अराजक्तावाद

अराजक्तावाद का अर्थ | लक्षण व विचारक

 कट्टरतावाद का अर्थ

कट्टरतावाद शब्द को विभिन्न विद्वानों ने उनके एक तत्व अथवा दूसरे तत्व को ध्यान में रखते हुए बताने का प्रयास किया है। यही कारण है कि कटरतावाद धार्मिक भी है और गैर-धार्मिक भी। वैचारिक कट्टरतावाद को भी कट्टरतावाद का एक अन्य रूप कहा जा सकता है। हैवुड ने अपनी पुस्तक पोलिटिकल आइडीआलोजिस में कट्टरतावाद की परिभाषा इस प्रकार की है: “कट्टरतावाद आमल अथवा किसी मत के मौलिक सिद्धान्तों में विश्वास है, जो प्रबल प्रतिबद्धता से जुड़ा होता है तथा जिसका प्रतिबिम्ब उनके दुराग्राही उत्साह में दिखाई पड़ता है।”

इस परिभाषा से कट्टरतावाद में इस प्रकार के निहितार्थ निकाले जा सकते हैं:

  • आमूल मत अथवा उनके मौलिक नियमों में विश्वास
  • वह विश्वास प्रतिबद्धता का रूप धारण कर लेता है
  • प्रतिबद्धता दुराग्रह का रूप धारण कर लेती है

“मत” शब्द से मतलब विश्वास-क्रमों को स्वीकार करना होता है जो लगभग एक धर्म जैसा रूप धारण कर लेते हैं। यदि मत को एक धार्मिक अवधारणा के रूम में मान लिया जाए, तो धार्मिक कटटरतावाद का अर्थ है, उस धर्म के मूल सिद्धान्तों में विश्वास, उनके मौलिक सिद्धांतों में आस्था/ प्रतिबद्धता जो लगभग धर्मान्धता की सीमाओं को छ लेती है। इस दृष्टि से कोई भी धर्म धार्मिक कटटरतावाद का रूप ले सकता है: ईसाई, इस्लाम, हिन्दू आदि आदि।

एक धार्मिक व्यक्ति होना तथा एक कटटरतावादी होना एक बराबर नहीं है, क्योंकि धर्म कट्टरतावाद नहीं होता। धर्म में विश्वास का मतलब किसी धार्मिक कटटरतावाद में आस्था नहीं होती। धर्म का अर्थ है एक नैतिक व्यवस्था का अस्तित्व, एक उत्कृष्ट विश्वास, एक आध्यात्मिक लक्ष्य। कट्टरतावाद और विशेष रूप से धार्मिक रूप का कट्टरतावाद, धर्म का विलोम है; कटटरतावाद धर्म का शोषण है – कभी ‘चोरी-छिपे एवं सूक्ष्म तथा कभी मुक्त रूप से, यह दृष्टित भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति का अभद्र माध्यम है, जो धर्म को राजनीतिक/धर्मान्धात्मक प्रभुसत्ता में बदल देता है।

कटटरतावाद, पंथनिरपेक्षवाद, विवेकवाद, मानववाद तथा सहिष्णता का विरोध है। यह नागरिक समाज को अनेक टुकड़ों में बाँट देता है, जो एक दूसरे के विरुद्ध एक दूसरे पर प्रहार करने के लिए तत्पर रहते हैं तथा जो एक दूसरे के विपरीत घृणा का प्रचार करते हैं। एक कटरतावादी केवल अपने धर्म को नहीं करता। धर्म का एक वास्तविक अनुयायी कट्टरपंथी कभी नहीं होता। वस्तुतः कट्टरतावादी धर्मविरोधी होता है। एक धार्मिक कट्टरपंथी वह होता है, जो अपने धार्मिक समुदाय को सुव्यक्त तथा अन्यों से अलग समझता है। वह सामान्य हित को त्याग अपने हित को अधिक महत्व देता है। वह नागरिकों को व्यक्तियों के रूप में नहीं देखता/समझता, अपितु उन्हें अलग धार्मिक रूप में देखता है। नागरिकों को धार्मिक रूप से देखते हुए एक कटटरपंथी दूसरों को स्वयं से और स्वयं को दसरों से अलग कर लेता है।

 

कट्टरतावाद विश्वासों का एक प्रयोजन/व्यवस्था है। विचारधारा के विषय में भी ऐसा कुछ सत्य है। यदि कट्टरतावाद को विश्वासों की एक विचारधारा समझा जाए, यदि यह विश्वास-प्रयोजन/व्यवस्था है, तो यह विचारधारा-विश्वास भी है। इस दृष्टि से, यदि एक धार्मिक कट्टरतावाद है, तो कोई गैरधार्मिक कट्टरतावाद भी हो सकता है। उदाहरणार्थ, वैचारिक कट्टरतावाद। साम्यवाद, फासीवाद, उदारवार तथा उस दृष्टि से कोई भी विचारधारा एक विश्वास-व्यवस्था हो सकती है। इस रूप में प्रत्येक विचारधारा कुछ सीमा तक कटटरतावादी होती है। प्रत्येक विचारधारा में, विश्वास-आस्थाएँ होती हैं, नियमों का एक समूह होता है, संस्थायी तत्व होते हैं, अनुयायी होते हैं, जो अपनी आस्थाएँ प्रदर्शित करते हैं जैसा कि प्रत्येक धर्म में होता है, तथा ऐसे लोग भी होते हैं जो तत्पर कोई भी त्याग (प्राणाहुति) देने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसी सभी विशेषताएँ धार्मिक कट्टरतावाद में दिखाई देती हैं। कटटरतावाद सामान्यतः तथा अपेक्षाकृत विस्तृत रूप में एक विचारधारा अथवा विश्वास-व्यवस्था है, जिसकी ओर प्रतिबद्धता लगभग आस्था का मामला समझा जाता है – कथनी व करनी दोनों रूपों में।

कट्टरतावाद के मूल लक्षण

आज के संसार में यद्यपि कट्टरतावाद शब्द का प्रयोग अनेक बार किया जाता रहा है, परन्तु लोगों के विचारो में इसके अर्थ को स्पष्टता प्राप्त नहीं हो पायी है। कटटरतावाद शब्द का अर्थ भिन्न लोगों के लिए भिन्न रहा है। कभी-कभी इसका प्रयोग बिना किसी स्पष्ट अर्थ को सूझाए निन्दनीय रूप में किया जाता है। पहले पहले विभिन्न प्रकाशनों में “फण्डामैन्टलस” शब्द का प्रयोग 1909 में सयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ बताया जाता है। प्रारंभिक रूप से इस शब्द से जिस अर्थ का संकेत मिलता है वह यह है कि बाईबल अथवा किसी भी धर्म की पवित्र पस्तक में दिए गए विश्वास कभी गलत नहीं होते, क्योंकि यह सीधे ईश्वर की देन होते हैं। एक कटटरपंथी अपने सम्प्रदाय/धर्म अथवा विश्वास-आस्था व्यवस्था को अनिवार्य, यथेष्ट तथा पारलौकिक/पूर्णतः प्रमाणिक मानता है।

 

कटटरतावाद का एक मौलिक लक्षण यह है कि यह आमलता तथा उनके सुनिश्चित स्रोतो की ओर देखता है तथा उसे अपने शब्दों में ही व्याख्या करता है तथा इस तथ्य पर बल देता है कि व्याख्याकार जो व्याख्या कर रहा है, वह सही व्याख्या है। एक कटटरपंथी की स्थिति इस संदर्भ में यह होती है कि वह जो कह रहा है, वही सही व्याख्या है, अथवा स्रोत उसकी व्याख्या के साथ मेल खाता है; ऐसा व्यक्ति विपरीत व्याख्या को स्वीकार नहीं करता तथा जिसे वह सही मान रहा है, उसे बदलता भी नहीं है। अपने व्यवहार में, पंथनिरपेक्षी कभी समझौतावादी नहीं होता; अपने स्वरूप में, वह आक्रामक होता है; अपने विश्वास में, वह धर्मान्ध होता है। विचारधारा में भी कट्टरतावाद जैसी विशेषताएँ होती हैं एक हिटलरवादी हिटलरवादी ही होता है, चाहें कैसी भी परिस्थितियाँ हों; एक उदारवादी उदारवादी ही होता है, चाहे कुछ भी दाँव पर लगा हो; एक साम्यवादी साम्यवादी ही होता है, चाहे कितने ही लोभ-लालच दिए जाते रहें।

 

मत-उपासना सभी प्रकार के कट्टरतावाद का एक अन्य लक्षण है। एक कट्टरपंथी के सिद्धान्त से जुड़े विश्वास अप्रहारीय है। कट्टरतावाद के सिद्धान्त अनुल्लंघनीय, अलोप्य, आक्षरिक, निरंकुश तथा बाध्य हैं। एक कट्टरपंथी को पूर्ण विश्वास होता है कि उनके मूल सिद्धान्त सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान है, उसकी आस्था त्रुटिहीन है; उनके नियम सभी विचारधाराओं से अलग भी हैं तथा उनकी अपेक्षा विशेष भी हैं, तथा अन्य विचारधाराओं तथा दर्शनों के मुकाबले में सर्व-पूर्ण तथा अतुलनीय हैं। गांगुली लिखते हैं, “हम समझ सकते हैं कि संशोधनवाद साम्यवाद में क्यों एक गंभीर अपराध समझा जाता है तथा इस्लामी कट्टरतावाद में धर्म त्याग का दण्ड केवल मृत्युदण्ड ही है।”

कट्टरतावाद वार्ता की भाषा को नहीं जानता; केवल अधिरोपण की ज़बान समझता है। अपने मत को सही मानते हुए एक कट्टरपंथी समस्त समाज को उस मत को मानने पर बल देता है। कटटरपंथी वाद-विवाद में भाग लेने की बजाए हो रही वार्ता गोष्ठी पर नियंत्रण करते हैं और अनेक बार तो बलपूर्वक समाज तथा संसार पर अपने सिद्धान्त थौंपने हेतु दख़लान्दाज़ी भी करने में संकोच नहीं करते। स्कॉट विडस्टप (वाई द फण्डामैन्टालिस्ट अप्रोच टू रिलिजन मस्ट बी राँग) में कहते हैं: “यह तथ्य कि कट्टरपंथी सही हैं, बिना प्रश्न किए उनके मन में यह सिद्ध कर देता है कि यदि आवश्यक हो, तो वह बल द्वारा भी अपना मत दूसरों पर थौंप सकते हैं।”

 

कट्टरतावाद का अपना ही मत होता है, भले धर्म हो न हो। यह राजनीतिक कानून के रूप में कड़े से कड़े नियम थौंपते हैं। खुमैनी के ईरान में शरिया ही वहाँ का कानून था; तालिबॉन के अफगानिस्तान में भी कुछ ऐसे ही कानून थे, जर्मनी में हिटलर का शब्द, इटली में मुसोलिनी का शब्द अथवा पूर्व सोवियत संघ में स्टालिन का शब्द ही कानून समझा जाता था। धार्मिक कट्टरतावाद की बात करते एक मॉरमॉन नेता ने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि एक कट्टरपंथी (धार्मिक एवं गैर-धार्मिक) कुछ ऐसे शब्द कहता है: “सोचना तुम्हारा काम नहीं है, सोच तो पहले ही कर ली गयी है।” एक कट्टरपंथी कभी भी श्रोता नहीं होता, वे तो जन्म से वक्ता होता है।

 

उग्रता कट्टरतावाद का एक अन्य लक्षण है, जबकि धर्म से जुड़ा एक कट्टरपंथी ईश्वर के नाम की बात करता है, वह स्वयं ऐसे व्यवहार करता है, मानो ईश्वर की कोई शक्ति है ही नहीं, वह स्वयं समानता की बात पूरे ज़ोर तरीके से चिल्लाते हुए करता है, परन्तु अपने स्वभाव/स्वरूप में वह पितृवादी बन जाता है; वह दावा करता है कि समस्त जीवन आस्था व विश्वास पर आधारित होता है, परन्तु वह समस्त विज्ञान को मूलत घोषित करता है; वह आदर्शों के प्रति लफाज़ी गुणगान गाता है, परन्तु व्यवहार में वह उन का तिरस्कार करता है तथा अनेक बार निजी रूप में उन आदर्शों की अवमानना करता है। वह धर्म/विचारधारा के साथ खिलवाड़ करता है, भले ही वह उनके लिए जीने-मरने का कोई भी दावा क्यों न करता फिरे।

 

कट्टरतावाद का कोई आधार नहीं होता, अर्थात् वह बिना आधार के होता है। वह निष्कर्ष से आरंभ करता है और बाद में निष्कर्षों के लिए तर्कों व समर्थनों को तलाशता है, और यदि कट्टरपंथी को ऐसे तर्क/समर्थन नहीं मिलते, तो वह उन्हें पैदा करता है। कट्टरतावाद साक्ष्यहीन प्रयास हैं। इस प्रकार की शैली/पद्धति ईसाई धर्म तक ही सीमित नहीं है, अपितु अन्य धर्मों में भी ऐसी ही कार्य-पद्धति देखी जा सकती है। ईसाई कट्टरपंथी उतना ही गैर-वैज्ञानिक होता है, जितने कि इस्लामिक, हिन्दू तथा अन्य कट्टरपंथी। कट्टरतावाद अज्ञानता/अनभिज्ञता को प्रोत्साहित करता है। यह “क्यों” शब्द अर्थात् प्रश्न पूछने की बात की आज्ञा नहीं देता। मार्क्स के अनुयायी (स्वयं मार्क्स के जीवन का शीर्ष वाक्य थाः ‘प्रत्येक तथ्य को चुनौती दी’) दूसरों को इस प्रकार की रियायत नहीं देते, स्वयं मार्क्सवादियों को भी नहीं।

बिडस्ट्रप लिखते हैं, ” कट्टरतावाद अपने अनुयायियों के मस्तिष्कों में पूर्वाग्र कटटरपन, असहनशीलता तथा घृणा भरता है।” वे आगे कहते हैं, “किसी भी प्रकार का कट्टरतावाद प्रगति नहीं होता अपितु प्रगति का अवरोधक होता है।”

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