संरचनात्मक यथार्थवाद | अंतर्राष्ट्रीय संबंध
संरचनात्मक यथार्थवाद
समकालीन यथार्थवाद को नव यथार्थवाद या संरचनात्मक यथार्थवाद भी कहा जाता है। इसका उदय द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हंस जे मार्गेंथाओ की कृति “पॉलिटिक्स अमोंग नेशन” (1949) से माना जाता है। 1949 के बाद वोल्टेज ने इस उपागम को सिद्धांत सुदृढ़ता प्रदान की नव यथार्थवादी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की व्याख्या अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना के रूप में करते हैं ना कि राज्यों के उद्देश्यों के अनुसार।
नव यथार्थवादि विचारकों के अनुसार राज्य के आचरण का मुख्य तत्व अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की विभिन्न रचनाओं के विश्लेषण के द्वारा विश्व राजनीति के नियमों का प्रतिपादन करते हैं।
नव यथार्थवादियों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी अराजकतापूर्ण है। अराजकतापूर्ण होने का आशय हिंसात्मक या धनात्मक व्यवस्था में नहीं अपितु अराजकता पूर्ण होने का आशय उस मान्यता से है जिसमें राष्ट्र राज्यों के विभागों को नियंत्रित करने के लिए कोई केंद्रीय या अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है।
यहां इस बात की कोई गारंटी कोई देश नहीं ले सकता कि वह उस पर हमला नहीं करेगा क्योंकि राज्यों के आपसी संबंध कितने ही मैत्रीपूर्ण क्यों ना हो पर उनमें कभी ना कभी संघर्ष जैसी स्थिति उत्पन्न हो ही जाती है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के बीच राज्यों के हित व मित्र दोनों ही अस्थाई ही होते हैं।
संक्षेप में, इस प्रकार महान शक्तियां एक लोहे के पिंजरे में फंस जाती हैं। जहां उनके पास बहुत कम विकल्प होते हैं लेकिन वह यदि जीवित रहने की उम्मीद करते हैं तो वह आपस में संघर्ष करने लगते हैं। संरचनात्मक यथार्थवादी राज्यों के मध्य सांस्कृतिक मतभेद को अनदेखा करते हैं और साथ ही शासन के प्रकारों में भिन्नता रखते हैं। क्योंकि यह सभी के लिए एक ही मूल प्रोत्साहन बनाते हैं चाहे कोई राज्य लोकतांत्रिक हो या चाहे निरंकुश, या चाहे कितना ही कम काम करता हो। यहां यह भी मायने नहीं रखता कि राज्य की नीति संचालन का प्रभारी कौन है।
जॉन मथाई इसके विपरीत विचार रखते हैं उनका मानना है कि यह यथासंभव शक्ति प्राप्त करने की अच्छी रणनीति है और यदि परिस्थितियां अच्छी है तो अधिपत्य को आगे बढ़ाना चाहिए। शास्त्रीय यथार्थवादियों के अनुसार शक्ति स्वयं में अंत है जबकि नव यथार्थवाद के अनुसार शक्ति अंत का एक साधन है। शक्ति भौतिक क्षमताओं पर आधारित होती है जो राज्य के नियंत्रण में होती है।
शक्ति के मुख्य रूप: मूर्त और अमूर्त
मूर्त रूप में शक्ति का तात्पर्य, सैन्य शक्ति व परमाणु हथियार संबंधित शक्ति से है। दूसरा शक्ति का अमृत रूप है जिस से आशय है कि उस राज्य के सामाजिक व आर्थिक सामग्री को संदर्भित करती है। अमूर्त शक्ति उस राज्य के धनसंपदा आबादी व आकार पर आधारित होती है।
इस चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि युद्ध ही एकमात्र रास्ता नहीं जिससे राज्य सत्ता हासिल की जा सके बल्कि राज्य की जनसंख्या और वैश्विक धन की हिस्सेदारी में वृद्धि करके भी ऐसा कर सकते हैं। जैसा कि चीन ने पिछले कुछ दशकों में किया है। आगे हम इस बात की चर्चा करेंगे कि राज्य कितनी शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं? राज्यों के मध्य शक्ति व सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा क्यों है?, यह अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की पाँच सीढ़ी मान्यता पर आधारित है, जिसमें यह कहा गया है कि राज्यों को प्रत्येक मतदाता में शक्ति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
1. पहली मान्यता इस बात पर आधारित है कि महान शक्तियां विश्व राजनीति में महान शक्तियां ही मुख्य कलाकार हैं। यहां अराजकता का अर्थ इस बात से है कि कोई भी ऐसी केंद्रीकृत व्यवस्था नहीं है जिसका सभी पालन करें या वह राज्यों की सुरक्षा की गारंटी ले, प्रत्येक राज्य अपनी सुरक्षा के लिए स्वयं पर निर्भर है।
2. दूसरी मान्यता है कि सभी राज्यों के पास कुछ आक्रमक सैनिक क्षमता है जिससे पड़ोसी राज्य अपनी सुरक्षा को लेकर स्वास चिंतित रहता है।
3. तीसरी मान्यता है कि एक दूसरे राज्य के इरादों के बारे में निश्चित नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्येक राज्य शक्ति के संतुलन को परिवर्तित अर्थात अपने और झुकाने में संघर्षरत रहते हैं।
अतः एक राज्य दूसरे राज्य के इरादों के बारे में सदैव एक जैसी राय नहीं बना सकता, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के कार्य व व्यवहार में सदैव अंतर होता है।
4. चौथी मान्यता यह है कि प्रत्येक राज्य अपनी सुरक्षा और अपना अस्तित्व को बनाए रखता ही उनका मुख्य लक्ष्य है। राज्य अपनी क्षेत्रीय अखंडता व अपने घरेलू राजनीति की स्वच्छता बनाए रखना चाहते हैं।
राज्य समृद्धि जैसे अन्य लक्ष्यों को पाने का प्रयास करते हैं मानव अधिकार की रक्षा करते हैं और इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वे अपनी अस्तित्व की रक्षा करते हैं।
5. पांचवी मान्यता यह है कि राज्य अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तर्कसंगत कार्यरत हैं। जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी राजनीतिओ के साथ आते हैं जिसकी सहायता से वह अपने अस्तित्व की संभावनाओं को अधिकतम करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसी राज्य का सबसे बड़ा डर यह है कि दूसरे राज्य में क्षमता हो सकती है और उस पर हमला करने का मकसद भी। इस खतरे का अर्थ यह है कि राज्य अराजकतापूर्ण अवस्था में कार्य करते हैं। जिसका अर्थ है कि कोई भी (नाइटवॉचमैन) नहीं है जो किसी अन्य राज्य द्वारा दी गई धमकी से उन्हें बचा सके। जब कोई राज मदद के लिए आपातकालीन सेवाओं को डायल करता है तो कॉल का जवाब देने के अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में कोई भी मौजूद नहीं रहता।
कितनी शक्ति पर्याप्त है?
आक्रमक यथार्थवादियों का तर्क है कि राज्यों को हमेशा अधिक शक्ति प्राप्त करने के अवसरों की तलाश में रहना चाहिए। राज्यों को सदैव शक्ति को अधिकतम करना चाहिए तथा आधिपत्य उनका अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। क्योंकि जीवित रहने की गारंटी देने का सबसे अच्छा तरीका राजनीतिक यथार्थवाद है।
जबकि रक्षात्मक यथार्थवाद जहां स्वीकार करते हैं कि अंतरराष्ट्रीय प्रणाली शक्ति के अतिरिक्त वेतन वृद्धि हासिल करने के लिए मजबूत प्रोत्साहन बनाती है। वोल्टेज का कहना है कि हमें आधिपत्य के बजाय शक्ति की उचित मात्रा [Appropriate amount of Power ] के लिए प्रयास करना चाहिए।
रक्षात्मक यथार्थवादियों का मानना है कि यदि कोई राज्य अत्यधिक शक्तिशाली हो जाता है तो संतुलन हो जाएगा। विशेष रूप से महान शक्तियां [Great Powers ] सैन्य शक्ति निर्णय कर एक संतुलित गठबंधन का निर्माण करेंगे जो किसी के भी आधिपत्य को नष्ट कर देगी।
जैसा की नेपोलियन फ्रांस [1792-1815], इंपीरियल जर्मनी [1900-18] और नाजी जर्मन [1935-45] के साथ हुआ जब उन्होंने यूरोप पर हावी होने का प्रयास किया। रक्षात्मक यथार्थवादियों का मानना है कि युद्ध होने वाली हानि का भुगतान कभी-कभी विजेता अपनी विजय के लेकर अस्वस्थ होने पर भी नहीं करता। राष्ट्रवाद के कारण विजेता को वश में करना असंभव होता है जो कि इस बात की गारंटी देता है कि कब्जे के खिलाफ मानववादी विद्रोह करेगी।
रक्षात्मक यथार्थवादियों के अनुसार अंतरराष्ट्रीय जीवन प्रणाली में प्रत्येक राज्य को इस मूल तत्व पर स्पष्ट होना चाहिए कि उन्हें अपनी शक्ति की भूख को सीमित करना चाहिए। अन्यथा वे अपने जीवन के अस्तित्व को खतरे में डाल देते हैं।
यदि सभी राज्य इस तर्क से वाकिफ हैं और वह एक तर्कसंगत कार्यकर्ता के रूप में हैं तो सुरक्षा प्रतियोगिता तीव्र नहीं होनी चाहिए। कुछ महान शक्तियां के बीच युद्ध होने चाहिए, पर कोई भी केंद्रीय युद्ध नहीं होना चाहिए।
महान शक्तियों में युद्ध का क्या कारण है?
नव यथार्थवाद के अनुसार राज्य किसी भी कारण के लिए युद्ध कर सकते हैं उसका कोई निश्चित कारण नहीं। राज्य कभी-कभी प्रतिद्वंदी राज्य पर सत्ता हासिल करने के लिए अपनी सुरक्षा के लिए युद्ध कर सकते हैं। लेकिन सुरक्षा ही युद्ध के पीछे प्रेरक शक्ति नहीं होती। विचारधारा या आर्थिक विचार भी कभी-कभी सर्वोपरि होते हैं। उदाहरण के लिए बिस्मार्क ने डेनमार्क [1864], ऑस्ट्रिया [1866], और फ्रांस [1870] के खिलाफ युद्ध शुरू करने का मुख्य कारण था। (विचारधारा या आर्थिक विचार)
निष्कर्ष
1990 के दशक में राजनीतिक पंडितों ने यह घोषणा की कि दुनिया में शांति बढ़ रही है और यथार्थवाद मर रहा है। शीत युद्ध के उपरांत अंतरराष्ट्रीय राजनीति बदल गई। दुनिया वैश्वीकरण अपना रही थी। पश्चिमी देश अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विषय में सोचने व सलाहकारी राजनीति के विषय में सोचने व बात करने लगे थे। कई लोगों ने तर्क दिया कि लोकतंत्र दुनिया भर में फैल रहा है और लोकतांत्रिक देश आपस में युद्ध नहीं करते। परंतु यह शांति फीकी पड़ती है और यथार्थवाद एक बार फिर पलटी मारता है। ईरान व उत्तरी कोरिया हमें परमाणु प्रसार की समस्या याद दिलाते हैं।
भारत व पाकिस्तान दोनों युद्ध की शंका की अवस्था में जी रहे हैं और यह एक ऐसा युद्ध है जिसकी समाप्ति में परमाणु हथियार शामिल है हालांकि यह संभावना नहीं है कि चीन, उत्तरी कोरिया, अमेरिका भी इस युद्ध में घसीटे जा सकते हैं।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति अभी भी सत्ता राजनीति की समकालीन है क्योंकि यह सभी रिकॉर्ड इतिहास के लिए गवाह है। शक्ति के विषय में लंबी सोच को प्रेरित करता है। इन सभी मामलों में चतुरतापूर्वक विचार व राजनीति के माध्यम से राज्यों को अंतरराष्ट्रीय अराजकता से महफूज रखा जा सकता है।