नरिवाद क्या हैं ? | नारीवाद के प्रकार | केट मिल्लेट के विचार | गेरडा लरनर के विचार
‘नारीवाद’ शब्द लैटिन शब्द ‘फेमिना’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘महिला’ इस शब्द को पहली बार महिला अधिकार व समानता के लिए चलाए जा रहे आंदोलन के संबंध में इसका इस्तेमाल किया गया था। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ‘नारीवाद’ को स्त्री या नारी होने की स्थिति के रूप में परिभाषित करती है। वेबस्टर डिक्शनरी ने ‘नारीवाद’ शब्द को इस सिद्धांत के रूप में परिभाषित किया है कि महिलाओं को पुरुषों के समान राजनीतिक अधिकार होने चाहिए। टोरिल मोई का कहना है कि “नारीवादी’ या ‘नारीवाद’ शब्द राजनीतिक लेबल हैं जो 1960 के दशक के उत्तरार्ध में उभरे नए महिला आंदोलन के उद्देश्यों के समर्थन का संकेत देते हैं।”
‘नारीवाद’ शब्द की परिभाषा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होती है। चमन नहल ने अपने लेख, “फेमिनिज्म इन इंग्लिश फिक्शन” में नारीवाद को “अस्तित्व की एक ऐसी विधा के रूप में परिभाषित किया है जिसमें महिला निर्भरता सिंड्रोम से मुक्त होती है।
नारीवाद के प्रकार
विश्व क विभिन्न हिस्सों में एक शताब्दी से अधिक के नारीवादी विचार तथा राजनीति ने एक साहित्य का सृजन किया है। नारीवादी विचार के परम्परागत परीक्षण ने उसे तीन भागों में न उदार, समाजवादी तथा आमुल नारीवाद ।
उदार नारीवाद को उदारवादी राज्य की परख के अन्तर्गत समझा जाता है। इसमें समानता, स्वतंत्रता तथा न्याय को उदारवादी दर्शन संदर्भ में उनका सिद्धान्तीकरण करते हए यह स्पष्ट किया जाता है कि, ये अवधारणाएँ तब अपयाप्त है, जब तक कि लैंगिक आयाम को शामिल नहीं किया जाता।
समाजवादी नारीवाट नारी दमन का वर्ग समाज के साथ जोड़ते हैं। वे परीक्षण के मार्क्सवादी वर्गीकरण का सहारा लेते हुए इनकी बातों की भी आलोचना करते हैं कि मार्क्सवादी सिद्धान्त में लैंगिक-अंधपन है।
आमूल नारीवाद पिततंज का पुरुष के आधिपत्य की एक व्यवस्था के रूप में सिद्धान्तीकरण करते हैं, जोकि आधिपत्य की अन्य प्रणालियों से स्वतंत्र तथा पहले हैं, अर्थात आमल नारीवाद में शोषण तथा दमन के सभी स्वरूप एक रूप में यौन पर आधारित दमन से बनते हैं, चूँकि ऐतिहासिक तौर पर यह दमन का सबसे प्राचीन स्वरूप है।
लेकिन यह रूपरेखा नारीवाद में वाद-विवादों की जटिलता को पकड़ नहीं पाती। हाँ, इससे हम नारीवादी सिद्धान्त के एक उपयोगी प्रवेश बिन्दु के रूप में देख सकते हैं। यहाँ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि इन विभेदों को पूर्ण तौर से पृथक भी नहीं किया जा सकता।
केट मिल्लेट के विचार
केट मिल्लेट 1970 के दशक में पितृतंत्र शब्द का उपयोग करने वाले प्रारम्भिक आमूल नारीवादियों में से हैं। इन्होंने समाजशास्त्री मैक्स वेबर की आधिपत्य की अवधारणा को विकसित करते हुए यह दलील दी कि सम्पूर्ण इतिहास में दोनों यौनों के बीच आधिपत्य तथा अधीनस्थ के सम्बंध रहे हैं, जिसमें पुरुष ने अपने आधिपत्य का प्रयोग दो स्वरूपों में किया है – सामाजिक सत्ता और आर्थिक सत्ता द्वारा। यहाँ पिततंत्र पर एक व्यवस्था के रूप में ज़ोर है, जिसके द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि स्त्री के ऊपर परुष की शक्ति कोई व्यक्तिगत घटनाचक्र नहीं है, बल्कि वह तो एक संरचना का भाग है।
गेरडा लरनर के विचार
गेरडा लरनर एक इतिहासकार हैं और उन्होंने पितृतंत्र को इस तरह से परिभाषित किया है: “परिवार में नारियों तथा बच्चों पर पुरुष आधिपत्य की अभिव्यक्ति तथा उसका संस्थाकरण और समाज में आमतौर पर नारियों पर पुरुष आधिपत्य का विस्तृतीकरण। इसका अर्थ है कि पुरुष समाज में सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं में शक्ति संभालते हैं तथा नारियों को इस शक्ति की पहँच से वंचित रखा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्तिगत पुरुष हमेशा आधिपत्य तथा प्रत्येक व्यक्तिगत नारी हमेशा अधीनस्थ की स्थिति में होती है। इसका यह अर्थ आवश्यक है कि पितृतंत्र के अन्तर्गत एक विचारधारा है, जो यह कहती है कि पुरुष नारी से उत्कष्ट है. नारी पुरुष की सम्पत्ति है तथा नारी को पुरुष के नियंत्रण में रहना चाहिए।
यौन/लिंग भेद
यौन प्रकृति से तथा लिंग संस्कृति से सम्बंधित है
नारीवादी सिद्धान्त का एक महत्वपूर्ण योगदान ‘यौन’ (sex) तथा लिंग (gender) के बीच विभेद करना है। यौन पुरुष और नारी के बीच जीव विज्ञानीय विभेद है और लिंग, उस मौलिक विभेद के साथ जाटे अनेक सांस्कृतिक अर्थों के विस्तृत क्षेत्र को इंगित करता है। नारीवाद के लिए यह विभेद करना महत्वपूर्ण है। नारियों के अधीनस्थ स्थिति को मौलिक तौर पर पुरुष व नारी के जीव विज्ञानीय विभेटों के आधारों पर न्यायोचित्त ठहराया जाता है। इस तरह का जीव विज्ञानीय निश्चयवाद सदियों से नारी दमन के वैध उपकरणों में से सबसे महत्वपर्ण है। इसीलिए, जीव विज्ञानीय निश्चयवाद को चुनौती नारीवादी राजनीति के लिए अत्यंत आवश्यक है।
पुरुषत्व,नारीत्व और सांस्कृतिक विभेद
नारावादी मानव-विज्ञानी जिनमें मारग्रेट मीड सबसे प्रसिद्ध हैं, उन्होंने यह प्रदर्शित किया है कि परुषल तथा नारीत्व की समझ विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग है। दूसरे शब्दों में, न केवल विभिन्न समाज कुछ विशेषताओं की पहचान पुरुषत्व के रूप में तथा कछ की पहचान नारीत्व के रूप में करते हैं बल्कि विभिन्न संस्कतियों के बीच इन विशेषताओं में समानता नहीं है। अतः नारीवादी यह दलाल दत ह कि पुरुषत्व व नारीत्व के साथ जुड़े गुणों के बीच कोई परस्पर सम्बंध नहीं है। बल्कि यह तो शिशु पालन के व्यवहार हैं, जोकि यौनों के बीच कछ विभेद को स्थापित एवं सनातन करते हैं, अर्थात बचपन से ही लड़के एवं लड़कियों को समचित लैंगिक विशिष्ट स्वरूप के व्यवहार, खेल, कपड़ों, आदि में प्रशिक्षित किया जाता है। यह प्रशिक्षण निरन्तर और अधिकांश समय सूक्ष्म होता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर उसमें अनुरूपता लाने के लिए सजाएँ भी निहित हैं। इसीलिए, नारीवादियों की यह दलील है कि यौन-विशिष्ट गुणों (उदाहरणार्थ पुरुषत्व में वीरता एवं विश्वास और नारीत्व में संवेदनशीलता व शर्मीलापन) तथा समाज द्वारा दिये जाने वाले उनको मूल्य, ये उन संस्थाओं तथा विश्वासों के परिणाम हैं जोकि लड़का व लड़की का भिन्न रूप से समाजीकरण करते हैं। जैसा कि सीमों द बोवोअर कहती हैं कि ‘नारी जन्म से नहीं होती बल्कि बनाई जाती है।
श्रम तथा कार्यस्थान का यौन विभाजन
श्रम का यौन विभाजन केवल घर तक सीमित नहीं है, यह “सार्वजनिक” क्षेत्र में भी बनी भी लागू होता है और फिर से इसका “यौन” (जीव विज्ञान से कोई सम्बंध नहीं है। हाँ इसका सम्बंध लिंग (संस्कृति) के साथ है। कुछ कार्य “नारियों के कार्य” माने जाते हैं और अन्य परुषों के। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि नारी जो भी काम करती है, उसको उनके लिए कम वेतन मिलता है और उनके कार्य का मूल्य भी कम आंका जाता है। उदाहरण के लिए, नर्सिंग तथा अध्यापन (विशेष रूप में निम्न श्रेणियों में) को मुख्य तौर पर नारी व्यवसाय माना जाता है और अपेक्षाकृत उन्हें अन्य सफेदपोशी व्यवसायों से जिन्हें कि मध्यम वर्ग करता है, कम वेतन मिलता है। नारीवादी यह बताते हैं कि अध्यापन तथा नर्सिंग का नारीकरण इसलिए होता है, क्योंकि ये कार्य नारी द्वारा घर में किए जाने वाले पालन-पोषण के कार्य के विस्तार के रूप में देखे जाते हैं।
श्रम के यौन विभाजन के पीछे विचारधारात्मक कल्पनाएँ
सच्चाई तो यह है कि श्रम के यौन विभाजन के पीछे कोई “प्राकतिक” जीव-विज्ञानीय विभेद नहीं है, बल्कि उनके पीछे कछ विचारधारात्मक कल्पनाएँ हैं। एक तरफ तो नारियों को शारीरिक रूप से कमजोर और इसीलिए, भारी शारीरिक श्रम के अयोग्य माना जाता है और दूसरी ओर वे घर के भीतर और बाहर के सबसे भारी काम जैसे पानी तथा जलाऊ लकड़ी को लादना, अनाज पीसना, धान रोपण करना, खदान व निर्माण कार्य में भारी बोझा ढोना, करती हैं। लेकिन जब उसी शारीरिक कार्य का मशीनीकरण हो जाता है, जोकि उस कार्य को हल्का और बेहतर वेतन देने वाला बना देता है तो पुरुष को मशीन का उपयोग करने का प्रशिक्षण दिया जाता है और महिलाएँ बाहर कर दी जाती हैं। यह न केवल कारखानों में होता है, बल्कि समुदाय के भीतर पारम्परिक रूप से नारियों द्वारा किए गए कार्यों के साथ भी होता है। उदाहरण के लिए जब हाथ से चलने वाली चक्की का स्थान बिजली चलित चक्कियों ने लिया था, मछली पकड़ने के मशीन निर्मित नायलॉन के जालों ने परम्परागत तौर पर नारियों द्वारा हाथ से बनाने वाले जालों का स्थान ले लिया, तब भी पुरुषों को इन कार्यों को करने के लिए प्रशिक्षित किया गया और नारियों को और भी कम वेतन वाले तथा अधिक परिश्रमी शारीरिक कार्य सौंप दिये गये।