अर्थवएवस्था और राजनीति के बीच संबंध | कमांड पॉलिटी व डिमाण्ड पॉलिटी

 अर्थवएवस्था और राजनीति के बीच संबंध 

Rudolph & Rudolph अर्थव्यवस्था और राजनीति के बीच संबंधों को दो मॉडलों द्वारा प्रस्तुत करते है- कमांड पॉलिटी और डिमाण्ड पॉलिटी। वे भारतीय परिपेक्ष्य मे अर्थव्यवस्था और राजनीति के बीच संबंधों को समझाने के लिए इन मॉडलों का उपयोग करते है तथा भारतीय राजनीति में इनके बीच संबंधों को समझाने के लिए (Rudolph & Rudolph) ने इसे प्रमुख चार चरणों में विभाजित किया है। इन चरण में स्पष्ट रूप से शासन में यह देखा जा सकता है की कब कमांड पॉलिटी थी तथा कब डिमाण्ड पॉलिटी थी ।

लोकतान्त्रिक शासन / कमांड पॉलिटी 1 (1952-53) (1963-64)

अर्थव्यवस्था और राजनीति के बीच संबंध के प्रथम चरण को नेहरू युग के रूप में  देखा जाता है इस समय प्रमुख रूप से कमांड पॉलिटी शासन शासन में थी।

नेहरू युग की विशेषता एक लोकतान्त्रिक शासन और गैर:सत्तावादी कमांड पॉलिटी की थी। नेहरू के नेतृत्व वाली काँग्रेस सरकारें भविष्य में निवेश करने में सक्षम थी क्योंकि वे नेहरू के प्रेरक नेतृत्व, केंद्र में और राज्यों में काँग्रेस पार्टी के संगठनात्मक विंग की प्रभावशीलता और स्वायत्ता और आधिकारिक राज्य संस्थानों पर भरोसा कर सकते थे।

इन चरणों में डिमाण्ड पॉलिटी के मात्रात्मक संकेतक जैसे मतदाता मतदान, हड़ताल और उसके कारण होने वाली छूटियाँ तथा छात्रों की अनुशासनहीनता और दंगों की संख्या की घटनाए कम रही है।

1952, 1957 और 1962 के आम चुनावों में आर्थिक प्रदर्शन उत्कृष्ट था। इस युग में दूसरी और तीसरी पंचवर्षीय योजनाओ को शामिल किया गया, पूर्वेयपी रूप में एक प्रकार के राजनीतिक और आर्थिक स्वर्ण युग के रूप में दिखाई देती है।

जैसा की केन्द्र सरकार की पूंजी निर्माण में परिलक्षित होता है, पहली पंचवार्षिय योजना (1950-51) से पहले लगभग 25% से दूसरी और तीसरी पंचवार्षिय योजनाओ के दौरान औसतन 50% से कम के औसतन से बढ़ा, दूसरी योजना के अंतिम दो वर्षों के दौरान औद्योगिक उत्पादन में तेजी आई और तीसरे के पहले चार वर्षों में। (1965-66) के महान मानसून की विफलता के पहले वर्ष की पहली योजना (1955-56) और (1964-65) के अंतिम वर्ष के बीच 20% की वृद्धि के साथ अनाज के उत्पादन में वृद्धि हुई। (1956-66) की अवधि में मूल्य सूचकांक दस अंकों से अधिक बढ़ गया ।

लोकतान्त्रिक शासन / डिमाण्ड पॉलिटी 1 (1964-65 से 1974-75)

राजनीतिक और अर्थव्यवस्था के बीच संबंध के इस दूसरे चरण को डिमाण्ड पॉलिटी के रूप में देखा जाता है।  1964-65 में डिमाण्ड पॉलिटी प्रमुख रूप से उभर कर सामने आई और यह 1974-75 तक जारी रही।

कई बहिर्जात कारकों ने इसके उभरने में योगदान दिया है। इसमे सुरक्षा, राजनीतिक और आर्थिक घटनाओ के कारण होने वाली हानियाँ शामिल थी। चीन (1962) और पाकिस्तान (1965) के साथ युद्धों में सैन्य विफलता, दो प्रधानमंत्रियों (नेहरू, शास्त्री) की मौत, 1965-66 में खराब मानसून, जब खाद्य उत्पादन घटा और किमते बढ गई ।  इन घटनाओ ने डिमाण्ड पॉलिटी के उदय के लिए आवश्यक नहीं बल्कि आवश्यक परिस्थितिया बनाई और डिमाण्ड पॉलिटी उभर कर सामने आई।

1965 के बाद डिमाण्ड पॉलिटी के उदय के लिए मत्रात्मक और एतिहासिक साक्ष्य चुनावी भागीदारी, दंगों, हमलों, कृषि अशान्ति और छात्र अनुशासनहीनता में वृद्धि शामिल है।

बलदेव राज नायर:- ने दंगों के अनुपातों की व्याख्या की है। उनके अनुसार (1954-55) से (1963-64) और (1966-67) के बीच अचानक से दंगों मे तेजी देखी गई । अप्रैल, अगस्त 1966 यह वह समय था जब खाद्य की कमी थी तथा व्यापक रूप से व्यवसाय का निलंबन व भोजन, राशनिंग का विरोध किया गया तथा मूल्य वृद्धि, कर वृद्धि, जमाखोरी और मुनाफाखोरी आदि का विरोध करते हुए प्रदर्सन किया गया।

1972 के मध्य मे श्रीमती इंद्रा गांधी ने नेतृत्व मे काँग्रेस पार्टी ने 1969 की घटनाओ से यह अनुभव किया की कांग्रेस पार्टी नेहरू के समय की लोकतान्त्रिक शासन / कमांड पॉलिटी में लौट सकती है। उन्होंने 1969 मे पार्टी (कांग्रेस) का विभाजन किया तथा प्रविपर्स की समाप्ति की साथ ही साथ चौदह सबसे बड़े वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तथा गरीबी उन्मूलन के लिए 1971 में “गरीबी हटाओ” का नारा दिया।

इस दूसरी चरण में भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के बीच संबंध डिमाण्ड पॉलिटी से प्रारभं होकर धीरे से पार्टी के प्रयास करने पर यह परिवर्ती होकर पुनःकमांड पॉलिटी की तरफ अग्रसर हो गया।

सत्तावदी शासन / कमांड पॉलिटिक्स 2 (1975-76) से (1976-77)

इस तीसरे चरण में श्रीमती इन्द्र गांधी कमांड पॉलिटिक्स और कोपोरेट राजनीति के संस्करण ने हड़ताल और प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। विपक्षी नेताओ को गिरफ्तार किया गया, प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगाई गई तथा नागरिकों को उनके नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया गया, साथ ही साथ कमांड पॉलिटी को (1965-75) की अवधि को समाप्त कर दिया गया।

आपातकालीन शासन का घोषित उद्देश्य नागरिक व्यवस्था और आर्थिक अनुशासन को बहाल करना था। निरंकुश शासन की अवधि विश्वशनीय निष्कर्षों के support के लिए बहुत संक्षिप्त हो सकती है। आर्थिक संकेत को ने कुछ सकारात्मक प्रदर्शन का सुझाव दिया।

अनुकूल, मानसून की मदत से खाद्य उत्पादन में वृद्धि हुई इसलिए औद्योगिक उत्पादन भी तेजी से बढ़ा। हालांकि सत्तावदी शासन, मूल्य में गिरावट के बावजूद, पूंजी निर्माण के लिए समर्पित कुल व्यय के अनुपात को बढ़ाने के लिए दो बजटो मे सक्षम नहीं था। आनुपातिक रूप से, सार्वजनिक बजट में गिरावट आई और खपत व्यय में वृद्धि हुई।

लोकतान्त्रिक शासन / डिमाण्ड पॉलिटिक्स 2 (1977-78) से (1984-85)

भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के बीच संबंधों के इस अंतिम चरण में रुडोल्फ एण्ड रुडोल्फ के अनुसार डिमाण्ड पॉलिटिक्स का पुनरुत्थान होता है।

मार्च 1977 में जनता पार्टी ने अप्रत्याशित चुनाव जीत ने निरकुश शासन को समाप्त कर दिया जब इसकी सरकार ने संवैधानिक सरकार, एक उदार राज्य, और लोकतान्त्रिक राजनीतिक प्रक्रियाओ को बहाल किया, मात्रात्मक और गुणनात्मक साक्ष्य ने “मांग की राजनीति” (डिमाण्ड पॉलिटी) के पुनरुत्थान का संकेत दिया।

कांग्रेस सरकार 1980 मे सत्ता में लौटने के बाद बनी रही । 1980 में छात्र अनुशासनहीनता की दर और 1979 से 1984 तक “खोए गए कार्यदिवस” (workday’s lost form) यह 1960 के दशक को पर कर गए अर्थात इस दशक में छात्र अनुशासनहीनता और हड़ताल से होने वाली छूटियाँ (workday’s lost) का आंकड़ा पार हो गया।

गृह मंत्रालय ने (1978-79, 1979-80) और उसके बाद के लिया गंभीर कानून व्यवस्था की समस्याओ की सूचना दी तथा विशेष रूप से 1980-81 में किसानों के आंदोलन में पारिश्रमिक की कीमतों के लिए उपस्थिति का उल्लेख किया। एक ऐसा विकास जिसने मांग के लिए  नया निर्वाचन क्षेत्र का संकेत दिया साथ ही साथ 1984 में श्रम अशान्ति अभूतपूर्व स्तर पर पहुँच गई। 

1979 और 1982 में खराब मानसून के साथ साथ कृषि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि और उसके बाद होने वाली गिरावट को देखते हुए जनता सरकार और कांग्रेस सरकार दोनों ने इसका अनुसरण किया। 1970 के दशक के अंत मे लेकिन 1980 के दशक में औधयोगिक उत्पादन धीरे धीरे तेज हुआ।

समस्त रूप से 1960 और 1970 के दशक के “धीमी औद्योगिकीकरण” से नाता टूट और उसके विपरीत औधयोगिक विकास की दर में लाभ कार्यदिवसों (workday’s) में चिन्हित वृद्धि से कम हो गया। पूंजी निर्माण पर केंद्र सरकार के खर्च का अनुपात आपातकालीन स्तरों पर थोड़ा बढ़ गया।  एक लाभ जिसे कई लोगों ने निरथक माना, वह पूंजी उत्पादन अनुपात में स्पष्ट रूप से चिन्हित वृद्धि थी।

अतः इस प्रकार से Rudolph & Rudolph हमें भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के बीच संबंधो को विभिन्न चरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करते है जिससे कमांड और डिमाण्ड पॉलिटी की मुख्य भूमिका रही है।

निष्कर्ष

राजनीति और अर्थव्यवस्थअ कर बीच संबंधो का अध्ययन करने के पश्चात निष्कर्ष के तौर पर यह कहा गया जा सकता है की एक ओर शासन और दूसरी तरफ राजनीति और तीसरी ओर आर्थिक प्रदर्शन के बीच एक अनिश्चित संबंध है।


आपातकाल के समय सत्तावदी शासन ने कई सफलताएं प्राप्त की जमाखोरी नियंत्रण, काले धन की पुनःप्राप्ति, सरकारी कार्यालयो में बेहतर उपस्थिति, अनिवार्य जमा, अधिक कठोर कर संग्रह, कीमतों में गिरावट, एक वेतन फ्रीजेन्ट आदि। लेकिन यह भी सत्य है की नेहरू युग के दौरान और जनता सरकार (I.Gandhi or R.Gandhi) को सरकारों के तहत भी लोकतान्त्रिक शासन अच्छे आर्थिक प्रदर्शन के साथ जुड़े थे।

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