भारतीय राज्य का उदय पूर्व औपनिवेशिक राज्य से आधुनिक राज्य तक (भाग-2) | सुदीप्त कविराज
आधुनिकता से हमें मौलिक विचारात्मक परिवर्तन देखने को मिलता है। जो कि बौद्धिक संस्कृति से राज्य के विचार में देखने को मिलता है। यूरोपियन भारतीय आधुनिकता के प्राथमिक स्रोत रहे हैं। यूरोपियन संदर्भ में मार्क्सवाद के विचार के अनुसार पूंजीवाद राज्य की प्रकृति के बदलाव की पहली प्रक्रिया है। यूरोपियन आधुनिकता राजनीतिक दलों के माध्यम से आर्थिक पक्ष द्वारा लाई गई थी।
भारतीय राज्य के विकास के चरण
भारतीय परिपेक्ष में आधुनिकता राज्य और केंद्र के मध्य संबंधों के परिवर्तन के रूप में देखी जाती है। आर्थिक परिवर्तन से राजनीतिक परिवर्तन होता है। कविराज ने पूर्व औपनिवेशिक समाज में हिंदू वर्चस्व और इस्लामिक वर्चस्व तथा अपने औपनिवेशिक शासन और आधुनिकता के बारे में विचार व्यक्त किया है। सुदिप्ता कविराज भारतीय राज्य के विकास को तीन चरणों में बांटते हैं-
- पूर्व औपनिवेशिक राज्य – ( मनुस्मृति + स्लामिक राज्य)
- औपनिवेशिक राज्य
- प्रारंभिक आधुनिक राज्य
मनुस्मृति- समाजिक शासन व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को हिंदू परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। यहां हिंदू समाज में शासन व्यवस्था को समझने के लिए मनुस्मृति के अध्याय 7 और 8 अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिसे राज धर्म के नाम से जाना जाता है। इस ग्रंथ के माध्यम से यह समझने में आसानी होती है कि प्राचीन ब्राह्मण एकता किस प्रकार से शासन व्यवस्था को नियमित करती थी।
मनुस्मृति और अर्थशास्त्र ब्राह्मण की प्रभुसत्ता को प्रदर्शित करते हैं। मनुस्मृति में राज्य की उत्पत्ति के कारण को हॉब्स के मानव स्वभाव से जोड़कर समझा जा सकता है, परंतु मनुस्मृति में इस प्रकार की अराजकता से मुक्ति के लिए देवीये आधार पर राजा की उत्पत्ति को प्रासंगिक बनाया गया है।
मनुस्मृति के अध्याय 7 के श्लोक 3 के अनुसार भगवान ने सर्वप्रथम दंड की रचना की उसके बाद राजा की। दंड प्रभुत्व संपन्न था मनुस्मृति में राजा को एक कार्यपालिका अथवा नौकरशाह के रूप में शक्तियां प्राप्त थी जिसका कार्य मनुस्मृति में उल्लेखित कानून व्यवस्था को लागू करना था।
राजा को एक अविश्वसनीय मानव एजेंट के रूप में देखा गया है मनु ने दंड को शासन व्यवस्था के लिए निरंकुश स्थान प्रदान किया है। मनुस्मृति अध्याय 7 श्लोक 17 के अनुसार कानून सर्वोच्च था और यह कानून जिसमें (व्यक्ति) धारण होते थे वह राजा कहलाता था।
यदि राजा शासन व्यवस्था के विरुद्ध कोई काम करता है तो वह दंड की व्यवस्था के अनुसार समाप्त हो जाता है। अतः राजा मनुस्मृति में वर्णित शासन व्यवस्था के विरुद्ध नहीं जा सकता है। राज्य करने के लिए शासन व्यवस्था का अध्ययन आवश्यक होता है।
ब्राह्मणों की सर्वोच्चता विद्यमान थी। तथा हिंदू समाज में वर्णव्यवस्था कायम थी जिसमे उच्च जाति का दबदबा कायम था। परंतु बौद्ध एवं जैन धर्म सुधार आंदोलनों के कारण ब्राह्मणीक सत्ता या सामाजिक पदानुक्रम में परिवर्तन आना प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे इस्लाम धर्म का प्रचलन भी प्रारंभ हुआ।
भारत में इस्लामिक राज्य
हिंदू और इस्लामिक धर्म विचारधारा और मूर्ति पूजा के संदर्भ में एक दूसरे के विपरीत हैं। समाज संवैधानिक और राजनीतिक शक्ति के लिए इस्लाम धर्म कुरान और शरीयत के नियमों के आधार पर शासन संचालन का काम करते हैं। जिस प्रकार प्राचीन कृषक समाज में नाजुक और परिवर्तनशील राजनीतिक सत्ता देखने को मिलती थी वैसी ही सत्ता हमें इस्लामिक राज्य में भी देखने को मिलती है अर्थात यहां पर सामाजिक स्थिरता का अभाव था।
जिस प्रकार ब्राह्मण इस परंपराओं में हिंदुओं के माध्यम से शासकों को मनमाना कार्य करने से रोका जाता था उसी प्रकार उलेमाओं के माध्यम से इस्लाम पर नियंत्रण रखा जाता था। दक्षिण एशिया में मुगल सबसे शक्तिशाली राज्य थे।
औपनिवेशिक समय में राज्य की प्रभुसत्ता
16वीं शताब्दी में औपनिवेशिक शासकों के आने से कुछ इतिहासकारों ने आधुनिकता को भारतीय परिपेक्ष में स्वीकार किया और कुछ ने अस्वीकार किया। उपनिवेशवाद ने हमें आधुनिकता से परिचित कराया है। भारत में ब्रिटिश राज्य पूरे भारत में एक साथ नहीं आया अपितु यह धीरे धीरे एक -एक राज्य से प्रारंभ हुआ और यह भारत में बहुत अनोखे रूप में प्रवेश हुआ था।
ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के उद्देश्य से आती है और धीरे-धीरे यह राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में लेती है। ब्रिटिश शासन में दो प्रकार को की संप्रभुता विद्यमान थी-
1. यूरोपीय प्रकार की संप्रभुता
2. भारतीय संप्रभुता
इस प्रकार की संप्रभुता राज्य और राष्ट्र के संबंधों को प्रदर्शित करता है। ब्रिटिश साम्राज्य मूल रूप से मुगल राज्य से भिन्न था। इसने अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार की शक्तियों का प्रयोग किया उसके परिणाम दीर्घकालिक रहे। ब्रिटिश सैन्य और तकनीकी क्षेत्र में सर्वोच्च होने के कारण उन्होंने राजनीतिक क्षेत्रीयता को स्थिरता प्रदान की। प्रभुत्व संपन्न शक्ति के नैतिक दावों के द्वारा धीरे-धीरे इन राजनीतिक क्षेत्रीयता की स्थिरता का प्रसार किया गया।
ऐतिहासिक सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन
1857 सैन्य विद्रोह- अंग्रेज 1857 की क्रांति को भारतीय सिपाही गदर के नाम से पुकारते थे। वास्तविक संप्रभुता ब्रिटिश के हाथों में आ गई उत्तर भारत में अभीजनों का एक समूह था जो यह विश्वास करता था कि मुगल शासन वापस आएगा। 1857 के पश्चात ब्रिटिश सरकार महानगरीय सरकार संपूर्ण भारत के लिए उत्तरदाई हो गई।
अंग्रेजी राज्य निम्न माध्यम से अपनी प्रभुसत्ता को सुनिश्चित किया-
1. व्यापार में मध्यम वर्ग को प्रतिनिधित्व देकर
2. भारत में सामाजिक परिवर्तन करके जैसे सती प्रथा का उन्मूलन
3. हिंदुओं का मानना था की सती प्रथा का उन्मूलन औपनिवेशिक राज्य का भारत में अपना शासन स्थापित करना था
4. कुछ हिंदू मानते थे कि सती प्रथा में सुधार या उन्मूलन हिंदू समाज द्वारा खुद लाना चाहिए
5. कुछ का मानना था कि सामाजिक सुधार में राज्य को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए
19वीं शताब्दी के अंत तक यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया था कि विदेशी शासकों की इतनी छोटी संख्या कैसे विभिन्नताओं से भरे भारत को नियंत्रित कर सकती है। इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जाता है कि विदेशियों के पास सबसे अच्छी तकनीकी सैनिक क्षमता और सुसंगठित सेना थी ।
1860 में बंगाली विचारकों के उदय से सैद्धांतिक रूप से परिवर्तन आना प्रारंभ हुआ। उसमें से भूदेव मुखोपाध्याय का निबंध (सोशियोलॉजी पर निबंध) महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिसमें उन्होंने जोर दिया कि ब्रिटिश और भारतीय ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। परंतु अपने वैश्विक शक्ति उस मौलिक सत्य को नहीं नष्ट कर सकती जिसमें दोनों समाज Narrative और Organizational रूप से एक दूसरे से भिन्न थे।
जैसा कि पुराना भारतीय समाज ब्राह्मण इस परंपरा के आधार पर हिंदू, मुस्लिम या वर्ण व्यवस्था पर आधारित था वहां पर हमें धर्म की सर्वोच्चता देखने को मिलता है।
भूदेव मुखोपाध्याय दोनों समाजों की तुलना करते हैं और आधुनिक यूरोपीय समाज की एक हॉबसियन चित्र प्रदर्शित करते हैं। उत्पादन करने वाले लोगों के सभी का सभी से युद्ध जैसी स्थिति को उत्पन्न कर देता है। जिसके लिए हॉब्स की भांति एक प्रभुत्व संपन्न की रचना की जाती है परंतु यह प्रभुत्व संपन्न इस स्थिति को कम अथवा खत्म नहीं कर सकता है।
आधुनिक राज्य एक प्रकार का अभूतपूर्व उपकरण था जिसमें संपूर्ण यूरोपीय समाजिक विश्व औपनिवेशिक राज्य यूरोपियन साम्राज्यवाद से वर्जित था। इस समाज का रूप भौतिकवादी, व्यक्तिवादी, ओर प्रतिस्पर्धात्मक था जिसने उनमें आरक्षणीय समुदाय की धारणा का निर्माण किया।
मुखोपाध्याय ने इसकी आलोचना की जिसका विस्तार राष्ट्रवादी विचारको द्वारा किया गया था। जो कि अंत में पश्चिमी देशों की आधुनिकता का नैतिक खंडन प्रस्तुत करते हैं। यूरोपीय देशों में आधुनिकता को परिभाषित करते हुए भूदेव मुखोपाध्याय कहते हैं कि उन्होंने शांति के नाम पर नियमों की रचना की परंतु वह खुद को नहीं रोक सके यूरोप में आधुनिक उपकरणों का प्रयोग करने से जिससे और भी विनाश होने लगा।
भूदेव मुखोपाध्याय का मानना है कि भारतीयों ने अंग्रेजों से दो चीजों के अलावा और कुछ नहीं सीखा
1. राजनीतिक अर्थव्यवस्था
2. आधुनिक विज्ञान का विकास
भूदेव मुखोपाध्याय यूरोपीय आधुनिकता की आलोचना प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यूरोपीय आधुनिकता यूरोप को नहीं बदल सकी परंतु यह संपूर्ण विश्व की सभ्यता को बदलने का दावा करती है। भूदेव मुखोपाध्याय ने चार आधारों पर यूरोपीय आधुनिकता के प्रस्ताव को अस्वीकार किया-
1. पूंजीवादी आधुनिकता से परिवार के पर्सनल बांड समाप्त हो जाते हैं क्योंकि वह अधिक असंवैधानिक और समृद्धआत्मक हो जाते हैं
2. व्यक्तिवाद
3. यूरोपीय आधुनिकता की राजनीतिक और बौद्धिक शक्तियां
4. सामाजिक सिद्धांत का अर्थ (work of social theory)
Gandhi : the Discourse disillusion
तकनीकी पदार्थों और राजनीतिक आकर्षण के कारण गांधी यूरोपियन आधुनिकता की आलोचना करते हैं। कहीं-कहीं वह हमें भूदेव मुखोपाध्याय की आलोचना के साथ दिखाई पड़ते हैं और कहीं कहीं वह इससे परे हो जाते हैं, मुखोपाध्याय की भांति गांधी भी आधुनिकता की दो आधार पर आलोचना करते हैं
- तकनीक व विज्ञान के प्रश्न पर
- राजनीतिक अर्थव्यवस्था
गांधी का मानना था कि परंपरागत संयम का सिद्धांत की पुनर्स्थापना यूरोपीय आधुनिकता का केंद्रीय तत्व था। व्यक्तियों की इच्छा और समाज की धन अर्जनशीलता के कारण मनुष्य तकनीक के माध्यम से प्रकृति का शोषण करता है। गांधी हिंदू और बौद्धिक विचारधारा को मिलाकर लेकर चलने की बात करते हैं।
सभी पूर्व आधुनिक नागरिकों पर नियंत्रण के आधुनिक यूरोपीय मॉडल के विपरित गांधी स्वराज की बात करते हैं और आंतरिक और बाहरी सरकार के विभाजन की बात करते हैं। गांधी व्यक्ति के बाहरी नियंत्रण को कम करने की बात करते हैं, यदि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम हो तो। गांधी और भूदेव मुखोपाध्याय भारत के आंतरिक शासन को स्वीकार करते हैं जिसमें गांधी और अधिक विस्तार से वर्णन करते हैं।
The Enchanment of the state : the modern political imaginary
भारतीय परंपरा में कोई भी ऐसा विचारक नहीं है जो गांधी और टैगोर को आपस में मिला सके जबकि दोनों के विचारों में बहुत अंतर देखने को मिलता है। गांधी ने स्वतंत्रता को खरीदा परंतु नेहरू ने बेरहमी से आधुनिकता को।
नया राज्य किस प्रकार का होगा और इसकी संप्रभुता कैसी होगी इस पर गांधी और नेहरू के विचार अलग-अलग रहे हैं। हम आधुनिक भारत को यूरोप की आधुनिकता के इतिहास के विपरीत देखते हैं। जब हम भारतीय आधुनिकता को अन्य से तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि भारतीय आधुनिकता साधारण भारतीय लोगों की राजनीतिक कल्पना के माध्यम से आधुनिक भारत राज्य के संस्था और राज्य के प्रचलन में आई।
नेहरू के विचार- नेहरू ने गांधी के विचारों पर सहमति प्रदान की जो कि गांव के लोगों को Unworkable मानते थे परंतु नेहरू गांधी के विरोध में यह कहते हैं कि आधुनिक राजनीतिक और आर्थिक कल्पना के द्वारा गांव के लोगों को कार्य के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाने की बात करते हैं।
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नेहरू व्यक्ति के कार्य चुनने की अधिकार की बात करते हैं गांधी के लिए स्वतंत्रता का मतलब यूरोपीय द्वारा थोपी गई प्रबल आधुनिकता से बाहर आना था परंतु नेहरू के लिए आधुनिकता आवश्यक परिस्थिति थी। नेहरू ने इस प्रकार राज्य की कल्पना की जिसमें सामूहिक इच्छाओं के तत्व के रूप में नौकरशाही विद्यमान हो।
1. आर्थिक कमजोरी साम्राज्यवाद के शोषण का कारण बनी और उससे भी ज्यादा औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत औद्योगिक विकास को नजरअंदाज कर देना। नेहरू ने फैबियन और मार्कसिस्ट राजनीतिक आदर्श को आपस में मिला दिया एवं उनका मानना था कि जब तक भारी औद्योगिक विकास नहीं हो जाता तब तक संप्रभुता कायम नहीं हो सकती है। इसीलिए स्वतंत्रता के पश्चात भारत में आर्थिक प्रसार गंभीरता से प्रारंभ हुआ।
2. नेहरू ने भारी औद्योगिकरण पर राज्य का नियंत्रण स्थाई रूप से स्थापित किया उन्होंने दूसरी पंचवर्षीय योजना 1956 में अत्यधिक उद्योग पर जोर दिया।
3. शीत युद्ध के दौरान बाजार और राज्य दोनों के प्रसार हुआ जिसमें माध्यम इलीट वर्ग का विकास हुआ। इससे राज्य को इस प्रकार के नए माध्यम वर्ग का उदय हुआ। अस्पृश्यता का संवैधानिक रूप से अंत कर के तीन प्रकार का आरक्षण प्रदान किया गया।
4. 1970 के दशक से राजनीतिक परिवर्तन प्रारंभ हुए। नेहरू के समय में अधिकतर राजनेता ऊंची जातियों या एलिट क्लास के थे, जो कि उदारवादी, समाजवादी विचार से प्रभावित थे। परंतु 1970 के पश्चात इस में परिवर्तन देखने को मिलता है और अब निम्न स्तर के लोगों को भी प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। 1970 से राजनीति एवं लोकतंत्र अत्यधिक भाषाई, जाति मुक्त एवं नॉन वेस्टर्न हो गया।
गांधी और नेहरू का तुलनात्मक अध्ययन- गांधी राज्य के सीमित शक्ति के पक्ष में थे जबकि नेहरू समाजवाद की बात करते हैं। पूर्ण रूप से समाजवाद नहीं आया अतः यह purestatism की बात करते हैं। जहां गांधी विकेंद्रीकृत या विकेंद्रीकरण की बात करते हैं, वही नेहरू केंद्रीकरण की बात करते हैं।