विकास योजना और भारतीय राज्य | पर्था चटर्जी
परिचय
पर्था चटर्जी अपनी पुस्तक (state and polities in India) में राष्ट्रीय योजना आयोग (NPC) का व्याख्यान करते है। भारतीय संदर्भ में इसकी कितनी सफलता रही है तथा यह अपनी उद्देश्यों को कितनी सीमा तक पूरा कर सकता है तथा इसकी असफल के क्या कारण रहें है, इसकी पूरी विस्तृत जानकारी मिलती है।
चटर्जी के अनुसार यह एक आभासी (truism) है की योजनबद्ध आर्थिक विकास के लिए किसी भी में कार्यकर्म में राज्य की केन्द्रीय भूमिका रही है। नियोजन में इसकी भूमिका किसी भी कारण से कम समस्याग्रस्त नहीं रही है।
योजना बनाने की योजना
अगस्त 1937 में, वर्धा में अपनी बैठक में (congress working committee) ने कांग्रेस मंत्रालयो को तत्काल और महातपूर्ण समस्याओ पर विचार करने के लिए एक समिति की सिफारिश करने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया गया।
इस समय कांग्रेस के भीतर दो दिग्गजे थी जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बॉस सहित वाम दल, इन्होंने यह तर्क देते हुए इस वैचारिक बहस को अलग रखने की मांग की की उद्योगों के प्रति कांग्रेस की नीति का पूरा प्रश्न एक अखिल भारतीय औधयोगिक योजना के ढांचे के भीतर हल किया जाना चाहिए, जो विशेष रूप से विशेषज्ञों को इस समिति की तैयारी करने के लिए कहा जाएगा।
तदनुसार, फरवरी 1938 में “हरीपुर कांग्रेस अधिवेशन” में अपने अध्यक्षीय भाषण में बॉस ने घोषणा की, की राष्ट्रीय योजना एक योजना आयोग की सलाह पर धीरे धीरे हमारे कृषि को सामाजिक रूप देने के लिए एक व्यापक योजना को अपनाएगी और उत्पादन व विनियोग के क्षेत्र में औधयोगिक प्रणाली को अपनाएगी।
पार्थ चटर्जी ने प्रमुख रूप से योजना आयोग के बारे में तीन महत्वपूर्ण पहलू इसके अभ्यास के रूप में देखा है जो निम्नलिखित है:-
First:- नियोजन राज्य नीति के निर्धारण के रूप में प्रकट होता है, शुरू में प्रांतिय कांग्रेस मंत्रालयों की आर्थिक नीतीयाँ लेकिन राष्ट्र राज्य की नीतियों के समन्वित और सुसंगत सेट के समग्र के ढांचे के लगभग तुरंत बाद ही एक ठोस विचार के रूप में कल्पना की जा रही थी।
Second:- राज्य नीति में एक अभ्यास के रूप में नियोजन ने पहले से ही अपने विशिष्ट तत्व को शामिल किया। विशेषज्ञों के एक निकाय के रूप में इसका संविधान और वैकल्पिक नीतियों का तकनीकी मूल्यांकन तथा वैज्ञानिक आधार कर रूप में इसकी गतिविधियों की।
Third:- एक “विशेषज्ञों की समिति” की अपील अपने आप में एक राजनीतिक बहस को हल करने में एक महत्वपूर्ण उपकरण थी, जो कांग्रेस के उभरते हुए राज्य नेतृत्व की चिड़चिड़ाहट थी।
j.c kumarappa:- ने NPC के पहले सत्र को औधयोगिकरण की योजनाओ पर चर्चा करने के लिए अपने अधिकारों पर सवाल उठाते हुए गतिरोध के लिए लाए। कांग्रेस द्वारा अपनाई गई राष्ट्रीय प्रथमिकता पर उन्होंने कहा की आधुनिक उद्योगवाद को प्रतिबंधित करने और समाप्त करने के लिए नेहरू ने हस्तक्षेप किया था और घोषणा की थी की समिति के अधिकांश सदस्यो ने महसूस किया था की बढ़े पैमाने पर अनिश्चितता को बड़ावा दिया जाना चाहिए क्योंकि यह “कुटीर उद्योग” के साथ संघर्ष में नहीं आया। बल्कि यह बदले हुए राजनीतिक संदर्भ पर जोर दे रहा है जिससे कांग्रेस काम कर रही था।
1940 के दशक की शुरुआत में, नियोजन ने एक संवैधानिक संस्थागत तौर तरीके को ग्रहण किया जो राज्य राष्ट्री के भीतर उत्पादन संसाधनों के भौतिक आवंटन का निर्धारण करेंगे।
नए राज्य की तर्कसंगतता
नए राज्य ने शक्ति के अभ्यास का एकमात्र वैध रूप का प्रतिनिधित्व किया क्योंकि यह राष्ट्र के विकास के लिए एक आवश्यक शर्त थी। विरोधाभास उसी तरीके से उपजा है जिसमे विकास संबंधी विचारधारा को अपने ऐतिहासिक मिशन के लिए राज्य के प्रमुख वाहन के रूप में जकड़ने की जरूरत थी। विकास ने एक रैखिक पथ को सीधे एक लक्ष्य की ओर, या चरणों द्वारा अलग किए गए लक्ष्यो की एक श्रंखला को निहित किया। इसके लंबे समय तक चलने वाले और छोटे छोटे लक्ष्यों के बीच प्राथमिकता को ठीक करने और वैकल्पिक रास्तों के बीच सचेत विकल्प को निहित किया। दूसरे शब्दों में इसे तर्कसंगत चेतन और इच्छाशक्ति पर, और जहाँ तक / विकास के रूप में पूरे समाज को प्रभावित करने वाले एक प्रक्रिया के रूप में सोच गया था।
हेगल के मर्मज्ञ तर्क ने हमें यह दिखाया की राज्य की इस सार्वभौमिक तर्कसंगतता को दो संस्थागत स्तरों पर व्यक्त किया जा जकता है।
- नौकरशाही को सार्वभौमिक वर्ग के रूप में।
- और सम्राट को राज्य की तत्काल मौजूदगी के रूप में।
नए राज्य ने नागरिक सेवा, पुलिस प्रशासन, नागरिक और आपराधिक कानून के कोड और सशस्त्र बलों के औपनिवेशिक काल में मौजूद रहने के साथ साथ सिविल सेवा की बुनियाद संरचना, लगभग एक अनछूए रूप में बनाए रखने के लिए चुना गया। जहाँ तक राज्य के सामान्य कार्यकारी कार्यों का संबंध था, नए राज्य तर्कसंगत सार्वभौमिकता के एक ढांचे के भीतर संचालित होता है जिसके सिद्धांतों को पूर्वर्ती राज्य संरचना मे निहित (भले ही वे गलत तरीके से लागू किए गए हो) के रूप में देखा गया था।
इसलिए योजना बनाना, इन सर्वभौमिक लक्ष्यों के तर्कसंगत निर्धारण और खोज का क्षेत्र था। यह एक नौकरशाही कार्य था जिसे नागरिक समाज के विशेष हितों से ऊपर के स्तर पर संचालित किया जाना था, और इसे संस्थागत राजनीति की सामान्य प्रक्रियाओ से बाहर और एक विकसात्मक प्रशासन के माध्यम से निष्पादन की नीति के एक क्षेत्र के रूप में संस्थागत बनाया गया था।
योजना और क्रियान्वयन
चक्रवर्ती ने हाल में हमें विकास योजना की सैद्धांतिक सीमाओ के भीतर से इस अनुभव का सारांश दिया है। इन परिप्रेक्ष्य से राजनितिक प्रक्रिया एक नियत और विद्यमान परिवर्तन प्रक्रिया के रूप में प्रकट होती है। जब प्रश्न योजना के कार्यान्वयन से उत्पन्न होता है। तब चक्रवर्ती नियोजन प्राधिकारियों को केन्द्रीय निर्देश देने वाली एजेंसी मानकर योजना क्रियान्वयन की समस्याओ पर चर्चा करते है। चक्रवर्ती पूरे देश विकास कार्यान्वयन के विफलता का कारण बताते हुए कहते हैं, ऐसा तब होता है जब :-
(क) योजना अधिकारी प्रासंगिक जानकारी इकट्ठा करने में अक्षम होते है।
(ख) जब उन्हें प्रतिक्रिया देने के लिए समय लगता है की अंतर्निहित स्थिति तब तक बदल जाती है।
(ग) जन सार्वजनिक एजेंसियां, जिनके माध्यम से योजनाओ को कार्यान्वित किया जाना है उन्हें बाहर ले जाने की क्षमता नहीं हैं।
चक्रवर्ती दोषपूर्ण कार्यान्वयन के लिए अग्रिन रूप से चिंतित है की योजनाकार राज्य की तर्कसंगत चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं, और नियोजन की वस्तुओ (object’s) का ज्ञान पैदा कर सकते है। इस अर्थ में, तथाकाथिक लागू करने वाली अजेंसियाँ भी नियोजन की वस्तुएं है, जो नियोजन की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, लेकिन क्षमता का निर्धारण करती हैं।
चक्रवर्ती के अनुसार वह योजना जो कार्यान्वयन एजेंसीयो की क्षमताओ का सही अनुमान नहीं लगा सकती है। वह एक अच्छी योजना नहीं हो सकती हैं। यहाँ नियोजन की तर्कसंगत्ता को (self deception) (आत्मप्रतारण) का अभ्यास करने के लिए एक आवश्यक (self deception) के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि इसके बिना यह स्वयं का गठन नहीं कर सकता था।
योजना आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले राज्यों को तर्कसंगत चेतना के ठोस अवतार के रूप में, और केवल ज्ञान की वस्तुओ के रूप में नियोजन की वस्तुओ का गठन करके आगे बढ़ा सकती हैं। यह ज्ञान उसके शक्ति के कुल विन्यास पर काम करने में सक्षम बनाता है, संकेतों का उत्पादन करने के लिए राज्य की कानूनी शक्तियों का उपयोग करता है और जिसके एजेन्टो के कार्यों को प्रभावित करता हैं।
एक नियोजन प्राधिकरण के रूप में राज्य समाज में सत्ता के असतत परस्पर विषयों के बीच सामंजस्य स्थापित करके विकास के सार्वभौमिक लक्ष्य को बढ़ावा दे सकतें है। यह शक्ति के सभी विषयों को ज्ञान के एक ही पिंड (single body) में बदल देता है
योजना बनाने की राजनीति
चक्रवर्ती कहतें हैं की 1950 के दशक की शुरुआत में, जब भारत में नियोजन प्रक्रिया शुरू की गई थी तब (कमोडिटी commodity) केंद्रित दृष्टिकोण पर आम सहमति थी।
जाहीर है की शुरू में विकास का केन्द्रीय जोर संचय (संग्रह accumulation) पर रखा जाना था लेकिन यह सभी कुछ नहीं था। चक्रवर्ती यह भी कहते है की जिस विशिष्ट संदर्भ में भारत में संचय की योजना बनाई गई थी उसे वैधता के साथ सामंजस्य सथापित करना था। सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर सरकार के प्रतिनिधित्व रूप को अपनाने से राजनीतिक शक्ति के प्रयोग पर प्रभाव पड़ता है, और इसलिए राष्ट्रीय आंदोलन की पूरी विरासत अपने विशेष उद्देश्यों के आर्थिक उद्देश्यों कए साथ निर्धारित की गई थी।
हालांकि इसे पूंजीवादी संचय के दीर्घकालिक उद्देश्यों के अनुरूप देखा जा सकता है, लेकिन इस आधार पर की यह एक उपयुक्त अविकसित गुणवत्ता श्रम शक्ति के निरंतर पुनरुत्पादन की सुविधा प्रदान करता है। यह भी माना जा सकता है की यह विपक्षी आंदोलनो और सामाजिक संघर्ष को बढ़ाने के लिए एक राजनीतिक प्रतिक्रिया थी। यदि औद्योगिकरण होना था, तब भी संचय (accumulation) राज्य का प्रमुख कार्य था। संचय ने जरूरी रूप से राज्य की शक्तियों के उपयोग को निहित किया, चाहे यह सीधे अपने कानूनी और प्रशासनिक संस्थानों के माध्यम से हो या कुछ के क्रत्यो के माध्यम से।
चक्रवर्ती के अनुसार भारत में सबसे पहले अपनाए गए विकास मॉडल में “Lewis model” का एक प्रकार था, जिसमें आधुनिक क्षेत्र टूट गया था और पारंपरिक क्षेत्र मे दो महत्वपूर्ण विविधताएं थी। यह माना जा रहा हा की आधुनिक क्षेत्र स्वयं को पूंजीगत वस्तुओ और उपभोक्ता कर क्षेत्र में विभाजित कर रहे है और आधुनिक क्षेत्र में पूंजीपतियों के बजाय प्रमुख भूमिका एक विकास नौकरशाही के लिए था।
निष्क्रिय क्रांति
एंटोनियो ग्राम्स्की ने निष्क्रिय क्रांति की बात की है, जिसमे नए लोगों को सत्ता मे लाने के लिए, पुराने प्रमुख वर्गी पर हमला करने के लिए सामाजिक ताकत का अभाव है। वे वह रास्ता चुनते हैं जिसमे एक नए समाज की मांगे पूरी होती है। एक सुधारवादी तरीके से कानूनी रूप से छोटे खुराकों से इस तरह से की पुराने सामंती वर्गों के राजनीतिक और आर्थिक पदों को नष्ट नहीं किया जाता हैं, कृषि सुधार से बचा जाता है और विशिष्ट रूप से लोकप्रिये जनता को एक fivadamnenta socitransformation के राजनीतिक अनुभव से गुजरने से रोका जाता है।
एक एतिहासिक मॉडल के रूप में, निष्क्रिय क्रांति वास्तव में उन समाजों में पूंजीवादी संक्रमण का सामान्य ढांचा है जहाँ बुजुरुआ आधिपत्य को सक्षत्रीय तरीके से पूरा नहीं किया गया है। निष्क्रिय (passive Revolution) में पूंजी, पूर्व-पूंजीवादी प्रमुख समूहों और लोकप्रिय जनता के बीच बलों के राजनीतिक संबंधो में एतिहासिक बदलावों को आकस्मिक संयुग्मन क्षणों की श्रंखला के रूप में देखा जा सकता है।
यह परियोजना राजनीतिक व्यवस्था का पुनर्गठन है लेकिन इसे दो मौलिक तरीकों से संचालित किया जाता है एक ओर यह उस अवधी में स्थापित तर्कसंगत प्राधिकरण के किसी भी संवैधानिक ढांचे को तोड़ने या बदलने का प्रयास नहीं करता है (औपनिवेशिक शासन)।
दूसरी ओर, यह सभी पूंजीवादी प्रभुत्वशाली वर्गों पर पूर्ण पैमान पर हमला भी नहीं करता है। निष्क्रिय क्रांति के राजनीतिक तर्क के संदर्भ में देखा जाए तो जिस रणनीति का आहन किया गया था वह कृषि राजनीति लामबंदी के जोखिम को उठाए बिना औद्योगिकारण को बढ़ावा देने में से एक थी। यह उपनिवेशवाद के बाद के राज्य के (hegemonic) निर्माण का एक अनिवार्य पहल था: सामाजिक संघर्ष के अनावश्यक अठोरता से बचने के दौरान वैधता के साथ संचय का संयोजन था।
योजना बनाने की राजनीति 2
Passive Revolution की रणनीति का उद्देश्य समाज में बिखरे हुए शक्ति संबंधो को नियंत्रित और संचय (accumulation) करने और प्रबंधनीय आयामों के बीच वर्ग संघर्ष को नियंत्रित करने का था। लेकिन संघर्षों को निश्चित रूप से पूरी तरह टाला नहीं जा सकता था और यदि विशेष हितों के बीच संघर्ष थे तो हितो पर आधारित लामबंदी केवल अपेक्षित लोकतंत्र की राजनीतिक प्रक्रिया के भीतर होने की उम्मीद थी। इस रणनीति का रूप यह है की राज्य इस बात पर जोर देता है की विशेष हितों के बीच संघर्ष, और आर्थिक समाधान को स्वीकार करता है। यहाँ आर्थिक का अर्थ प्रत्येक भाग का आवंटन जो समग्र के समग्र अवरोधो के अनुरूप हैं।
इस प्रकार एक विशेष रुचि, चाहे वह वर्ग, भाषा, क्षेत्र, जाति जनजाति या समुदाय के संदर्भ में व्यय की गई हो, की मान्यता दी जानी चाहिए और अन्य सभी भागों के सापेक्ष एक प्राथमिकता और आवंटन करके सामान्य framework के भीतर एक स्थान दिया जाना चाहिए। इसलिए एक ओर, हमारे पास राजस्व के वितरण को लेकर संघ और राज्यों के बीच सौदेबाजी की एक सतत प्रक्रिया है जिसे वित्त आयोग के रूप में ऐसे वैधानिक निकायों द्वारा क्रमबद्ध और तर्कसंगत के रूप से दिए जाने वाले मांग की जाती है। दूसरी ओर, हमारे पास संघीय संघ (federal union) के भीतर नए राज्यों की निर्माण की मांग के कई उदाहरण है तथा केंद्र और राज्यों के बीच संसाधनों के वितरण को लेकर भी समस्याएँ हैं।