधानिक जांच कर सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति का प्रयोग कई महत्वपूर्ण कानूनों को रद्द करने के लिए किया है। 27 फरवरी, 1967को सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ बनाम सरकार के मुकद्दमें में यह निर्णय दिया था कि संसद को मौलिक अधिकारों में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कानून को भी अवैध धोषित किया।
राजाओं आदि के प्रिवी पर्स (Privy Purses) तथा अन्य विशेषाधिकारों को समाप्त करने के राष्ट्रपति के आदेश को भी अवैध घोषित किया गया। स्वामी केशवानंद भारती के मुकद्दमें में निर्णय देत हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में परिवर्तन कर सकती है पर संविधान के मौलिक ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। 9 मई, 1980 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में 42वें संशोधन अधिनियम 1976 के उस खण्ड को रद्द कर दिया, जिसमें संसद को संविधान संशोधन के असीमित अधिकार दिए गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने 42 वें संशोधन के अधीन संशोधित संविधान के अनुच्छेद 31सी को भी रद्द कर दिया।
रद्द किये अनुच्छेद में मौलिक अधिकारों पर निर्देशक सिद्धांतों का वरीयता दी गई थी। मई, 1980में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य मुकद्दमें की जांच करते हुए यह फैसला दिया कि मौत की सजा संवैधानिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penel Code) में मौत की सजा की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेदों 14, 19, और 31 का न तो उल्लंघन करती है न ही यह संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है। 12 नवम्बर, 1991 को सर्वोच्च नयायालय ने दल-बदल विरोधी कानून 1982 (52वें संवैधानिक संशोधन) को उचित ठहराया। परन्तु संविधान की 10वीं अनुसूची के सातवें पैरे का रद्द कर दिया । सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सातवें पैरे से अनुच्छेदों 136, 226 और 227 के उद्देश्यों का उल्लंघन होता है।
सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति
इस विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस न्यायालय को संसार के सभी संघात्मक या सर्वोच्च न्यायालयों से अधिक शक्तियां प्राप्त हैं । भूतपूर्व महान्यायवादी श्री सीतलवा ने ठीक ही कहा था, “इस न्यायालय का लेख 20 लाख वर्ग मील से अधिक क्षेत्र पर, जिसमें लगभग 33 करोड़ (अब 101 करोड़ से अधिक) की जनसंख्या निवास करती है, लागू होगा। यह कहना सच है कि इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ अपनी प्राकतिक सीमा में , राष्ट्रमण्डल के किसी भी पक्ष या संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की और क्षेत्राधिकार शक्तियों से विस्तत है।
इसे ही संविधान की अन्तिम व्याख्या करने का अधिकार है। संविधान की अन्तिम व्याख्या करने वाली संस्था होने के कारण इसको संविधान की ही व्याख्या करने का अधिकार नहीं है बल्कि संध, राज्यों और स्थानीय संस्थाओं के कानूनों की व्याख्या करने का भी अधिकार है। अपने प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र के अधीन यह उन सब झगड़ों को निपटाता है जो संघ और राज्यों में आपस में होते हैं। इसके अपीलीय क्षेत्र में केवल संवैधानिक मुकद्दमें ही नहीं बल्कि दीवानी तथा फौजदारी मुकद्दमें आते हैं | अपीलों की आज्ञा देने के विशेष अधिकार में इसकी यह शक्ति है कि वह देश के किसी भी न्यायालय के निर्णयों पर विचार कर सकता है। कई अवस्थाओं में यह न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श भी देता है।
इस न्यायालय द्वारा पास किए गए कानून भारत के प्रत्येक न्यायालय पर लागू होते हैं। इसके आदेश सारे देश पर लागू होते किसी भी व्यक्ति को किसी अभिलेख या किसी भी कागज को पेश करने के आदेश दे सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संसद और राज्यों के विधानमण्डलों को मनमानी करने से रोकता है और उनके बनाए हुए कानूनों या आदेशों को असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को इतनी अधिक शक्तियां प्राप्त हैं कि यह मौलिक अधिकारों का ही रक्षक ही नहीं बल्कि संविधान और दश के कानून का भी रक्षक है। श्री अल्लादी कष्णास्वामी अय्यर (Shri Alladi Krishnaswami Ayyar ) के अनुसार, “भारतीय संविधान का विकास काफी सीमा तक सर्वोच्च न्यायालय के कार्यो तथा इस बात पर निर्भर करता है कि सर्वोच्च न्यायलय संविधान को किस दिशा में ले जाता है।
” (The future evolution of the Indian Constitution will thus depend to a large extent upon the work of Supreme Court and the direction given to it by that Court.) एम. वी. पायली (M.V. Pylee) ने सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति के बारे में लिखा है कि “अपनी विभिन्न तथा व्यापक शक्तियों के कारण सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक क्षेत्र में ने केवल एक सर्वश्रेष्ठ संस्था है, बल्कि वह देश के संविधान तथा कानून का भी रक्षक है।” (The Combination of Such wide and varied Powers in the Supreme Court of India makes it not only the supreme authority in the judicial field but also the guardian of the Constitution and law of the land.)
सर्वोच्च न्यायालय का प्रमुख कर्तव्य कानूनों की वैधता निश्चित करना और संविधान की व्याख्या करना होता है। इस सम्बन्ध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय का कार्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से भिन्न है। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की व्याख्या करने की अपनी शक्ति की, कानून की उचित प्रक्रिया’ (Due Process of Law) के वाक्यांश की इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय वास्तव में व्यवस्थापिका की तीसरा सदन ही श्रेष्ठ व्यवस्थापिका बन चुका है। भारत के संविधान बनाने वालो ने कानून की उचित विधि की धारा को अपना कर ‘कानून द्वारा स्थापित विधि’ (Procedureestablishment by Law) का वाक्यांश अपनाया है। इसके द्वारा हमारा सर्वोच्च न्यायालय केवल कानून लागू करने वाली संस्था है। यह कोई एक अतिरिक्त विधानसभा नहीं कहला सकता।
यह तो केवल उस समय किसी कानून को अवैध घोषित कर सकता है, जब वह संविधान का उल्लंघन करता हो। किसी कानून के केवल बुरा होने के कारण हमारा सर्वोच्च न्यायालय उसे अवैध घोषित नहीं कर सकता। इस प्रकार हमारे देश में न्यायिक सर्वोच्चता (Judicial Supremacy) के सिद्धान्त के विकास की सम्भावना नही। हमारे सर्वोच्च न्यायलय के अनसार “भारत की न्यायपालिका की स्थिति इंग्लैंड के न्यायालयों और अमेरिका के न्यायालयों की स्थिति के बीच है।” वास्तव में हमारे सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति का उद्देश्य वैधानिक कार्यो की अपेक्षा कार्यपालिका के अत्याचारों और अधिकार चेष्टाओं पर प्रतिबन्ध लगाना है। यह तो केवल यह देखता है कि न तो संसद और न ही कार्यपालिका संविधान द्वारा निश्चित क्षेत्राधिकार का उल्लंघन करे।
भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन
न्यायिक पुनर्विलोकन शक्ति का अभिप्राय है-कानूनों की वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति । भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करते हैं लेकिन भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन का क्षेत्र इतना व्यापक नहीं है जितना संयुक्तराज्य अमेरीका में है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने अमेरिकन संविधान की शब्दावली ‘कानून की सम्यक् प्रक्रिया’ (Due Process of Law) के स्थान पर कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure Established by Law) को स्वीकार किया है। अमेरिका में कोई कानून यदि वह प्राकतिक न्याय के कुछ सर्वमान्य सिद्धान्तों के विरूद्ध हो, तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है। किन्तु ऐसा भारत में नहीं है।
भारत का सर्वोच्च न्यायालय यह निश्चित करने में अमुक कानून संवैधानिक है या नहीं, प्राकतिक न्याय सिद्धान्तों का या उचित-अनुचित की अपनी धारणाओं की नहीं अपना सकता है। दूसरे शब्दों में, भारत में न्यायालय किसी कानून को अवैधानिक तभी ठहरा सकता है जबकि सम्बन्धित विधानमण्डल ने उस कानून का निर्माण करने में अपनीकानून निर्माण क्षमता का उल्लंघन किया हो। भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन की सीमाओं को स्पष्ट करते हुए एच. एम. सीरबाई ने लिखा है-“भारत में किसी कानून को केवल इस आधार पर अवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता कि वह न्यायालय की सम्मति मे स्वतन्त्रता अथवा संविधान की भावना के किसी सिद्धान्त का अतिक्रमण करता है, जब तक कि वे सिद्धान्त संविधान में उल्लेखित न हों ।
किसी कानून की सांविधानिकता पर निर्णय देने न्यायालय को कानून की बुद्धिमत्ता या बुद्धिहीनता, उसके न्याय कानून और अन्याय से कोई सम्बन्ध नहीं है।” अमेरिका का सर्वोच्च नयायालय ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ वाली धारा के आधार पर लगभग एक ‘तीसरा सदन’ अथवा ‘उच्च विधानमण्डल, की (Third House or Super Legislature) बन गया है। जैसा कि न्यायाधीश ह्यूज ने लिखा हे-हम एक सविध पान के अन्तर्गत तो रहते है, लेकिन संविधान वैसा ही है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय कहता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को निश्चित रूप से ऐसी स्थिति प्राप्त नहीं है। अमेरिका में ‘न्यायिक सर्वोच्चता को अपनाया गया है जबकि भारत में न्यायिक सर्वोच्चता और संसदीय सर्वोच्चता के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है अर्थात अमेरिकन सिद्धान्त और ब्रिटिश सिद्धान्त को मिलाने का प्रयत्न किया गया है।
न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का संविधान में उल्लेख
भारतीय संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का उल्लेख निम्नलिखित अनुच्छेदों में मिलता है
(अ) अनुच्छेद 12 (2) (मूल अधिकारों वाला भाग)
(ब) अनुच्छेद 246 (जिसमें संघ एवं राज्यों के विधायी क्षेत्रों में कानून बनाने की शक्तियों का उल्लेख है)
(स) अनुच्छेद 32 (जिसमें नागरिकों के सांविधानिक उपचारों के अधिकार का उल्लेख है)
(द) अनुच्छेद 131 एवं 132 (जिनमें उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार तथा सांविधानिक मामलों में अपीलीय क्षेत्राधिकार का उल्लेख है)।
(अ) अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति-इस अनुच्छेद में लिखा है कि “राज्य ऐसा कोई कानून नहीं बनाएंगे जो इस भाग (मूल अधिकारों वाला भाग तीन) द्वारा दिए गए अधिकारों को छीनता या कम करता हो और इस खण्ड का उल्लंघन करने वाला प्रत्येक कानून उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुच्छेद द्वारा किए गए कार्यो को उच्चतम न्यायलय इस आधार पर देख सकता है कि वे अनुच्छेद 13 (2) के अनुकूल हैं या नहीं, और यदि वे अनकल नहीं है तो उन्हें असांविधानिक घोषित कर सकता है।
संविधान के 24 वें संशोधन 1971 से पूर्व यह अनुच्छेद देश की राजनीति में तूफान लाने वाला सिद्ध हुआ। अनेक बार उच्चतम न्यायालय के निर्णय एक समान नहीं रहे। 1952 में पहली बार शंकरी प्रसाद के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह स्वीकार किय कि संसद मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है। 1965में सज्जनसिंह के मामले में 2/3 के बहुमत से उपर्युक्त निर्णय का पुनः समर्थन किया गया। लेकिन 1967 में गोलकनाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय नेअपने पहले के निर्णय को उलट दिया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने सदा के लिए मूल अधिकारों का संशोधन-शक्ति से परे कर दिया।
यह निर्णय 6-5 के अनुपात से लिया गया। उच्चतम न्यायालय के गोलकनाथ विवाद पर दिए गये निर्णय के बड़े दूरगामी और क्रान्तिकारी परिणाम निकले। देश के संविधान को दी गई चुनौतियों के नए उत्तर दिए गए। परिणामस्वरूप तेजी से बदलते हुए राजनीतिक सन्दर्भ में चौबीसवां सशाधन अधिनियम, 1971 पारित किया गया। संसद को मूल अधिकारों के अध्याय में संशोधन करने का अधिकार या नहीं – इस प्रश्न पर विवाद समाप्त हो गया। यह निश्चित कर दिया गया कि संसद को संविधान के किसी भी उपबन्ध को, जिसमे मौलिक अधिकार भी आते हैं, संशोधित करने का अधिकार होगा। चौबीसवें संशोधन के फलस्वरूप न्यायिक पुनर्विलोकन के क्षेत्र में एक अष्पष्टता दूर हो गई। 1973 में उच्चतम न्यायालय द्वारा भी अपने निर्णय में इस सांविधानिक संशोधन की वैधता को स्वीकार कर लिया गया।
(ब) अनुच्छेद 246 के अनुसार न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति-यह अनुच्छेद भी उच्चतम न्यायालय के न्यायिक पुनर्विलोकन के अधिकार को प्रकट करता है। इसमें संघ तथा राज्यों के विधायी क्षेत्रों में कानून बनाने की शक्तियों का उल्लेख है। चूंकि संघ और राज्यों की विधायी सीमा का उल्लेख कर दिया गया है, अतः किसी भी पक्ष द्वारा इस सीमा का उल्लंघन एक असांविधानिक कार्य माना जाता है और उच्चतम न्यायालय अपनी न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का प्रयोग कर उसे असावधानिक घोषित कर सकता है।
चूंकि तीनों सूचियों में शक्तियों के वितरण की स्पष्ट व्यवस्था है और सभी परिस्थितियों का संविधान में यथासाध्य उल्लेख कर दिया गया है, अतः उच्चतम न्यायालय को अपना विवेक प्रयोग करने का आधार बहुत कम मिल पाता है अर्थात उसे ‘कानन द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के अनुसार ही किसी भी कार्य की वैधता की जांच करनी होती हैं इसके विपरीत अमेरिका में उच्चतम न्यायालय को अपने विवेक का प्रयोग करने के अवसर बहुत अधिक मिलते है क्योकि वहां संविधान में संघ राज्य सम्बन्धों का वर्णन बहुत संक्षेप में किया गया है और अवशिष्ट शक्तियां राज्यों में निहित है। इसलिए वहां इस प्रकार के विवाद उठते रहते है कि संघ राज्यों की अवशिष्ट शक्तियों का उल्लंघन कर रहा है या नहीं।
(स) अनुच्छेद 32 के अनुसार न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति-इस अनुच्छेद में नागरिकों के सांविधानिक उपचारों के अधिकारों का उल्लेख किया गया है। कोई भी नागरिक यदि अनुभव करें कि उसके मूल अधिकार का विशुद्ध रूप से उल्लंघन हुआ है तो वह उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है। उच्चतम न्यायालय को यह देखने का अधिकार होगा कि क्या वास्तव में राज्य के किसी कार्य या कानून से विशुद्ध रूप से नागरिक के मूल अधिकार का उल्लंघन हुआ है।
मूल अधिकारों की सुरक्षा के लिए ही उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 32 (2) के अर्न्तगत बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण और अधिकार-पच्छा लेख निकालने का अधिकार है। ये लेख या आदेश ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के अनुसार ही निकाले जाते है, अमेरिका की तरह ‘प्राकतिक अधिकारों के सिद्धान्त’ के अनुसार नहीं । वास्तव में इन रिटों (Writs) के रूप में न्याय प्रशासन की एक नई शाखा का विकास हुआ है।
(द) अनुच्छेद 131 एवं 132 के अनुसार न्यायिक पनर्विलोकन की शक्ति-अनुच्छेद 131 में उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का और अनुच्छेद 132 में , सांविधानिक मामलों में उसके अपीलीय क्षेत्राधिकार का उल्लेख किया गया है अर्थात ये दोनों अनुच्छेदों उच्चतम न्यायालय को संघीय और राज्य सरकारों द्वारा निर्मित विधियों के पुनर्विलोकन का अधिकार देते है।
इस सम्पूर्ण विवेचना से स्पष्ट है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की भांति ही भारत में भी न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का अधिकार का प्रयोग ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के ही अनुसार कर सकता है। संविधान के लागू होने के बाद से अब तक उच्चतम न्यायालय ने इस शक्ति का प्रयोग करके अनेक महत्त्वपूर्ण कानूनों का या अध्यादेशों, नियमों या विनिमयों को पूर्णतया या आंशिक रूप से असांविधानिक धोषित किया है।