नव संस्थावाद क्या है? तुलनात्मक राजनीति में नव संस्थावाद का विस्तार

नव संस्थावाद का विस्तार

James g. March & Johan p. Olsen

परिचय

मार्च और ओल्सन द्वारा लिखित लेख Elaborating the New Institutionalism में संस्थावाद तथा नव संस्थावाद का व्यापक वर्णन किया गया है अर्थात संस्था बाद को समझने से पहले संस्था क्या है इसकी उत्पत्ति कैसे होती है आदि बातों को जानना आवश्यक है ।

संस्था

यह राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करता है तथा यह राज्य के विभिन्न अन्य संस्थाओं जैसे जाति, वर्ग, सरकार, का भी अध्ययन करता है । मुख्य रूप से यह नियमों और विनियमों का एक संचय है जो किसी समुदाय या समूह को वैधता प्रदान करता है ।

दूसरे शब्दों में संस्थाएं कुछ नियम और अधिनियमो का एक सेट होता है जो कि एक विशिष्ट प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करता है इनकी कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्न है जो अक्सर इन में पाए जाते हैं:-

Common purposeसामान्य उद्देश्य
Legitimityवैधता
Rulesनियम
Regulationsअधिनियम
Normsमूल्य
Practiceअभ्यास
Identitiesपहचान
संस्थाओ की महत्वपूर्ण विशेषताएं

इसके अतिरिक्त संस्थाओं के प्रमुख चार तत्व भी हैं जो इन की मुख्य विशेषता है इसे हम इस प्रकार से देख सकते हैं:-

1. Actors:-  यह संस्थाओं को शक्ति प्रदान करते हैं तथा उन्हें बाधित अनियंत्रित भी करते हैं. 

2. Authority:-  यह संस्थाओं की संरचना व सत्ता का निर्माण करती है तथा अधिकार भी प्रदान करती है साथ ही साथ समस्याओं के निवारण हेतु स्थितियों का निर्माण भी करती है ।

3. Legality:-  यह संस्थाओं का अनुकरण करती है। 

4. Morality:-  यह किसी भी संस्था का मुख्य घटक होता है। 

अतः अलग-अलग संस्थाओं की अपनी अलग अलग क्षमता होती है और उन्हीं के अनुसार वह अपना अनुकरण करते हैं तथा यह मानव के व्यवहार में हुए या ना हुए बदलाव को जानने व वर्गीकृत करने का प्रयास करता है ।

संस्थावाद

यह राजनीतिक संस्थानों के अध्ययन का सामान्य दृष्टिकोण दर्शाता है तथा या संस्थागत विशेषताओं राजनीतिक एजेंसि प्रदर्शन व बदलाव के संबंधों का एक सिद्धांत एक विचार है दूसरे शब्दों में इसके अंतर्गत संस्थाओं के मूल्य, नियमों, और अधिनियम,का सूत्रीकरण हो जाता है, राज्य और राज्य से जुड़े अन्य हिस्सों से जैसे- राजनीतिक दल और सरकार के अंग। 

इसके अतिरिक्त संस्थावाद का विकास प्रमुख रूप से तीन चरणों में हुआ है:-

  • निगमनात्मक 
  • विधि सम्मत 
  • विश्लेषणात्मक

संस्थाओं की उत्पत्ति

संस्थाओं का निर्माण या इनका उद्भव देश की घरेलू राजनीति से प्रभावित होकर बनते हैं अर्थात जब घरेलू राजनीति में कोई परिवर्तन होता है या मांग उठती है तो एक सामान्य उद्देश्य से संस्थाओं का निर्माण होता है । इसके अतिरिक्त सामाजिक मांगों की पूर्ति हेतु भी संस्थाओं का निर्माण होता है ।

संस्थाएं लोगों की मांग है ऐसा कहा जा सकता है तथा इन संस्थाओं के अतिरिक्त जो नियम, कानून, व निर्माण होता है। यह भी लोगों की मांग का परिणाम है तथा यही नियम व कानून संस्थाओं को वैधता प्रदान करते हैं । संस्थाएं वैचारिक करता द्वारा निर्मित होती हैं इनका निर्माण समाज की संस्कृति, तर्क, एकता, और परिस्थितियों के आधार पर होता है । इस प्रकार प्रत्येक देश की जरूरतों के हिसाब से व उनकी परिस्थिति, संस्कृति, के आधार पर संस्थाओं का निर्माण अलग-अलग हो सकता है ।

परिवर्तनशील और परिवर्तनकारी

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो संस्थाएं समाज व व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव लाते हैं साथ ही साथ यह परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित होते रहते हैं अर्थात संस्थाएं परिवर्तनशील व परिवर्तनकारी दोनों होती हैं। 

व्यक्ति संस्थावादी है

संसार में वर्तमान समय में कोई भी व्यक्ति अपने समाज में किसी भी संस्थान से अछूता नहीं रहा है अर्थात उसके जीवन का कुछ ना कुछ योगदान संस्थाओं के साथ अवश्य ही रहा है अर्थात यह कहना वांछनीय होगा कि प्रत्येक व्यक्ति संस्थावादी होता है जैसे कि

Pierson & Skocpol  का कहना है कि “we are all institutionalists now”

Palsby:-  यह विधायिका को दो तरह से देखता है:-

  • Arena Legislature-  यह बाहरी कारकों से प्रभावित होती है। 
  • Transformative legislature –  यह आंतरिक घरेलू कार्यों से प्रभावित होती है। 

समाज का प्रतिबिंब

समाज जिस प्रकार का है उसी प्रकार की संस्थाओं का निर्माण भी वहां होता है । यह समाज का प्रतिबिंब होता है जिसके अतिरिक्त समाज में जिस प्रकार की अभिव्यक्त होता है उसी तरह से संस्थाएं निर्मित होती हैं ।

 रूढ़िवादी समाज =  रूढ़िवादी संस्थाएं

इसके अतिरिक्त समाज जिस प्रकार के राजनीतिक व्यवहार करता है उस पर भी संस्थाएं आधारित होती हैं जैसे:-

  •  उदार
  •  हिंसा
  •  पूंजीवादी
  •  नियंत्रक
  •  समाजवादी

संस्थाएं राजनीति और सहभागिता

हम यह जानते हैं कि संस्थाएं मांग से बनती हैं तथा यह उसी के अनुरूप अपने आप को डालती हैं तथा समय के साथ-साथ यह परिवर्तित होती रही हैं और समाज की मांगों की पूर्ति होती रही है । राष्ट्र में जितनी प्रकार की संस्कृति होगी उतनी ही जटिल संस्थाएं होंगी जो भी संस्थाएं होती उनकी अपनी अलग भूमिका होती है तथा वह राष्ट्र के चरित्र का निर्माण करती हैं ।

समाज में जिस प्रकार का प्रभुत्व होगा उसी प्रकार की संस्थाओं का प्रभुत्व भी वहां होगा और उसी प्रकार के राष्ट्र के चरित्र का निर्माण भी होगा जैसे:- शिक्षा, स्वास्थ्य, समाजवाद, नागरिक शत्रुता। 

समाज में संस्थाओं का अत्यधिक योगदान होता है। संस्थाएं राजनीति और समुदाय में हमेशा बनते रहते हैं तथा समय के साथ इनका विघटन भी होता रहता है अर्थात संस्थाएं मनुष्य को उनके द्वारा बनाए गए नियमों और अनुशासन को मानने के लिए मजबूर करते हैं ।

लोकतांत्रिक राज्य में

यहां संस्थाओं की व्यापक भूमिका होती है यह लोगों के बीच वाद-विवाद तर्कशक्ति व विचारों के आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है टीवी, न्यूज़ समूह के माध्यम से साथ ही साथ यह लोगों की तर्कशक्ति की भी मजबूत करती है ।

संपूर्ण समाज में यह मानवीय भावना को यह बढ़ावा देता है तथा यह समाज के उद्देश्यों जैसे न्याय, समानता, अधिकार, आदि की पूर्ति के लिए भी अहम भूमिका निभाती है अर्थात यह समाज में बदलाव का प्रयास करती है यह प्रयास यह मुख्य रूप से दो तरीके से करती है:-

  1. गैर कानूनी:-  संस्थाएं बदलाव लाने के लिए कभी-कभी गैरकानूनी विधि का भी उपयोग करती है जिसका  समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और इसके कारण लोग विरोध करते हैं
  1. नियंत्रण:-  समाज में गैर कानूनी कार्य ना हो तथा संस्थाएं गैरकानूनी कार्य ना करें इसके लिए संस्थाएं व सरकार लगातार नियंत्रण बनाए रखती हैं ।

वे संस्थाएं जो अंतर्राष्ट्रीय सहभागिता में होती हैं उन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव अधिक होता है अर्थात जिस प्रकार से संस्थाओं पर दबाव पड़ता है उसी के हिसाब से उनमें बदलाव होता है:-

अधिक दबाव = ज्यादा बदलाव

कम दबाव = कम बदलाव

संस्थाओं पर दबाव के कारण इनकी नीतियां व नियमों में भी परिवर्तन व बदलाव होता रहता है, इसके चलते ही वे संस्थाएं जो किसी विशिष्ट कार्य के लिए निर्मित होती हैं वह धीरे-धीरे बहु वैकल्पिक बन जाती हैं और कई कार्य करने के लिए बाधित हो जाती हैं ।

यह भी पढ़ें:- नव संस्थावाद के विभिन्न दृष्टिकोण | एतिहासिक, तार्किक, समाजशास्त्रीय

चुनौतियां

संस्थाओं को चुनौतियां भी देखने को मिलती हैं इन्हें मुख्य रूप से सामाजिक आर्थिक राजनीतिक रूप में देखा जा सकता है। इस प्रकार जब संस्थाओं पर चुनौतियां आती हैं तो यह पुनः अपनी वैधता को बनाए रखने का प्रयास करती हैं अर्थात वह पुनः से जनता की मांग की पूर्ति का प्रयास करने का प्रयास करती हैं ताकि उसकी वैधता बनी रहे अन्यथा यह समाप्ति या फिर अन्य में परिवर्तित हो जाएंगी।

उदाहरण के लिए-  योजना आयोग जिसका निर्माण 1950 में हुआ लेकिन वर्तमान समय में 2015 में इसे नीति आयोग में परिवर्तित कर दिया गया क्योंकि योजना आयोग ने अपनी  वैधता  खो दिया था ।

अर्थात जब समाज में संस्थाओं की भूमिका कम होने लगती है तो वह या तो अडॉप्ट होती हैं या अन्य संस्थाओं के साथ मर्ज होती हैं या नई संस्थाओं में परिवर्तित होती हैं या फिर इस संदर्भ में निम्न कदम उठाए जाते हैं:-

  •  उनकी शक्तियां सीमित कर दी जाती हैं
  •  उनके कार्य सीमित कर दिए जाते हैं
  •  उनकी भूमिका सीमित कर दी जाती है

कल्याणकारी राज्य

अभी तक संस्थाएं कल्याणकारी राज्य को बनाए रखने का प्रयास कर रही थी। यह लोगों में न्याय, समानता, तथा लोगों की आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा कर रही थी परंतु धीरे-धीरे अब इनमें बदलाव आया है । प्रौधोगिकी, आधुनिकता आदि के कारण अब यह व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यक्ति को उपभोक्ता के रूप में देखता है ना कि एक नागरिक के रूप में इसे ही हम “नव संस्थावाद” कहते हैं। 

Similar Posts

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *