वैश्विक न्याय

वैश्विक न्याय क्या है | वैश्विक न्याय पर रॉल्स के विचार | वैश्विक न्याय पर अमृत्यसेन के विचार | DU notes


वैश्विक न्याय राजनीतिक सिद्धान्तों में एक ऐसा मुद्दा है जो इस धारणा पर आधारित है कि ‘हम – एक न्यायपूर्ण संसार में नहीं रहते।’ (We do not live in a just world)। इस समय संसार में अधिकतर लोग अत्यधिक गरीब है जबकि अन्य अत्यधिक समृद्ध। कई अभी भी तानाशाही शासकों के अन्तर्गत जी रहे हैं। अनगिनत लोग हिंसा, बीमारी तथा भुखमरी के शिकार है। कई अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते है। अत: मूल प्रश्न यह है-इस प्रकार के तथ्यों को हम किस प्रकार समझे या इन पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें। इस विश्व में रहने वाले लोग एक दूसरे के प्रति यदि ऋणी है(यदि वे है तो), तो इस सम्पूर्ण विश्व में हमे किस प्रकार की संस्थाएँ तथा नैतिक मानदंड . स्वीकार करने चाहिए तथा कार्यान्वित करने चाहिए। 

वैश्विक न्याय
वैश्विक न्याय

वैश्विक न्याय क्या है 

आधुनिक युग के आरम्भ से लेकर 20वीं शताब्दी तक राष्ट्र-राज्य एक प्रधान राजनीतिक तथा प्रभुसत्ताधारी संस्था रहा है जो एक निश्चित भूमि पर रहने वाले लोगों पर शक्ति के वैध प्रयोग काई एकाधिकार रखता है। साथ ही यह अन्य प्रभुसत्ताधारी राज्यों पर आधारित एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का भाग है। इस सम्पूर्ण अवधि में न्याय की धारणा में रूचि रखने वाले राजनीतिक दार्शनिकों ने अनन्य रूप से केवल राष्ट्र के अन्दर राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित किया-अर्थात् राज्य को अपने नागरिकों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए और नागरिकों का परस्पर सम्बन्ध क्या तथा कैसा होना चाहिए। 

परस्पर प्रभुसत्ताधारी राज्यों के बीच अथवा अपनी सीमाओं से पारं, व्यक्तियों के बीच न्याय एक गौण विषय था जिसे उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्तकारों के लिए छोड़ दिया। तथापि पिछले तीन दशकों में, वैश्वीकरण के उदय तथा कई पराराष्ट्रीय राजनीतिक तथा आर्थिक संस्थाओं जैसे संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन में तथा कई विविध अन्तर्राष्ट्रीय निगमों एवम् गैर-सरकारी संगठनों के परिणामस्वरूप राष्ट्र-राज्य पर आधारित राष्ट्र-व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया से गजर रही है। परिणामस्वरूप, विशेषकर 1980 के । बाद वैश्विक न्याय समकालनि राजनीतिक दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया है।

वैश्विक न्याय में मुद्दे (Issues in Global Justice)

वैश्विक न्याय की धारणा तीन सम्बन्धित मुद्दों के इर्दर्गिद घूमती है जो निम्नलिखित हैं :

1. पहला मुद्दा वैश्विक न्याय का कार्यक्षेत्र है अर्थात् जैसा की नैतिक मुक्तिवादी (moral universalists) दावा करते है, क्या कोई ऐसे नैतिक मानदंड हैं जो विश्व के सभी लोगों पर उनकी र संस्कृति, लिंग, धर्म, राष्ट्रीयता अथवा अन्य विशिष्ट तत्त्वों की परवाह किये विना लागू किये जा सकें या क्या ये नैतिक मानदंड केवल संस्कृति, राष्ट्र-समुदाय अथवा ऐच्छिक समुदायों के सीमित सन्दभों के अन्तर्गत लागू होते हैं

2. दूसरा मुद्दा वितरणात्मक न्याय से सम्बन्धित है। उदाहरण के लिए 1.1 अरब से अधिक लोग अर्थात् सम्पूर्ण मानव जनसंख्या का 18%. भाग- विश्व बैंक द्वारा निर्धारित 2 डालर प्रतिदिन को में गरीबी की रेखा से नीचे रहते है जबकि कनाडा की सरकार अपने किसानों को पशुओं के चारे के लिए तीन डालर प्रतिदिन देती है। अर्थात् कनाडा के पशुओं का खान-पान तृतीय विश्व में रहने वाले के लोगों से कही बेहतर है। 

अत: यहाँ पर गम्भीर सवाल है: क्या धन; सम्पदा एवम् संसाधनों का वर्तमान वितरण न्यायोचित है ? गरीबी के मूल कारण क्या है और क्या वैश्विक अर्थव्यवस्था में कोई अन्तर्निहित दोष है ? गरीबों की सहायता करना क्या अमीरों का कर्तव्य है या यह केवल एक दान अथवा परोपकार तक सीमित है जिसकी प्रशंसा की जा सकती है परंतु जो नैतिक दृष्टिकोण से जरूरी : नहीं और यदि गरीबों की सहायता करनी भी है तो कितनी, किस सीमा तक-

(i) इतनी कि वे .. अपनी मौलिक जरूरतों को पूरा कर सकें, या

(ii) इतनी कि वे एक मानव के रूप में सम्मानपूर्वक जिन्दगी जी सकें या,

(iii) उतनी देर तक ज़ब तक वे अमीरों के बराबर न आ जायें?

 3. वैश्विक न्याय के आदर्श को प्राप्त करने के लिए कौन सी संस्थाएँ उत्तम होगी-क्या वे राज्य हैं, या समुदाय, या संघीय इकाईया, वैश्विक वित्तीय संस्थाएँ जैसे विश्व बैक, अन्तर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन, बहुराष्ट्रीय निगम, अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय या एक विश्व राज्य? ये हमारा समर्थन किस प्रकार प्राप्त करेगें तथा इन संस्थाओं कि स्थापना तथा रख-रखाव की जिम्मेवारी किसकी होगी ? 

भिन्न क्षेत्रीय इकाईयों के बीच इन संस्थाओं का आदान प्रदान कितना सहज होगा?  

वैश्वीकरण की सबसे बड़ी चुनौती नैतिक है अर्थात् वया पश्चिमी के समृद्ध देशों को अविकसित और विकासशील देशों के उपेक्षित वर्गों, परम्पराओं एवम् संस्कृतियों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनके साथ इनका अपना भविष्य अभिन्न तरीके से जुड़ा हुआ है या इन्हें केवल इनके प्राकृतिक एवम् मानवीय संसाधनों के दोहन तक सीमित रहना चाहिए।

ये विकल्प वृहत वैश्विक न्याय (global justice) का प्रश्न खड़ा करते हैं। अभी तक न्याय, स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे विषय निश्चित भूमि के अंदर राष्ट्र-राज्यों के अधिकार क्षेत्र में थे। परंतु वैश्वीकरण की धारणा ने इन परम्परागत मान्यताओं को मूलभूत चुनौती दी है।

वैश्विक न्याय पर भिन्न दृष्टिकोण (Positions on Global Justice)

वैश्विक न्याय का मूल मुद्दा जिस पर विचार करना अनिवार्य है, वह है- वैश्विक न्याय की परियोजना अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कितनी सम्भव है ? इस संदर्भ में पाँच प्रमुख दृष्टिकोण पहचाने जा सकते है। ये हैं : राष्ट्रवाद (Nationalism), यथार्थवाद (Realism), विशिष्टवाद (Particularism), राज्यों का समाज परम्परा (Society of States Tradition) तथा विश्वबधुत्त्व (Cosmopolitanism).

राष्ट्रवादियों, जैसे डेविड मिल्लर, का तर्क है कि वांछित परस्पर उत्तरदायित्त्व की परम्परा एक विशेष प्रकार के मूल्यवान समुदाय अर्थात् राष्ट्र द्वारा निर्मित की जाती है। विश्व के किसी कोने में दु:खी लांगों की सहायता करने का हमारा एक मानवीय कर्त्तव्य हो सकता है परंतु ये कर्तव्य हमारे अपने देश के नागरिकों की तुलना में अपेक्षाकृत कम तात्कालिक , कठोर तथा अनिवार्य होते है। 

राष्ट्रवाद में प्रारम्भं से ही यह भावना अन्तर्निहित रही है कि राष्ट्र के अन्दर तथा राष्ट्र से बाहर के नैतिक कर्तव्यों में मौलिक अन्तर होता है जिसका उदाहरण इस तथ्य में प्रतिबिम्बित होता है कि किसी राज्य विशेष के कल्याणकारी लाभ राज्य की सीमाओं से परे के लोगों को उपलब्ध नहीं होते। इनका मानना है कि वितरणात्मक न्याय का मुद्दा राष्ट्र के अन्दर रहने वाले लोगों के संदर्भ में होता है, राज्यों के बीच नहीं।

दूसरा, मोरगेन्थ्य, कैनेथ वैज़ जैसे यथार्थवादी का तर्क है कि वैश्विक न्यायिक मानदंड जैसी कोई धारणा नहीं है तथा नैतिक सर्वत्रवाद जैसी धारणा भी एक मिथ्या है। अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता के इस युग में केवल राज्य ही एक प्रमुख खिलाड़ी है जो हमेशा अपने हितों की रक्षा के लिए कार्य करते है और करना चाहिए। किन्हीं गरीब देशों के लोगों की सहायता करना कोई कर्त्तव्य नहीं है जब तक कि यह सहायता किसी राष्ट्र के सामरिक हित को आगे न बढाती हो।

तीसरा, विशिष्टवाद (उदाहरण के लिये वालजर) का मानना है कि किसी भी प्रकार के नैतिक समानदंड सांझी परम्पराओं एवम् मूल्यों में से निकलते हैं जो किन्हीं विशेष संस्कृति अथवा समाज द्वारा निर्मित तथा सम्पोषित किये जाते है। नैतिक तथा सामाजिक आलोचना भी ऐसे समूहों की सीमाओं के भीतर ही सम्भव है, इनसे बाहर नहीं। 

प्रत्येक समाज के अपने भिन्न-मानदंड होते है और केवल उस समाज में रहने वाले लोग ही इन के प्रति बाध्य होते है और स्वयम् की सही तरीके की आलोचना भी कर सकते है। अत: नैतिक सर्वत्रवाद एक झूठी धारणा है क्योंकि विविध समाजों एवम् संस्कृतियों के निष्पक्ष नैतिक मानदंड भिन्न होते है।

हम अजनबियों के साथ वितरण के वे मानदंड नहीं अपना सकते जो हम अपने लोगों/नागरिकों के साथ अपनाते है। तथा राष्ट्र राज्य, जो लोगों की साझी तथा विशिष्ट नैतिक समझबूझ की अभिव्यक्ति करता है, स्थानीय एवम् विषम न्याय प्रदान करने की उपयुक्त संस्था है। 

हालांकि समुदायवादी वैश्विक असमानता को समाप्त करने के विरोधी नहीं है परंतु वे किसी ऐसे कानूनी तथा राजनीतिक सुधार को आवश्यक नहीं समझते जहाँ प्रत्येक वर्ष 18 मिलियन लोग भूखमरी के कारण अपनी जान गंवाते हों।

चौथा, राज्यों की समाज परम्परा में राज्यों को एक विशिष्ट व्यक्तिगत इकाई के रूप में देखा जाता है जो अपने सांझे हितों तथा अन्तर्सम्बन्धों, नैतिक नियमों समेत, पर परस्पर सहमति जुटा सकते है वैसे ही जैसे व्यक्ति बनाम व्यक्ति आपस में करते है। विभिन्न अभिजनों के बीच सहमति को सामाजिक समझौते के माध्यम से औपचारिक रूप दिया जाता है। 

इस परम्परा के मुख्य समर्थक रॉल्स है जिसने अपनी पुस्तक The Law of Peoples में वैश्विक न्याय की धारणा का अपनी पहली में पुस्तक The Theory of Justice से आगे विस्तार किया है। उसका तर्क है कि हम एक वैश्विक प्रशासन को उचित ठहरा सकते है, यह दिखा कर कि यह विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों द्वारा एक ऐसी काल्पनिक मूल अवस्था (imagined original position) में चुना जायेगा जिसमें किसी को यह नहीं पता होगा कि वह किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है। 

अनभिज्ञता के आधार पर लिया गया यह निर्णय उचित होगा क्योंकि इसमें किसी प्रकार के स्वार्थी पूवाग्रहों का अभाव है। जब रॉल्स ने इस मॉडल को घरेलू न्याय के संदर्भ में अपनाया तो उसमे मूल अवस्था में भाग लेने वाले प्रतिनिधि एक समाज के सभी सदस्य थे तथा जिसमें उसने एक समतावादी पुनः वितरणात्मक उदारवाद राजनीति का समर्थन किया। तथापि रॉल्स जब इस तरीके को वैश्विक न्याय के स्तर पर अपनाता । है तो यह एक परम्परागत सिद्धांत, (कान्त की अन्तराष्ट्रीय नैतिकता की धारणा) का समर्थन करता है जिसमें राज्यों का प्रमुख कर्तव्य सन्धियों का पालन करना तथा युद्ध पर कड़ी सीमाय लगाना ।

पाचंवा, विश्वबधुत्त्व (Cosmopolitanism) के समर्थकों को तर्क है कि नैतिक सर्वत्रवाद की ‘धारणा काफी हद तक सत्य है। सभी लोग केवल एक दूसरे के सगी साथी अथवा हमवतन होने का के कारण ही नहीं बल्कि एक मानव होने के नाते व्यापक न्याय की धारणा के अन्तर्गत आते है। इनका तर्क इस प्रकार है:

(i) व्यक्तियों की नैतिक स्थिति कुछ एक नैतिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण विशेषताओं पर आधारित होती है

(ii) यह विशेषताएँ सम्पूर्ण मानव जाति की सांझी है, ये केवल कुछ एक राष्ट्रों, संस्कृति, समाज अथवा राज्य का एकाधिकार नहीं है।

(iii) अत: सम्पूर्ण मानव जाति एक नैतिक स्थिति की धारक है, और इस संदर्भ में राष्ट्रों, संस्कृतियों, समाजों तथा राज्यों में सीमायें निश्चित करना नैतिक दृष्टिकोण से बेफालत है।

वैश्विक न्याय पर रॉल्स के विचार (Rawls’ Views on Global Justice)

रॉल्स की पुस्तक The Law of Peoples अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर लिखी गई पुस्तक है। इस पुस्तक में रॉल्स ने प्रत्यन किया है कि न्याय की उदारवादी धारणा में से राज्यों के बीच न्याय की विषयवस्तु को किस प्रकार निकाला जा सकता है जो निष्पक्ष न्याय (Justice of Fairness) जैसी – ही हो परन्तु उससे थोड़ी अधिक व्यापक हो। जिस प्रकार राष्ट्रीय न्याय के स्तर पर समझौते के – भागीदार नागरिक है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ये पात्र विभिन्न राज्य हैं जिन्हें राज्यों के समाज (Society of Peoples) का नाम दिया गया है। यद्यपि The Law of Peoples  मूलत: उदारवादी – विदेश नीति को एक अंग है परंतु इसमें जिन लोगों (राज्यों) की रॉल्स चर्चा करता है, वे सभी उदारवादी नहीं है।

“लोगों (राज्यों) के ये प्रतिनिधि अनभिज्ञता के पर्दे के पीछे है तथा वे उस देश की विशिष्ट परिस्थितियों के बारे में कुछ नहीं जानते जिनका वे प्रतिनिधित्व कर रहे है। उदाहरण के लिए, ये प्रतिनिधि नहीं जानते कि जिस देश का वे प्रतिनिधित्त्व कर रहे है, उसका आकार, जनसंख्या, औद्योगिक तथा सैनिक शक्ति आदि क्या है। -The Law of Peoples से रॉल्स का अभिप्राय है अधिकारों तथा न्याय की एक विशिष्ट राजनीतिक धारणा जो अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा व्यवहार के नियमों तथा आदर्शों पर लागू होती है। 

न्याय की इस राजनीतिक धारणा को मूल स्थिति के माध्यम से प्राप्त किया जाता है अर्थात् एक काल्पनिक प्रबन्ध द्वारा जहाँ प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधि कुछ ऐसे नियम निश्चित करने के उद्देश्य से इकटें होते है जो उनके संगठन की शता को शासित करणार इस प्रक्रिया में से निकले नियम Law of Peoples की विषयमची हाँग। ये नियम मुख्यत आठ है।

1. लोग (अपनी सरकारों द्वारा शासित) स्वतंत्रत एवम स्वायत्त है तथा उनकी स्वतंत्रता एवम् स्वायत्तता का दूसरी लोगों द्वारा सम्मान किया जाना आवश्यक है।

2. अपने समझौतों में सभी लोग समान तथा भागीदार है।

3. लोगों को आत्म रक्षा का अधिकार है परंतु युद्ध का कोई अधिकार नहीं है,

4. लोगों को अहस्तक्षेप के कर्तव्य का पालन करना होगा।

5. लोगों को समझौतो तथा संधियों का पालन करना होगा।

6. युद्ध के संचालन के संदर्भ में लोगों को कुछ विशिष्ट प्रतिबन्धों का पालन करना होगा (अर्थात् यह केवल आत्म रक्षी के लिए ही लड़ा जा सकता है|

7. लोगों को मानव अधिकारों का सम्मान करना होगा।

8. लोगों को ऐसे अन्य लोगों की सहायता करना कर्तव्य होगा जो ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में रह रहे है जो उनके एक न्यायपूर्ण तथा सम्मानजनक राजनीतिक तथा सामाजिक शासन प्राप्त करने के प्रयल में बाधा डाल रही है।

वैश्विक न्याय पर अमृत्यसेन के विचार (Amartiya Sen on Global Justice)

अमृत्यसेन के अनुसार वैश्वीकरण के लाभ और हानियों पर चिन्तन करते समय न्याय की आवश्यकता के बारे में सोचना अनिवार्य हैं। इस तर्क के कई कारण दिये जा सकते हैं कि वैश्वीकरण एक उत्तम उद्देश्य है परन्तु इसके बारे में संसार में बहुत से लोगों के संदेह दूर करना काफी कठिन है कि यह उनके लिए वरदान है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वैश्वीकरण एक गलत उद्देश्य है परन्तु इसका अर्थ है कि इसमें ऐसे संशोधन किये जायें कि यह सबको अच्छा लगे। न्याय का मूल आधार है संसाधनों का उचित वितरण (fair distribution of resources)।

अत: वैश्वीकरण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण संवाल है कि क्या वैश्वीकरण के लाभों का वितरण उचित अथवा स्वीकार्य हुआ है, न कि इससे सभी भागीदारों को कुछ न कुछ लाभ हुआ है। दूसरो शब्दों में, प्रश्न यह है। कि क्या आर्थिक ; सामाजिक एवम् राजनीतिक अवसरों के अपेक्षाकृत कम असमान वितरण द्वारा उन्हें अपेक्षाकृत उचित न्याय प्राप्त हो सकता है और यदि ऐसा है तो इसके लिए राष्ट्रीय एवम् अन्तर्राष्ट्रीय प्रबंध क्या होंगे। असली मुद्दा यह है। 

वैश्वीकरण के संदर्भ में एक संशोधित वैश्विक व्यवस्था का प्रयत्न होना चाहिए अपेक्षाकृत उचित न्याय तथा अवसरों का और अधिक उचित वितरण। रॉल्स के विपरीत, अमृत्यसेन वैश्वीकरण की वर्तमान विचारधारा में परिवर्तन करके वैश्विक पुन:वितरित न्याय की बात करता है। हालांकि वह नव-उदारवादी विश्व बाजार अर्थव्यवस्था के पक्ष में नहीं है, तथापि उसकाmमानना है. कि हल इस बाजार अर्थव्यवस्था को समाप्त करने में नहीं है।

वास्तव में यह बाजार अर्थव्यवस्था कई प्रकार के समानान्तर स्वामित्व के पैटर्न, संसाधन उपलब्धियों सामाजिक अवसरों तथा पेटेन्ट कानून एवम् ट्रस्ट विरोधी नियमों आदि के साथ भी संभव है। ऐसी नई परिस्थितियों पर निर्भर करते हुए बाजार अर्थव्यवस्था भिन्न कीमतें, व्यापार के स्वरूप, आय। ‘वितरण तथा व्यापक स्तर पर भिन्न परिणाम पैदा कर सकती है। परन्तु इसमें जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व जोड़ना आवश्यक है, वह है सामाजिक सुरक्षा। बाजार अर्थव्यवस्था में संशोधन और सामाजिक सरक्षा दोनों मिलकर असमानता तथा गरीबी के वर्तमान स्तरों में काफी कमी ला सकते है|

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