मुख्य न्यायाधीश पद पर नियुक्ति और विवाद | योग्यता, कार्यकाल, महाभियोग
मुख्य न्यायाधीश पद पर नियुक्ति और विवाद
भारत में उच्चतम न्यायलय संविधान के रक्षक और संविधान के अन्तिम व्याख्याता के रूप में कार्य करता है। भारतीय उच्चतम न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन की व्यापक शक्तियां प्राप्त हैं। वह संसद द्वारा पारित ऐसी किसी भी विधि को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के विरूद्ध हो। इसी शक्ति के आधार पर वह संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता की रक्षा करता है। वह संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। प्रसिद्ध संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है।
प्रसिद्ध संविधान वेत्ता एम. सी. सीतलवाड़ ने ठीक ही लिखा है-“संविधान के अन्तिम व्याख्याता के रूप में चाहे वह मौलिक अधिकारों का क्षेत्र हो अथवा संघ और राज्य के बीच उठने वाले प्रश्न एवं देश के समस्त कानूनों और प्रथाओं पर आधारित नियमों का क्षेत्र हो, राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक उन्नति के यंत्र स्वरूप, सर्वोच्च नयायालय के प्रभाव पर बल देने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।”
भारत, के उच्चतम न्यायालय को विस्तत परामर्शदात्री शक्तियां प्राप्त हैं और सार्वजनिक महत्त्व के कानूनों तथा तथ्यों पर राष्ट्रपति ने अनेक बार उच्चतम न्यायालय के परामर्श से लाभ उठाया है। एम. वी. पायली के शब्दों में-“शायद ही कोई और न्यायालय ऐसा हा जिसे संविधान के अन्तर्गत इतना क्षेत्र, अधिकार एवं महत्त्व प्रदान किया गया हो।”
सर्वोच्च न्यायालय का संगठन
मूल रूप से सर्वोच्च न्यायालय के लिए मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीशों की व्यवस्था की गयी थी और संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों को वेतन और सेवा शर्ते निश्चित करने का अधिकार संसद को दिया गया है। संसद के द्वारा समय-समय पर कानून में संशोधन कर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या में वद्धि की गयी हैं। 1985 में विधि द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और 25 अन्य न्यायाधीशों होंगे। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करने में राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश से अवश्य ही परामर्श लेता है। विशेष स्थिति उत्पन्न होने पर भारत का मुख्य न्यायाधीश भारत के राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त कर तदर्थ न्यायाधीशों (Adhoc Judges) की नियुक्ति कर सकता है। इस प्रकार की तदर्थ नियुक्तियां करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश को उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेनी होगी जिसमें से न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाए। भारत में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति कनाड़ा में प्रचलित ऐसी ही प्रथा के समान है। सर्वोच्च या संधीय न्यायालय के पदनिवत न्यायाधीश को राष्ट्रपति की पूर्व-स्वीकति प्राप्त कर सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाया जा सकता है।
मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति और तत्सम्बन्धी विवाद
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में संविधान लागू किये जाने के समय से लेकर 1972 ई. तक यह परम्परा चली आ रही थी कि मुख्य न्यायाधीश के सेवानिवत होने के बाद उसके स्थान पर दूसरे मुख्य न्यायाधीशकी नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति द्वारा सेवानिवत होने वाले मुख्य न्यायाधीश से परामर्श अवश्य ही लिया जाता था और यह नियुक्ति न्यायाधीशों की वरिष्ठता के आधार पर की जाती थी।
केवल एक बार 1964 में श्री जफर ईमाम को उनकी वरिष्ठता के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद नहीं प्रदान किया गया, लेकिन यह निर्णय बहुत कुछ सीमा तक श्री जफर के स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों के आधार पर किया गया था, लेकिन अप्रैल 1973 में जब प्रधान न्यायामूर्ति श्री सीकरी सेवानिवत हुए तो तीन न्यायाधीशों (श्री शेलट,श्री हेगडे और श्री ग्रोवर) की वरिष्ठता का उल्लघंन करके श्री अजीतनाथ रे की मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति किया गया था।
श्री अजीतनाथ रे की नियुक्ति के सम्बन्ध में श्री सीकरी से परामर्श नहीं लिया गया था। समस्त देश के विधि जगत द्वारा इस नियुक्ति का घोर विरोध किया गया । अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश श्री सीकरी ने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि, “सरकारी निर्णय राजनीतिक था। श्री छगला ने कहा, “यह न्यायिक इतिहास का सर्वाधिक अंधेरा दिन है।”
सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन ने इसे पूर्णतया राजनीतिक और गुण से सम्बन्ध नहीं (Purely Political and having no relation to merits) बतलाया लेकिन दूसरी और सरकारी पक्ष का प्रतिपादन करते हए मन्त्री श्री कुमारमंगलम ने संसद में कहा कि “मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति मात्र वरिष्ठता के आधार पर नहीं की जा सकती और न्यायाधीश का दष्टिकोण, उनका सामाजिक दर्शन हवा का रूख पहचानने की उनकी शक्ति और संसद की सर्वोच्चता को मान्यता-सर्वोच्च न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति के महत्वपूर्ण आधार होने चाहिए।” उन्होंने स्पष्ट कहा कि “यह आज की सरकार के विवेक पर निर्भर है कि वह अपनी दृष्टि में उपयुक्त व्यक्ति का नियुक्त करे।
देश के सर्वोच्च न्याय आसन पर बैठने वाले का द्रष्टिकोण व दर्शन भी उपयुक्त होना चाहिए। इस विचार पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हए प्रसिद्ध विधिवेत्ता पालकीवाला ने कहा : “अनुभव से हमें सीखना चाहिए कि राजनीति में न्याय के तत्वों का प्रवेश उचित है, पर न्याय में राजनीति का प्रवेश विनाशकारी है। सरकार का यह दावा कितना असंगत है कि उसे सर्वोच्च न्यायालय में ऐस न्यायाधीश नियुक्त करने का अधिकार है जो सत्ताधारी दल के दर्शन में आस्था रखते हैं। मान लीजिए एक ऐसा दल सत्ता में पहुंचे जिसकी विचारधारा संविधान के विपरीत हो, तो ऐसी अवस्था में न्यायाधीश संविधान का पालन करेंगे या सत्ताधारी दल के दर्शन का।”
इस नियुक्ति के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय के तीनों न्यायाधीशों-श्री शेलेट, श्री हेगड़े और श्री ग्रोवर ने त्यागपत्र दे दिया। समस्त देश में व्यापक रूप से शंका व्यक्त की गयी कि मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में अपनायी गयी यह नवीन सरकारी नीति न्यायपलिका को कार्यपालिका की चेरी बना देगी और इससे न्यायपलिका की स्वतन्त्रता तथा प्रतिष्ठा पर आघात पहुंचेगा। समस्त स्थिति पर विचार करने के लिए 11 और 12 अगस्त को दिल्ली में सर्वोच्च न्यायालय बार ऐसोसिशन के तत्वाधान में ‘अखिल भारतीय अधिवक्ता सम्मेलन’ हुआ।
जिसमें लगभग 700 प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास किया गया कि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति अधिवक्ता संघ और न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व करने वाली समितियों की सिफारिश पर होनी चाहिए और उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ही नियुक्त किया जाना चाहिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और सम्मान को बनाए रखने को दृष्टि से उपर्युक्त सुझाव निश्चित रूप से विचार योग्य है।
सन् 1977 में पुनः 1973 के ही ढंग पर मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की गयी। जनवरी 1977 में मुख्य न्यायाधीश श्री अजीतनाथ रे के कार्यकाल की समाप्ति पर वरिष्ठता के आधार पर श्री एच. आर. खन्ना को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए था, लेकिन जस्टिस खन्ना की नियुक्ति करने के स्थान पर जस्टिस मिर्जा हमीदुल्ला बेग को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिशन द्वारा इस नियुक्ति की आलोचना की गयी और अपनी वरिष्ठता का उल्लंघन किये जाने के विरोध में न्यायाधीश एच. आर. खन्ना के द्वारा त्यागपत्र दे दिया गया।
मुख्य न्यायाधीश पद पर नियुक्ति और विवाद का निराकरण (फरवरी 1978)-
1977 में सत्तारूढ़ शासक वर्ग न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और उसकी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए वचनबद्ध था। अतः मुख्य न्यायधीश पद पर नियुक्ति के सम्बन्ध | में वरिष्ठता के सिद्धान्त को पुनः स्वीकार करते हुए फरवरी 1978 मे श्री वाई. वी. चन्द्रचूड़ के नियुक्त किया गया। अजीतनाथ रे के कार्यकाल की समाप्ति पर तत्कालीन शासक दल के कुछ नेताओं और कुछ विख्यात विधिवेत्ताओं ने कहा कि श्री चन्द्रचूड़ को मुख्यन्यायाधीश के पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। उनका कहना था कि मुख्य न्यायाधीश से जिस वैचारिक स्वतन्त्रता और निष्पक्षताकी आशा की जाती है, उसका उनमें दुःखद अभाव रहा है।
अप्रैल 1976 में बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) के मामले में उन्होंने साहसपूर्ण निर्णय नहीं दिया। बी. एम. तारकुण्डे के अनुसार, “बन्दी प्रत्यक्षीकरण मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कानूनी दष्टि से तो कमजोर है ही, जनता और देश के लिए भी यह गम्भीरतम खतरे से भरा है। वह न्याय की धारणा का ही मखौल है। श्री छगला के द्वारा भी ऐसा ही विचार व्यक्त किया गया, लेकिन इस प्रकार की आपात्तियों को अस्वीकार करते हुए सरकार द्वारा सोचा गया कि मुख्य न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सुनिश्चित परम्पराओं को अपनाया जाना चाहिए। शासन का यह कार्य न्यायपालिका की स्वतन्त्रता तथा उसके सम्मान को बनाए रखने की दृष्टि से उचित है ।
वस्तुतः मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ सिद्धान्त निश्चित किये जाने चाहिए, जिससे कि न्यायिक क्षेत्र की इन सर्वोच्च नियुक्तियों के सम्बन्ध में शासन के द्वारा मनमाना आचरण न किया जा सके और न्यायाधीश पद तथा न्यायाधीश पदधारी व्यक्ति विवाद के विषय न बनें। विधि आयोग ने भी अपनी 80वीं रिपोर्ट में कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में वरिष्ठता के सिद्धान्त का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की रक्षा और लोकतन्त्र के सुचारू संचालन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है।
न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में वर्तमान प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124 में प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय की नियुक्ति में राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श अवश्य ही लेगा। इस बात को लेकर विवाद था कि क्या राष्ट्रपति अकेले मुख्य न्यायाधीश के परामर्श को मानने के लिए बाध्य है?
इस विवाद के समाधान हेत राष्ट्रपति द्वारा जलाई 1998 में एक सन्दर्भ (Reference) सर्वोच्च न्यायालय को भेजा गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस संदर्भ पर 28 अक्टूबर, 1998 को लिए गए निर्णय के आधार पर अब सर्वोच्च न्यायलय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया इस प्रकार है :
राष्ट्रपति द्वारा ये नियुक्तियां सर्वोच्च न्यायालय से प्राप्त परामर्श के आधार पर की जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इस प्रसंग में राष्ट्रपति को परामर्श देने से पूर्व ‘चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह’ से लिखित परामर्श प्राप्त करेंगे तथा इस परामर्श के आधार पर राष्ट्रपति को परामर्श देंगे।
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने अपने सर्वसम्मत निर्णय में कहा है कि, “वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह को एकमत से और लिखित में सिफारिश करनी चाहिए। जब तक न्यायाधीशों के समूह की राय मुख्य न्यायाधीश के विचार से मेल न खाए, तब तक मुख्य न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति से कोई सिफारिश नहीं जानी चाहिए।”
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि, “यदि भारत के मुख्य न्यायाधीश परामर्श की प्रक्रिया पूरी किए बिना न्यायाधीशों की नियुक्ति और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को सिफारिश करते हैं तो सरकार ऐसी सिफारिश मानने के लिए बाध्य नहीं है।”
न्यायिक नियुक्तियों में दखलन्दाजी
हाल ही में ये तथ्य उभर कर सामने आया है कि न्यायिक नियुक्तियों में ‘चयन समिति की सिफारिश’ के बावजूद राष्ट्रपति भवन की दखलन्दाजी बढ़ने लगी है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट में चार न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने फाईल पर यह आसाधारण टिप्पणी दर्ज कर दी थी कि सुप्रीम कोर्ट की पीठ में होने वाली नियुक्तियों में भी अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण होना चाहिए।
इसी चरण में राष्ट्रपति भवन ने सुप्रीम कोर्ट में तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी प्रस्ताव को महीने भर से ज्यादा समय से लटकाए रखा । पर मुख्य न्यायाधीश आदर्श सेन आनन्द के नेतत्व वाली मौजूदा न्यायपालिका उच्च न्यायालयों समेत किसी भी स्तर पर किसी रूप में कार्यपालिका की दखजन्दाजी के सख्त खिलाफ है।
न्यायाधीशों की योग्यता
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में अग्रलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है :
- वह भारत का नागरिक हो।
- वह किसी उच्च न्यायालय अथवा ऐसे दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो।
- किसी उच्च न्यायालय अथवा न्यायालयों में लगातार, 10 वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रह चुका हो।
या
- राष्ट्रपति के विचार में एक पारंगत विभिन्नता यह अन्तिम उपबन्ध वस्तुतः नियुक्ति के क्षेत्र को व्यापक करने के लिए रखा गया है।
इस उपबन्ध के अनुसार किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाला कोई विख्यात न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश पद पर नियुक्त किया जा सकेगा। संविधान में यह स्पष्ट रूप से लिखित है कि सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश भारत राज्य क्षेत्र में किसी न्यायालय अथवा किसी अन्य पदधिकारी के न्यायालय में वकालत नहीं कर सकता है और न वह किसी न्यायालय में किसी अन्य रूप में कार्य कर सकता है।
कार्यकाल तथा महाभियोग
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सेवानित्तित की आयु 65 वर्ष है। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरीका के संविधान की भांति भारतीय संविधान में आजीवन कार्यकाल की व्यवस्था व्यवहारतः वैसी ही है, क्योंकि भारत में औसत आयु को देखते हुए 65 वर्ष की आयु बहुत होती है। इसके अतिरिक्त, संविधान के अनुच्छेद 128 में किसी सेवानिवत न्यायाधीश की नियक्ति करने की भी विशेष व्यवस्था की गयी है।
इस अवस्था के पर्व वह स्वयं त्यागपत्र दे सकता है। इसके अतिरिक्त, सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से केवल प्रमाणित दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर ही हटाया जा सकता है। इस प्रकार के महाभियोग की कार्यविधि निश्चित करने का अधिकार संसद का प्राप्त है। कार्यविधि चाहे जो हो, लेकिन संसद के दोनों सदनों को अलग-अलग अपने कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत और उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई मत से प्रस्ताव पास करना होगा और वह प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजा जाएगा।
उसके बाद राष्ट्रपति उस न्यायाधीश की पदच्युति का आदेश जारी करेगा। इस संबन्ध में यह आवश्यक है कि न्यायाधीश के विरूद्ध महाभियोग का प्रस्ताव एक ही सत्र में स्वीकार होना चाहिए और न्यायाधीश को अपने पक्ष के समर्थन तथा उसकी पैरवी का पूरा अवसर प्रदान किया जाएगा।
वेतन, भत्ते और सेवा शर्ते
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतन दिए जाएंगे जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे। ‘उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश सेवा शर्त संशोधन विधेयक 1998 के आधार पर इन न्यायाधीशों के वेतन में आवश्यक सुधार किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के लिए 33 हजार रू मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों के लिए 30 हजार रू मासिक निर्धारित किया गया है।
न्यायाधीशों को यह संशोधित वेतन 1 जनवरी, 1996 से देय है। इन न्यायाधीशों को मासिक भत्ता, यात्रा भत्ता, निवास सुविधा, स्टाफ कार, सीमित मात्रा में पेट्रोल तथा अन्य कुछ सुविधाएँ भी प्राप्त होती है। न्यायाधीशों के लिए पेन्शन और सेवानिवत (ग्रेच्चटी) की व्यवस्था सर्वप्रथम 1976 में की गई थी। 198 सेवा शर्तो में भी उल्लेखनीय सुधार किया गया है। पेन्शन की अधिकतम सीमा मुख्य न्यायाधीश के लिए 60 हजार रूपये वार्षिक व अन्य न्यायाधीशों के लिए 54 हजार रूपये वार्षिक है।
ग्रेच्युटी 30 हजार रूपये से बढ़ाकर 50 हजार रूपये कर दी गयी है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के बाद उनके, भत्ते, आदि में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। उन्हें वेतन व भत्ते भारत की संचित निधि से दिये जायेंगे जिस पर भारतीय संसद को काई अधिकार प्राप्त नहीं है।
उन्मुक्तियां (Immunities)-न्यायाधीशों को अपने सभी कार्यो और निर्णय के लिए आलोचना से मुक्ति प्रदान की गयी, किन्तु न्यायालय के किसी निर्णय या किसी न्यायाधीश की किसी सम्मत्ति की शैक्षणिक दष्टि से आलोचनात्मक विवेचना की जा सकती है। न्यायाधीश पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता है कि उन्होंने किसी प्रेरणा या हितवश एक विशेष प्रकार का निर्णय दिया।
संसद के द्वारा भी महाभियोग के प्रस्ताव पर विचार करने के अतिरिक्त अन्य किसी समय पर न्यायाधीशों के आचरण पर विचार नहीं किया जा सकता है। न्यायालय को अधिकार प्राप्त है कि वह अपना सम्मान बनाये रखने और शत्रुतापूर्ण आलोचना से अपनी रक्षा करने के लिए किसी भी तथा कथित अपराधी के विरूद्ध न्यायालय के अवमान की कार्यवाही कर सके।
सन् 1953 में इस न्यायालय के एक निर्णय पर ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ द्वारा की गयी एक टिप्पणी के कारण उस समाचार-पत्र के सम्पादक, मुद्रक और प्रकाशक के विरुद्ध न्यायालय अवमान की कार्यवाही की गयी थी। न्यायालय अवमान की कार्यवाही ने केवल गरिमा की रक्षा करने हेतु वरन ऐसे कार्य को रोकने के लिए भी की जा सकती है, जिसका इसकी निष्पक्ष निर्णय की शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका हो। ‘दीक्षित बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा ही निर्णय दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय का अवस्थापन
संविधान में सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार दिया गया है कि वह स्वयं अपना अवस्थापन (Establishment) रखे और उस पर पूरा नियन्त्रण भी रखें। इस सम्बन्ध में संविधान निर्माताओं का उचित रूप से यह मत था कि यदि इस प्रकार की व्यवस्था न हो तो न्यायालय की स्वाधीनता केवल एक भ्रम ही सिद्ध होगी।
सर्वोच्च न्यायालय के पदाधिकारियों और कर्मचारियों की सब नियुक्तियां मुख्य न्यायाधीश द्वारा या उसके द्वारा इस कार्य पर लगाये गये किसी अन्य न्यायाधीश द्वारा या पदाधिकारी द्वारा की जाती हैं। इन पदाधिकारियों की सेवा शर्ते भी इस न्यायालय द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं, उन पर होने वाले व्यय तथा न्यायालय के अवस्थापन के अन्य व्यय भारत की संचित निधि से किये जाते हैं।
यह भी पढ़ें:- सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां (Power of the Supreme Court)
References:-