नव संस्थावाद के विभिन्न दृष्टिकोण | ऐतिहासिक, तार्किक, और समाजशास्त्रीय
नव संस्थावाद तुलनात्मक राजनीति के अंतर्गत एक नई अवधारणा है। इसको मुख्य रूप से दो विचारकों मार्च ओर ऑलशन द्वारा आगे बढ़ाया गया। नव संस्थावाद मुख्य रूप से वर्तमान कल्याणकारी राज्य की एक मुख्य विशेषता बन कर उभरी है। नव संस्थावाद इसके प्रमुख तीन दृष्टिकोण है जिसके माध्यम से हम इसको समझ सकते हैं:-
- ऐतिहासिक
- तार्किक
- समाजशास्त्रीय
1. ऐतिहासिक दृष्टिकोण
यह दृष्टिकोण 1960 और 1970 के दशक में उभर कर सामने आया यह तब उभरा जब समाज में उन संसाधनों के लिए संघर्ष हो रहा था जो आवश्यक थे परंतु बहुत कम थे या सीमित थे। इन संसाधनों के लिए समाज में जो संघर्ष चल रहा था उसके परिणाम स्वरूप ऐतिहासिक दृष्टिकोण उभरा ।
इस संघर्ष के तहत लोगों को जोड़ा गया अर्थात लोग सामूहिक रूप से जुड़कर समाज के संसाधनों पर आधिपत्य किया इस सामूहिकता ने ही संस्थान का रूप लिया।
इस दृष्टिकोण के अनुसार जो भी संस्थाएं बनाई गई हैं इनका अपना एक विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ रहा है अर्थात इनकी अपनी अलग संस्कृति रही है जिसकी पूर्ति हेतु संस्थाओं का निर्माण होता है । श्रम और धन का उपयोग करके ऐतिहासिक संस्थाओं का निर्णय किया गया है। यह व्यक्ति और संस्थाओं के बीच के संबंध व्यवहार को बताता है साथ ही साथ शक्ति का केंद्र वहां पर स्थापित है को भी बताता है।
यह हमे संस्थाओं के निर्माण का क्या प्रभाव रहा है तथा इनके क्या कार्य हैं? को भी जानने में मदद करता है तथा कोई भी राजनीतिक या सामाजिक निर्णय में विचारों का क्या योगदान रहा है को भी समझने में मदद करता है । ऐतिहासिक संस्थावाद को दो तत्वों से भी अच्छे से समझ सकते हैं:-
- Calculus
- Cultural
Calculus Approach
यह एक सामूहिक गणना है जिसमें हम यह गणना करते हैं कि किस में हमें सबसे ज्यादा लाभ मिलेगा। इसके अतिरिक्त यह हमें या भी समझाने में मदद करता है कि हमें इस चीज को चुनने से क्या दंड मिलेगा या मिल सकता है इसकी संभावना को बतलाता है ।
Cultural Approach
यह संस्कृति को अधिक महत्व देता है अर्थात इसके अंतर्गत लाभ, हानि को उतना महत्व नहीं दिया जाता है तथा संस्कृति को देखकर इसके आधार पर संस्थाओं का निर्माण किया जाता है। उदाहरण के लिए- यदि कोई धर्म पर आधारित किसी चीज का निर्माण होता है तो उस पर कोई आपत्ति नहीं उठती है लोग हर तरह से सम्मत होते हैं ।
2. तार्किक दृष्टिकोण
यह मुख्य रूप से 1970 के दशक में उभर कर सामने आया अर्थात इसे Deduction (निगमनात्मक) भी कहा जाता है। यह तार्किकता पर आधारित है । इसके अनुसार जो भी संस्था, सरकार बन कर आती है वह अपनी तार्किकता के आधार पर एजेंडा और मुद्दों की नियंत्रित करती है अर्थात सरकार तार्किकता के आधार पर निर्णय लेती है। वह प्रत्येक प्रस्ताव पर तर्क वितर्क करती है इस प्रकार जो भी बिल पेश किया जाता है उनमें से कुछ ही पारित हो पाता है ।
इसमें नियंत्रण अधिक होता है अर्थात संस्थाएं किसी ना किसी प्रकार के नियंत्रण में होती हैं। इसके अनुसार नियंत्रण होना आवश्यक भी है । इसके अतिरिक्त यह दृष्टिकोण व्यवहारवादी पद्धति का प्रयोग करता है और यह पता लगाता है कि किस प्रकार के नियम व नीतियां बनाई जाए जो लोगों की भलाई के लिए कार्यरत हो अर्थात यह पूर्ण तार्किकता पर आधारित होती है । इसके अनुसार मार्केट इकोनामी को समझने के लिए हम तार्किक चयन (Rational Choice) को अपना सकते हैं क्योंकि यह लोगों के व्यवहार से जुड़ा है ।
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3.समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण
यह मुख्यता ऑर्गनाइजेशन थ्योरी के समीप या निकट है अर्थात इसी के आधार पर इसका निर्माण होता है। इसके अनुसार तर्कशक्ति या तार्किकता के आधार पर संस्थाओं का निर्माण होता है । वेबर ने सरकार, नौकरशाही, कॉलेज, अस्पताल, आदि का गहन अध्ययन करने के पश्चात कहता है कि संस्थाओं का निर्माण नैतिकता और तर्कशक्ति के आधार पर हुआ है ।
इसी आधार पर सोशियोलॉजिकल इंस्टीट्यूशनलिज्म (समजशास्त्रीय संस्थावाद) का निर्माण होता है अर्थात यह सामाजिक और सांस्कृतिक के साथ भी जुड़ा है । इन संस्थाओं को वैधता जल्दी मिलती है क्योंकि यह समाज के कल्याण व सामाजिक कार्यों को पूरा करता है ।
निष्कर्ष
निष्कर्ष के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संस्थाएं बहुत प्रकार के होते हैं इनका अपना अलग-अलग महत्व रहा है अलग-अलग समय पर। परंतु वर्तमान में यह संस्थाएं व्यक्ति को नागरिक के रूप में ना देखकर एक उपभोक्ता के रूप में देखते हैं । अर्थात इसका अर्थ यह नहीं है कि जो पुरानी संस्थाएं हैं उनका अस्तित्व खो गया है या उनका महत्व काम हो गया है।