संविधान की विशेषताएँ | Features of indian constitution
भारत का संविधान अनेक दृष्टि से एक अनूठा संविधान है। उसकी अनेक विशेषताएं हैं जो विश्व के अन्य संविधान उसे अलग उसकी पहचान बनाती है। भारतीय संविधान की विशेषताओं की यदि बात की जाए तो इसे निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है:-
संसदीय तथा अध्यक्षयी प्रणाली
भारत एक गणराज्य है। उसका अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है उसी में सभी कार्यपालक शक्तियां निहित होती हैं तथा उसी के नाम से इनका प्रयोग किया जाता है। वह सशस्त्र बलों का सर्वोच्च कमांडर भी होता है। किंतु यह मान्यता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के विपरीत हमारा राष्ट्रपति कार्यपालिका का केवल नाम मात्र का या संवैधानिक अध्यक्ष होता है। वह यथार्थ राजनीतिक कार्यपालिका यानी मंत्रिपरिषद की सहायता तथा उसके परामर्श से ही कार्य करता है। मंत्री सामूहिक रूप से संसद के सीधे जन निर्वाचित सदन अर्थात लोकसभा के प्रति उत्तरदाई होते हैं। भारत के संविधान में बुनियादी तौर पर संघ तथा राज्य दोनों स्तरों पर संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है जिसमें मंत्री गण सीधे जन निर्वाचित सदन के प्रति उत्तरदाई होते हैं.
संसदीय प्रभुत्व बनाम न्यायिक सर्वोच्चता
ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में संसद सर्वोच्च तथा संप्रभुता संपन्न है। इसकी शक्तियां शक्तियों पर कम से कम सिद्धांत रूप में कोई रोक नहीं है क्योंकि वहां पर कोई लिखित संविधान नहीं है और न्यायपालिका को विधान का न्यायिक पुनरीक्षण करने का कोई अधिकार नहीं है।
अमेरिकी प्रणाली में उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च है क्योंकि उसे न्यायिक पुनरीक्षण तथा संविधान के निर्वाचन की शक्ति
प्राप्त है। भारत में संविधान ने मध्य मार्ग अपनाया है। उसने ब्रिटिश संसद की प्रभुत्व और अमेरिकी न्यायिक सर्वोच्चता के बीच समझौता किया है। हम विधि के शासन से शासित होते हैं और किसी भी प्रशासनिक कृतिका न्यायिक पुनरीक्षण विधि के शासन का अनिवार्य अंग है।
वयस्क मताधिकार
डॉक्टर अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि संसदीय प्रणाली से हमारा अभिप्राय एक व्यक्ति एक वोट से है। संविधान निर्माताओं ने निष्ठा पूर्वक कार्य करते हुए वयस्क मताधिकार की पद्धति को अपनाने का निर्णय किया जिसमें प्रत्येक वयस्क भारतीय को बिना किसी भेदभाव के मतदान के समान अधिकार तुरंत प्राप्त हो। अधिकांश भारतीय जनता गरीब तथा अनपढ़ थी। इस संदर्भ में यह निर्णय विशेष रूप से उल्लेखनीय था। पश्चिम के लोकतंत्र में मताधिकार धीरे-धीरे ही दिया गया था।
मूल अधिकारों का घोषणा पत्र
हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के नेताओं की सबसे बड़ी बुनियादी मांग यह थी कि लोगों को स्वतंत्रता, समानता आदि के कुछ मूलभूत मानव अधिकार मिले। अल्पसंख्यकों की समस्याओं ने संविधान के मूल पाठ में ही कतिपय वाद योग्य अथवा न्यायालय द्वारा लागू कराए जा सकने वाले मूल अधिकारों की औपचारिक घोषणा किए जाने की जरूरत पर बल दिया। मोटे तौर पर संविधान के भाग 3 में जो मूल अधिकार शामिल किए गए हैं वह राज्य के विरुद्ध व्यक्ति के ऐसे अधिकार हैं जिनका अतिक्रमण नहीं हो सकता।
नीति निर्देशक तत्व
आयरलैंड के दृष्टांत से प्रेरित होकर तैयार किए गए राज्य नीति के निर्देशक तत्व हमारे संविधान की एक अनूठी विशेषता है। लोगों के अधिकांश सामाजिक आर्थिक अधिकार इस शीर्षक के अंतर्गत सम्मिलित किए गए हैं। हालांकि कहा जाता है कि इन्हें न्यायालय में लागू नहीं किया जा सकता फिर भी इन तत्वों से देश के शासन के लिए मार्गदर्शन की आशा की जाती है। वे संविधान निर्माताओं द्वारा राज्य के समक्ष रखे गए आदर्शों के रूप में हैं और राज्य के सभी अंगों को उनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। ना केवल विधान मंडलों की बल्कि न्यायालयों की नजर में भी निर्देशक तत्वों की प्रसंगिकता तथा महत्व बराबर बढ़ती गई है
नागरिकता
संविधान निर्माताओं ने एक एकीकृत भारतीय बंधुत्व तथा एक अखंड राष्ट्र का निर्माण करने के अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए संघीय संरचना होने के बावजूद केवल इकहरी नागरिकता का उपबंध रखा। अमेरिका के विपरीत संघ तथा राज्यों के लिए कोई प्रथम नागरिकता नहीं रखी गई है और समूचे देश में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के एक से अधिकार प्राप्त कराए गए हैं।
मूल कर्तव्य
संविधान के 42 वें संशोधन के द्वारा अन्य बातों के साथ-साथ मूल कर्तव्य शीर्षक के अंतर्गत संविधान में एक नया भाग जोड़ा गया। इसमें भारत के सभी नागरिकों के लिए 11 कर्तव्यों की एक संहिता निर्धारित की गई है।
स्वतंत्र न्यायपालिका
भारत के संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। उसे न्यायिक पुनरीक्षण की शक्तियां प्रदान की गई है उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय एक ही एकत्रित न्यायिक संरचना के अंग हैं और उसका अधिकार क्षेत्र सभी विधियों यानी संघ, राज्य, सिविल, दांडिक या संवैधानिक विधियों पर होता है।
निष्कर्ष
भारत का संविधान एक सर्वाधिक व्यापक दस्तावेज है। या अनेक दृष्टि उसे अनूठा है इसे किसी खास सांचे ढांचे में या मॉडल में फिट नहीं किया जा सकता। यहां परिसंघ यह तथा एकात्मक और अध्यक्षयी तथा संसदीय रूपों का मिश्रण है। इसमें प्रयास किया गया है कि एक और व्यक्तियों के मूल अधिकारों और दूसरी ओर जनता के सामाजिक आर्थिक हितों तथा राज्य की सुरक्षा के बीच संतुलन बना रहे। इसके अलावा यह संसदीय प्रभुत्व तथा न्यायिक सर्वोच्चता के सिद्धांत के बीच एक मध्य मार्ग प्रस्तुत करता है।