न्याय , प्रक्रियात्मक न्याय क्या है | जॉन रॉल्स का न्याय-सिद्धांत
न्याय का अर्थ
न्याय की अवधारणा संबंधी किसी भी चर्चा में उसके बहु-आयामी स्वभाव का ध्यान रखना पड़ता है। न्याय क्या है’ का जवाब सिर्फ उन मापदण्डों (मूल्यों) का संकेत करके ही दिया जा सकता है, जिनके सहारे मनुष्य ने न्याय के बारे में सोचा और सोचता रहेगा। यह वक्त गुजरने के साथ ही बदल जाता है।
इस प्रकार, अतीत में जो न्याय था, वर्तमान में अन्याय हो सकता है तथा वर्तमान में जो न्याय है, अतीत में अन्याय रहा हो सकता है। तदनुसार, न्याय का समतावादी बोध रहा है जिसमें उच्चतम स्थान समानता के मूल्य को दिया जाता है, ‘इच्छास्वातंत्र्यवादी’ बोध रहा है जिसमें स्वतंत्रता ही परम मूल्य होता है; ‘क्रांतिकारी’ दृष्टिकोण जिसमें न्याय का मतलब है कायापलट कर देना; ‘दैवी’ दृष्टिकोण जिसमें ईश्वर की इच्छा का निष्पादन ही न्याय है; सुखवादी’ न्याय की कसौटी ‘अधिकतम संख्या का अधिकतम लाभ’ को बनाता है; समन्वयक’ के लिए न्याय पर्याप्त संतुलन लाने हेतु विभिन्न मूल सिद्धांतों व मूल्य का समन्वय करना है।
कुछ लोग न्याय को कर्तव्य’ अथवा शान्ति व व्यवस्था कायम रखने के साथ पहचानते हैं; दूसरे, इसे एक अभिजात-वर्गवादी कार्य के रूप में देखते हैं; इस प्रकार, न्याय व्यक्ति के अधिकार के साथ-साथ समाज की सार्वजनिक शांति से भी संबंध रखता है।
प्रक्रियात्मक न्याय
न्याय संबंधी एक अपेक्षाकृत अधिक अनुदार दृष्टिकोण वह है, जिसे ‘प्रक्रियात्मक न्याय’ कहा जाता है। इस अर्थ में यह शब्द धन-दौलत व लाभों के पुनर्वितरण की प्रयोग-विधि बतलाने में इतना इस्तेमाल नहीं होता, जितना कि वैयक्तिक कार्यों हेतु व्यवहृत नियमों व प्रक्रियाओं के लिए। अनिवार्यतः वह मानवीय कार्यों में मनमानेपन को दूर करने व कानून के शासक का समर्थन करने का प्रयास करता है। इस अवधारणा में व्यष्टियाँ होती हैं, न कि समष्टियाँ। इस दृष्टिकोण से. नियमों व प्रक्रियाओं का साथ न देते हुए, लाइन तोड़कर आगे पहुँचना अथवा प्रतिस्पर्धा में कुछ प्रतिभागियों को अनुचित लाभ देना अन्याय कहलायेगा।
प्रक्रियात्मक सिद्धांतियों (उदाहरणतः हयेक) का मानना है कि सम्पत्ति के पुनर्वितरण हेतु मापदण्डों को थोपना सर्व-सत्तावाद और आजादी की एक नाजायज कुर्बानी की ओर प्रवृत्त करेगा। इसमें राज्य द्वारा निरन्तर हस्तक्षेप शामिल है, ताकि समानता द्वारा अपेक्षित प्रतिमान कायम रहे। उन्हें लगता है कि यदि राज्य किसी कल्याणकारी नीति को अपना भी लेता है, तो उसका न्याय से कम ही सरोकार होता है।
प्रक्रियात्मक सिद्धांत के समालोचकों का तर्क है कि महज नियमों का पालन मात्र ही कोई उचित परिणाम सुनिश्चित नहीं कर देता। किसी सामाजिक प्रसंग में बनाये गए नियम कुछ ही समुदायों के पक्ष में विचारे जाते हैं। इसी कारण, एक स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा हमेशा एक निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा नहीं हो सकती। दूसरे, मुक्त-बाजार सम्बंध उन व्यक्तियों के लिए समान रूप से दमनकारी हो सकते हैं, जिनके पास आर्थिक शक्ति का अभाव है, उनके लिए एक मुक्त बाजार की आज़ादी अर्थहीन होगी।
1 जॉन रॉल्स का न्याय-सिद्धांत
विभिन्न राजनीतिक सिद्धांत एक वास्तविक रूप से न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था क्या होगी संबंधी विभिन्न चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें से दो सिद्धांत हैं – उपयोगितावादी सिद्धांत और निष्पक्षता के रूप में न्याय संबंधी रॉल्स का सिद्धांत उपयोगितावादी सिद्धांत का दावा है कि वह सामाजिक व्यवस्था जिसमें बड़ी से बड़ी संख्या में लोग अपनी उपयोगिता की उच्चतम संतुष्टि पा सकते हैं. न्यायसंगत है। परन्तु इसके बिल्कुल शुरूआती दिनों से ही समालोचकों को उपयोगितावाद के होते हुए भी बड़ी ही दिक्कतों का सामना पड़ा है। इस पृष्ठभूमि में, उपयोगितावाद के विकल्प रूप में, रॉल्स के सिद्धांत का प्रस्ताव किया गया है। रॉल्स की पुस्तक, थिअरी ऑफ जस्टिस. इस अवधारणा की एक निर्णायक व्याख्या देती है।
न्याय-संबंधी जॉन रॉल्स के सिद्धांत पर चर्चा करने के लिए, पहले उसके नैतिक समस्याओं पर पहुँचने के तरीके का उल्लेख आवश्यक है, जो कि सामाजिक सिद्धांत की संविदावादी परम्परा में देखा जाता है। परन्तु साथ ही, रॉल्स का सिद्धांत यह आवश्यक बनाता है कि नैतिक विवेचन के निष्कर्ष हमेशा सहज-ज्ञान द्वारा अनुभूत नैतिक धारणाओं के मुकाबले जाँचे व पुनर्व्यवस्थित किए जाएँ. और यह बात संविदावादी परम्परा में उन दूसरे लोगों के विपरीत है जो यह दावा करते है, कि न्याय के नियम वो होते हैं जिन पर एक परिकल्पित परिवेश में सहमति होती है।
रॉल्स मनुष्य को एक परिकल्पित मूल व्यवस्था में ‘अज्ञानता के परदे के पीछे रखते हैं, जहाँ व्यक्तिजन अपनी आवश्यकताओं. हितों. कौशलों, योग्यताओं संबंधी एवं उन वस्तुओं संबंधी, जो वर्तमान समाजों में विवाद पैदा करती हैं. बुनियादी जानकारी से वंचित रहते हैं। परन्तु उनके पास एक चीज जरूर होगी, जिसे रॉल्स न्याय-बोध’ कहते हैं।
इन परिस्थितियों के तहत, रॉल्स का दावा है, लोग शाब्दिक क्रम में न्याय संबंधी दो सिद्धांतों को सहर्ष स्वीकार करेंगे। पहला है ‘समानता सिद्धांत’, जिसमें हर व्यक्ति को दूसरों की सदृश स्वतंत्रता के अनुरूप ही सर्वाधिक व्यापक स्वतंत्रता का समान अधिकार होगा। यहाँ समान स्वतंत्रता को उदारवादी लोकतांत्रिक शासन-प्रणालियों के सुविदित अधिकारों के रूप में साकार किया जा सकता है।
इनमें शामिल हैं – राजनीतिक भागीदारी हेतु समान अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, कानून के समक्ष स्वतंत्रता, इत्यादि। दूसरे सिद्धांत को ‘भिन्नता सिद्धांत’ कहा जाता है, जिसमें रॉल्स का तर्क है कि असमानताओं को केवल तभी सही ठहराया जा सकता है, यदि उनसे निम्नतम लाभांवितों को लाभ पहुँचता हो।
न्याय-संबंधी जॉन रॉल्स की अवधारणा के दो पहलू हैं। प्रथम, वह एक “संवैधानिक लोकतंत्र की माँग करती है, यानी कानूनों की सरकार और वो ऐसी हो जो वश में हो, जवाबदेह हो और जिम्मेवार हो। दूसरे, वह “एक निश्चित रीति से” मुक्त अर्थव्यवस्था के नियमन में विश्वास करती है। “यदि कानून व सरकार”, रॉल्स लिखते हैं, “बाजार को प्रतिस्पर्धात्मक रखने, संसाधनों को पूरी तरह नियोजित रखने, सम्पत्ति व समद्धि व्यापक रूप से समयोपरि वितरित कर देने एवं उचित सामाजिक न्यूनातिन्यून को कायम रखने हेतु प्रभावी रूप से काम करते हैं, तब यदि सभी के लिए शिक्षा द्वारा दायित्व-स्वीकृत अवसर की समानता हो, तो परिणामित वितरण न्यायपूर्ण होगा”।
“पुनर्वितरणवादी” भी अपनी समालोचनाएँ प्रस्तुत करते हैं। तदनुसार, म्यैर एफ, प्लैटनर न्याय-संबंधी दृष्टिकोण के खिलाफ दो दावे पेश करते हैं। पहला, उनका विश्वास है कि यद्यपि समानता एक स्नेह-पालित मूल्य है, इसे सामर्थ्य की कीमत पर हासिल करना संभव नहीं हो सकता। प्लैटनर के अनुसार, यह समानता बनाम बढ़ी समृद्धि की समस्या रॉल्स को एक परस्पर विरोध में डाल देती है।
इस प्रकार, एक ओर रॉल्स “उनको इस बात को स्वीकार करने से एकदम इंकार करते हैं कि वे जो ज्यादा आर्थिक योगदान देते हैं. ज्यादा आर्थिक प्रतिफल का हक रखते हैं। यद्यपि, दूसरी ओर उनका “विभिन्नता सिद्धांत” (जो यह निर्दिष्ट करता है कि “सामाजिक व आर्थिक असमानताओं को व्यवस्थित किया जाना है, ताकि वे न्यूनतम लाभांवितों के अधिकतम लाभ हेतु हों”) फिर भी दृढतापूर्वक कहता है कि उन्हें अधिक आर्थिक पारितोषिक प्रदान करना न्याय-संगत है, जहाँ तक कि वे उन तरीकों से अपने योगदान में वृद्धि करने हेतु प्रोत्साहनों के रूप में काम करते हों जो अन्तोगत्वा अलाभांवितों को लाभ पहुँचाते हों।
दूसरा दावा जो प्लैटनर करते हैं, वो हैं कि पुनर्वितरणवादी चाहता है कि व्यक्ति को उसके “खरे परिश्रम’ के पारितोषिक से इंकार कर दिया जाए, और उसकी बजाय वह सारे उत्पादन को समग्र समान की “सार्वजनिक सम्पत्ति” के रूप में मानते हैं। साथ ही, प्लैटनर हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि यह “निजी सम्पत्ति संबंधी नैतिक आधारों और उसके साथ ही उदारवादी समाज” को गुप्त रूप से क्षति पहुंचाता है।