नव उदारवाद तथा नव यथार्थवाद : संकलनीन बहस के बाद
By:- David A. Boldwin
नीचे दिए गए छः केंद्रीय बिंदु नव उदारवाद तथा नव यथार्थवाद के समकालीन बहस का चित्रण करते हैं यह निम्नलिखित हैं:–
अराजकता की प्रकृति तथा उसके परिणाम
कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कई प्रकार से अराजक है। पर ऐसा क्यों कहा गया यह एक मुद्दा है। आर्थर sten (1982) ने स्वतंत्र निर्णय निर्माण जो अराजकता की विशेषता है तथा संयुक्त निर्णय निर्माण जो अंतरराष्ट्रीय सत्ता गुटों में निहित है, में भिन्नता दर्शाई है तथा यह सुझाव दिया है कि अराजकता की अवस्था में स्वतंत्र राज्यों का स्वागत होता है जो कि अंतरराष्ट्रीय सत्ता गुटों के निर्माण में इन राज्यों का नेतृत्व करता है या मुख्य भूमिका निभाता है।
चार्ल्स लिप्सन (1984) कहते हैं कि अराजकता का विचार अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक मील का पत्थर है। परंतु यथार्थवादियो ने अंतरराष्ट्रीय परस्पर निर्भरता को देखते हुए भी इसे कुछ अधिक बढ़ा चढ़ाकर दर्शाया है। रॉबर्ट एक्सेलरोड तथा रॉबर्ट कोहेन ने सरकार की अनुपस्थिति के कारण अराजकता को महत्व प्रदान किया है। परंतु वैश्विक राजनीति की यह स्थिति प्रकृति राज्यों के बीच वार्ताओं को भी अनुमति प्रदान करती है।
जो जोसेफ ग्रीको (1988) का विचार है कि अराजकता के परिणामों की प्रकृति के संदर्भ में ही नव यथार्थवाद तथा नव उदारवाद भिन्नताएं विद्यमान हैं। इसका पूर्ण विश्वास है कि उदार संस्थावादियो ने राज्य व्यवहार के लिए एवं बचाव के बारे में बाधाओं के महत्व का सही अनुमान नहीं लगाया जिसे ग्रीको अराजकता के महत्वपूर्ण परिणाम के रूप में देखते हैं।
हेलेन मिल्नार ने वैश्विक राजनीति तथा इसके व्यवस्था को देखते हुए वैश्विक राजनीति की व्यवस्थित प्राकृतियों की खोज की। यह खोज नवउदारवादियों के केंद्रीय लक्ष्य के रूप में थी। लेकिन यह लिप्सन उनके साथ सहमति की आवश्यकता पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया गया है जबकि परस्पर निर्भरता को बिल्कुल नगण्य करार दे दिया गया है।
डंकन स्नाइडल अराजकता की यथार्थवादी अवधारणा आदर्शों के रूप में इसे बंदी दुविधा (pressenior dilemma) की स्थितियों के रूप में देखता है जबकि ग्रीको इसे बंदी दुविधा को नव उदारवाद के साथ जोड़ता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि नव यथार्थवादी अधिकता को राज्य व्यवहारों पर गंभीर बाधाओं से कहीं ज्यादा के रूप में ही देखते हैं जबकि नव उदारवादी नहीं।
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग
जहां तक हम अंतरराष्ट्रीय सहयोग की बात करते हैं तो यथार्थवादी तथा नव उदारवादी दोनों ही मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग संभव है परंतु दोनों सहयोग की सुगमता पर तथा इसकी प्रकृति पर भिन्न विचार रखते हैं। ग्रीको के अनुसार नव यथार्थवादी कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना उसका प्रबंधन करना तथा राज्य शक्ति पर ज्यादा निर्भरता बड़ी ही मुश्किल है जबकि नव उदारवादी यह नहीं मानते हैं।
उदारवादी के अनुसार नव उदारवादीयों में सहयोग के निर्धारण को कोई भी असंभव नहीं मानता। कोहेन तथा ग्रीको को इस बात से सहमत हैं कि यूरोपियन यूनियन इन सिद्धांतों की जांच के लिए महत्वपूर्ण परीक्षण के रूप में होगी। यदि यूरोपियन यूनियन का एकीकरण कमजोर पड़ा या उसका पतन हुआ तो नव यथार्थवादयो का दावा सही तथा संगत होगा और यदि उसने प्रगति प्राप्त की तो नव यथार्थवादी झूठे साबित होंगे।
सापेक्ष बनाम निरपेक्ष लाभ
आर्थर स्टेन अपने लेख “contradiction and collaboration in an anarchic world” में स्वहित के उदारवादी दृष्टिकोण को बताते हुए कहता है कि इसमें सभी अभिकर्ताओं का सामान्य हित, निरपेक्ष लाभ को बढ़ाना है। अभिकर्ता अपेक्षित लाभ को बढ़ाने की कोशिश करते हैं जिसमें सब का सामान्य हित नहीं होता। लिप्सन कहता है कि अपेक्षित लाभ को आर्थिक मामलों से अधिक सुरक्षात्मक मामलों में ज्यादा महत्व दिया जाता है।
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ग्रीको का विचार है कि नव उदारवाद संस्थावाद अंतरराष्ट्रीय सहयोग से सक्षम निरपेक्ष लाभ या वास्तविक लाभ रहा है जबकि इससे अपेक्षित लाभ को नजरअंदाज किया है। वह सुझाव देते हैं कि किसी भी संबंध में राज्यों का मौलिक लक्ष्य को शिक्षित क्षमता प्राप्त करने से पहले स्वयं को सुरक्षित करना है।
राज्यों के उद्देश्यों की प्राथमिकता
उदारवादी तथा नव यथार्थवादी दोनों ही राष्ट्रीय सुरक्षा तथा आर्थिक कल्याण को महत्वपूर्ण मानते हैं पर यह इन उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अपेक्षित विचारों पर निर्भरता दर्शाते हैं। लिप्सन कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग से सैन्य सुरक्षा से अधिक आर्थिक मुद्दों से संबंधित है। क्योंकि नव यथार्थवादी सुरक्षात्मक मुद्दों के अध्ययन पर ज्यादा जोर देते हैं जबकि नव उदारवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अध्ययन पर जोर देते हैं।
ग्रीको का मानना है कि अराजकता में ऐसे राज्य विद्यमान हैं जिनके पास अपेक्षित शक्ति सुरक्षा तथा बचाव है। पावेल यथार्थवादियों के सुरक्षात्मक मामले तथा नव उदारवादीओं के आर्थिक कल्याण के मुद्दे पर एक सेतु बनाने का विचार प्रकट करता है जो इस भिन्नता को मिटा सके। वह अपने द्वारा दिए गए मॉडल में कहता है कि राज्य अपना आर्थिक कल्याण ज्यादा चाहते हैं जबकि सैन्य बल केवल एक संभावना है। ज्यादातर उदारवादी तथा नव यथार्थवादी राज्य के उद्देश्यों के मुद्दे पर ज्यादा समानता दर्शाते हैं जैसा कि कोहेन कहते हैं कि “कोई भी उपागम संभावित हित नहीं प्रदान करता है”।
उद्देश्य बनाम सामर्थ्य
परंपरागत यथार्थवादी मार्केट में विदेश नीति के संचालन के लिए राज्य कर्ताओं की सोच तथा गतिविधि या उद्देश्यों का वर्णन किया है। अभिकर्ता की सोच तथा गतिविधि शक्ति के रूप में परिभाषित हित है जिससे कि अभिकर्ताओं के कार्यों तथा विचारों को समझने तथा विश्लेषण करने में काफी मदद मिलती है।
ग्रीको का कहना है कि नव यथार्थवादी राज्यों की क्षमताओं पर उनके उद्देश्यों से ज्यादा जोर देते हैं। ग्रीको कहते हैं कि भविष्य के उद्देश्य तथा हितों की अनिश्चितता ही राज्यों की क्षमता के लिए अग्रसर करती हैं। यह क्षमताएं इनकी सुरक्षा तथा स्वतंत्रता पर आधारित होती है। इसी प्रकार करासन भी नवउदारवादियों की आलोचना करते हैं क्योंकि वह हितों उद्देश्य तथा संरचनाओं पर अधिक ध्यान देते हैं जबकि क्षमताओं के वितरण पर कम ध्यान देते हैं।
संस्थाएं तथा शासन /सत्तागुट
नव यथार्थवाद तथा नव उदारवाद दोनों ने ही अंतरराष्ट्रीय सत्ता गुटों तथा संस्थाओं के अधिवक्ता को पहचाना है जो सन 1945 के बाद उदित हुए। जबकि इन दोनों के बीच विभेद इनके प्रबंध के महत्व को लेकर है जोकि कोहेन के अनुसार बहुत बड़ा समकालीन विवाद है। इन की वैधता को लेकर संस्थावादी अंतरराष्ट्रीय सत्तागुटों तथा संस्थाओं की विस्तृता का दावा करते हैं जो विश्व राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान लेते जा रहे हैं।
नव यथार्थवाद ये यह मानते हैं कि यह विवाद का महत्वपूर्ण बिंदु है वह मानते हैं कि नव उदारवादी इतना बढ़ चढ़कर इन संस्थाओं के बारे में कहते हैं कि यह अंतर–राज्य सहयोग (Inter-state Cooperation) अराजकता के बाद बाध्यकारी प्रभाव को शांत करने के योग्य है।