नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रता | Negative and Positive Liberty
साधारणतः स्वतंत्रता की मांग इस आधार पर की जाती है कि ‘मनुष्य विवेकशील प्राणी है’ (‘Man is a rational creature’)। इस विचार की व्याख्या करते हुए जे.आर. ल्यूकस ने ‘द प्रिंसिपल्स ऑफ़ पॉलिटिक्स’ (राजनीति के सिद्धांत) (1976) के अंतर्गत लिखा है : “स्वतंत्रता का तात्त्विक अर्थ यह है कि विवेकशील कर्ता (Rational Agent) को जो कुछ सर्वोत्तम प्रतीत हो, वही कुछ करने में वह समर्थ हो और उसके कार्य-कलाप बाहर के किसी प्रतिबंध से न बँधे हों।
नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रता (Negative and Positive Liberty)
जब हम स्वतंत्रता की परिभाषा केवल ‘प्रतिबंध के अभाव’ (Absence of Restraint) के रूप में देते हैं तब हमारा ध्यान उसके नकारात्मक पक्ष पर केंद्रित होता है। दूसरे शब्दों में, हमारा अभिप्राय यह होता है कि यदि कोई व्यक्ति कुछ करना चाहता हो और कर भी सकता हो, तो उसे वैसा करने से रोका न जाए। इस तरह की स्वतंत्रता को औपचारिक स्वतंत्रता (Formal Liberty) या नकारात्मक स्वतंत्रता (Negative Liberty) कहते हैं। यह केवल अनुमति की सूचक है, और इससे ऐसा क़तई कोई संकेत नहीं मिलता कि व्यक्ति जो कुछ करना चाहता है, उसमें उसे कोई सहायता भी दी जाएगी। व्यक्ति को नकारात्मक स्वतंत्रता प्रदान करते समय राज्य केवल अपने ऊपर संयम रखता है, सामाजिक व्यवस्था से कोई छेड़छाड़ नहीं करता वह यह नहीं देखता कि इस स्वतंत्रता का लाभ कौन-कौन-से, और कितने लोग उठा पाएंगे?
ज़ाहिर है, इस तरह की स्वतंत्रता सर्वसाधारण के लिए पर्याप्त नहीं है। जब समाज भारी आर्थिक विषमताओं से ग्रस्त हो, तब नकारात्मक स्वतंत्रता इन विषमताओं के प्रति तटस्थता (Indifferencc) का दृष्टिकोण अपनाती है। जो स्वतंत्रता बलवान् और निर्बल, धनवान् और निर्धन सबको खुला छोड़ देती है, उसकी आड़ में बलवान् निर्बल को और धनवान् निर्धन को अवश्य सताएगा। निर्बल और निर्धन को सच्ची स्वतंत्रता दिलाने के लिए बलवान् और धनवान पर प्रतिबंध लगाना होगा; निर्बल को सुरक्षा प्रदान करनी होगी, निर्धन की आर्थिक स्थिति सुधारनी होगी। यहीं से सकारात्मक स्वतंत्रता की मांग शुरू होती है ।
सकारात्मक या तात्विक स्वतंत्रता (Positive or Substantive Liberty) का अर्थ यह है कि कमजोर वर्गों की सामाजिक और आर्थिक असमर्थताओं को दूर करने के ठोस प्रयत्न किए। जाएं ताकि सबको अपने सुख के साधन जुटाने का उपयुक्त अवसर मिल सके। इसके लिए सामाजिक-आर्थिक जीवन के विस्तृत विनियमन (Regulation) की आवश्यकता हो सकती है। ये सारे विनियम और प्रतिबंध समाज के शक्तिशाली या प्रभुत्वशाली वर्गों (Dominant Classes) की स्वतंत्रता में कटौती कर सकते हैं, परंतु ये स्वतंत्रता के सिद्धांत को सार्थक रूप देने के लिए अनिवार्य होंगे।
साधारणतः राजनीतिक, नागरिक या क़ानूनी स्वतंत्रता अपने-अपने सीमित अर्थ में नकारात्मक स्वतंत्रता होती है। उदाहरण के लिए, वाणी की स्वतंत्रता (Freedom of Speech), उपासना की स्वतंत्रता (Freedom of Worship), इत्यादि। केवल यह सूचित करती हैं कि व्यक्ति के किन-किन कार्यों पर राज्य की ओर से कोई प्रतिबंध नहीं होगा। परंतु सामाजिक आर्थिक स्वतंत्रता सकारात्मक स्वतंत्रता की मांग करती है।, उदाहरण के लिए, भूख-प्यास या लाचारी से स्वतंत्रता (Freedom from Hunger or Compulsion)।
सकारात्मक स्वतंत्रता की द्योतक है क्योंकि इसकी स्थापना के लिए राज्य को ठोस प्रयत्ल करने होंगे स्वतंत्रता का सकारात्मक पक्ष ही उसे सामाजिक संकल्पना में परिणत कर देता है क्योंकि स्वतंत्रता का यह सिद्धांत उन प्रतिबंधों और विवशताओं को हटाने की मांग करता है जो सामाजिक व्यवस्था से पैदा हुई हों, और जिन्हें हटाना व्यावहारिक भी हो। बहुतसे मामलों से हम क्षमता के अभाव में विवशता अनुभव करते हैं, फिर भी उसकी शिकायत नहीं करते। हम पंख लगाकर आज़ाद पंछी की तरह आकाश में उड़ नहीं सकते, फिर भी यह शिकायत नहीं करते कि हम स्वतंत्र नहीं।
वस्तुतः प्रकृति ने हमें जिन भी क्षमताओं से वंचित रखा है, और जिन विवशताओं पर विजय प्राप्त करना संभव नहीं, उनकी शिकायत कोई नहीं करता। दूसरे शब्दों में, शिकायत वहां की जाती है जहां हमारी विवशताएं सामाजिक व्यवस्था का परिणाम हों, अर्थात् जहां सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करके उन विवशताओं को दूर किया जा सके।
देखा जाए तो शक्ति की विषमता (Inequality of Power) स्वतंत्रता के सिद्धांत को अपने तर्कसंगत परिणाम तक पहुँचने से रोकती है। यदि सब लोगों को औपचारिक दृष्टि से समान स्वतंत्रता प्राप्त हो तो भी शक्ति की विषमता उसे निरर्थक बना देती है। एल.टी. हॉबहाउस ने अपनी महान् कृति ‘एलीमेंट्स ऑफ़ सोशल जस्टिस’ (सामाजिक न्याय के मूलतत्त्व) (1922) के अंतर्गत बिल्कुल सही लिखा है :
“जब कमज़ोर पक्ष को यह अधिकार दिया जाता है कि यदि उसके पास भी वैसे ही साधन मौजूद हों तो, वह उनका प्रयोग कर सकता है, तो ऐसी स्वतंत्रता से उसका कुछ नहीं बनेगा, क्योंकि इस तरह उसे यथार्थ और तात्कालिक संरक्षण तो प्राप्त होगा नहीं। यह बात ज़ाहिर है कि कमज़ोर पक्ष को प्रतिशोध के अधिकार की ज़रूरत नहीं होती बल्कि उसे जो अधिकार प्राप्त हैं, उनका प्रयोग करने के लिए सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए।”
संक्षेप में, नकारात्मक स्वतंत्रता उन लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण होगी जो स्वयं अपने जीवन को मनचाहा रूप देने में समर्थ हों। परंतु जो लोग सामाजिक-आर्थिक विवशताओं से घिरे हों, और अपने जीवन को सँवारने में सर्वथा असमर्थ हों, उनके लिए सकारात्मक स्वतंत्रता की व्यवस्था आवश्यक होगी।
स्वतंत्रता (Liberty)
नकारात्मक (Negative) वह स्थिति जिसमें व्यक्ति अपने जीवन को मनचाहा रूप देने में समर्थ हो, और राज्य उसके रास्ते में कोई रुकावट पैदा न होने दे।
सकारात्मक (Positive) वह स्थिति जिसमें व्यक्ति अपने जीवन को मनचाहा रूप देने में असमर्थ हो, और राज्य उसकी इस असमर्थता को दूर करने के लिए ठोस कार्रवाई करे।
समकालीन उदारवादी चिंतन के अंतर्गत आइज़िया बर्लिन (1909-97), एफ़.ए. हेयक (1899-1992) और मिल्टन फ्रीडमैन(1912-2006)ने सकारात्मक स्वतंत्रता के मुकाबले नकारात्मक स्वतंत्रता को प्रमुखता देकर स्वतंत्रता के सार-तत्त्व को असीम क्षति पहुँचाई है।