संविधान की ऐतिहासिक उत्पत्ति [बहस] | संविधान सभा की बहस
संविधान की ऐतिहासिक उत्पत्ति और संविधान सभा की बहस
भारतीय संविधान भारतीय व्यवस्था का आधार है। भारतीय संविधान औपनिवेशिक दुनिया में सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाला संविधान है तथा यह भारत के सार्वजनिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित करता है। भारतीय संविधान का भारतीय नागरिकों के दैनिक जीवन की संरचना में बहुत अधिक महत्व है तथा भारत के सभी नागरिकों को भारतीय संविधान में स्थान प्रदान किया गया है एवं विदेशी अल्पसंख्यकों के लिए भी भारतीय संविधान में प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान में परिवर्तन की राजनीति को चिन्हित किया गया तथा क्रांतिकारी परिवर्तन के क्षणों को संविधान में सूचीबद्ध किया गया।
15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को भारत राष्ट्र को स्वतंत्र घोषित कर दिया गया तथा स्वतंत्रता के लगभग 4 वर्ष पश्चात भारत राष्ट्र में संविधान को लागू किया गया। 1946 में भारतीय संविधान के मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया में बहुत सारे वर्गों के हितों को अनदेखा किया गया। संविधान में अपने हितों की मांग करना, सुझाव देना इन सभी कार्यों के लिए नागरिकों ने अदालतों का सहारा लिया, जिसमें स्थितियों ने कभी कभी भयंकर रूप भी धारण किया।
15 अगस्त 1947 के पश्चात कि नागरिकों ने अदालतों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। भारतीय संविधान द्वारा भारतीय सर्वोच्च न्यायालय को सर्वाधिक शक्ति प्रदान की है। संविधान की व्यवस्था करने का एकमात्र अधिकार केवल सुप्रीम कोर्ट को है तथा किसी भी फैसले पर अंतिम विचार सुप्रीम कोर्ट का होगा जो सर्वमान्य होगा।
भारतीय संविधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट की सीमाएं स्थानांतरित नहीं किया जा सकता विद्वानों के अनुसार अदालतें सार्वजनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए आए हैं तथा राज्य को उचित आकार सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिया गया है।
रिट:- एक उच्च न्यायालय द्वारा जारी किया जाने वाला आदेश है जो एक निचली प्राधिकरण या सरकारी अधिकारी को प्रशासनिक कर्तव्यों को सही ढंग से निष्पादित करने के लिए जारी किया जाता है। उच्च न्यायालय ने रिट के लिए सिर्फ मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है लेकिन यह भी सरकार ने अपने अर्ध न्यायिक अधिकार को लागू करने या वैधानिक प्रावधानों को लागू करने में अपनी शक्ति की सीमा को रोक सकता है।
विजय के रूप में संविधान
संविधान सभा द्वारा भारत में एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करने वाला संविधान लागू किया तो उससे क्या बदला? इस प्रश्न का उत्तर दो कहानियों के द्वारा दिया जाता है जिसमें पहली कहानी विजयी संवैधानिक की है। विजय संवैधानिक भारतीय राजनेताओं तथा वकीलों के द्वारा संचालित कहानी है तथा भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सबसे अच्छी तरह वर्णित किया है जिसमें किसी भी तरह के भेदभाव की मनाही है।
यह संविधान में संप्रभु इच्छाशक्ति को सर्वोपरि रखा गया तथा इसके लिए संवैधानिक सिद्धांत कारों को जिम्मेदार ठहराया गया। संविधान स्थापना के क्षण संविधान की सफलता तथा एक लोकप्रिय राष्ट्रीय आंदोलन की स्थापना जिसका नेतृत्व दूरदर्शी नेताओं ने कानून के शासन के लिए किया था। उस आंदोलन की रक्षा के लिए पिछले दशक राजनीतिक सिद्धांतकारों को बचाव के लिए आगे आना पड़ा।
भारतीय संविधान के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संविधान सभा द्वारा संविधान को नैतिक दस्तावेज के रूप में भी परिभाषित किया गया। भारतीय संविधान में राजनीतिक सिद्धांतों के मूल विरोध जैसे संवैधानिक था तथा लोकप्रिय संप्रभुता, व्यक्तिगत तथा सामूहिक अधिकार, धर्म तथा धर्मनिरपेक्षता के बीच तनाव के कार्य ने इस छोटे लेकिन महत्वपूर्ण निकाय ने भारतीय संविधान को उन सिद्धांतों के लिए खोल दिया जो इन मूल्यों की तलाश कर रहे थे एवं दक्षिणी दुनिया से राजनीतिक सिद्धांत का संग्रह चाहते थे।
विश्व में परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय संविधान में परिवर्तनीय कार्य हो रहे थे। सार्वभौमिक मताधिकार का संस्थागतकरण एक गहरे श्रेणीबद्ध समाज में क्रांतिकारी कार्य था खासकर जब मत अधिकार हाल ही में विभिन्न परिपक्व पश्चिमी लोकतंत्र में महिलाओं, गोरे रंग के लोगों तथा कामकाजी पुरुषों को दिया गया हो।
बिना किसी प्रतिबंध के मताधिकार संप्रदायिक पहचान तथा संपत्ति उपनिवेशवाद से जुड़े सीमित मताधिकार पर एक विराम था। यह उल्लेखनीय है कि आर्थिक तथा सामाजिक आभाव का प्रश्न भारतीय संविधान के लिए केंद्र में था। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक तथा सामाजिक व राजनीतिक न्याय की गारंटी दी है।
संविधान ने ही भूमि सुधार के लिए भूमि का अधिकार निर्धारित किया था, संयुक्त राष्ट्र की सहायता से अस्पृश्यता तथा मानव तस्करी को समाप्त किया, महिलाओं तथा बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किए जाने की अनुमति दी तथा धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों को विभिन्न अधिकार प्रदान किए।
राज्य के नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत, संविधान ने यह निर्धारित किया कि शासन के मूल सिद्धांत क्या कहते हैं-
- संसाधनों का न्याय संगत वितरण
- निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा
- उचित काम की स्थिति तथा जीवित मजदूरी
- पुरुष एवं महिलाओं के लिए सामान मजदूरी
- बाल श्रम का उन्मूलन
- शराब का निषेध तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार
डॉ भीमराव अंबेडकर द्वारा संविधान सभा को आश्वस्त किया गया। राज्य के नीति निर्देशक तत्व में आर्थिक सवालों से लेकर नैतिक उपदेशों तक के संस्थागत आकांक्षाओं को शामिल किया गया तथा इसने स्वतंत्रता को सामाजिक तथा आर्थिक असमानता को दूर करने से भी जोड़ा।
एक उदार संविधान के माध्यम से सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन का वादा करना एक अद्वितीय पूर्ण घटना थी जिसको लेकर नीति निर्देशक तत्वों ने उदारवादी सिद्धांतकारों को आह्वान किया की नैतिक साधनों द्वारा असमानता तथा भौतिक विनाश के सामाजिक प्रश्नों को हल करने का फल आतंक तथा निरंकुशता को जन्म देगा। इस अहान के पश्चात बौद्धिक इतिहासकार संविधान के प्रभाव के विषय में सतर्क रहें तथा उन्होंने दोहराया कि संविधान एक कुलीन परियोजना थी जो भारत के लोगों को उनके राजनीतिक अभिजात वर्ग द्वारा उपहार में दिया गया।
सुनील खिलनानी ने यह चेतावनी दी कि लोकतंत्र तथा समानता के शक्तिशाली विचारों ने बौद्धिक तथा अंग्रेजी बोलने वाले कुछ हद तक सभी लोगों को राजी कर लिया था तथा उनके पास किसी विशेष शक्तिशाली समूह का समर्थन नहीं था।
संविधान: एक भ्रम के रूप में
भारतीय संविधान को कई लोगों ने भ्रम एक दस्तावेज के रूप में देखा तथा संविधान के वादे को एक भ्रम के रूप में। संविधान द्वारा निर्मित “ई सीटेरेंट तथा देसपाइट” को संभवत सादात हसन मानो ने अपनी कहानी नया कानून में बताया है। या कहानी भारत सरकार अधिनियम 1935 के पारित होने के पश्चात उत्साहित तथा जागरूकता के विषय में चर्चा करती है जिसने भारतीयों में अधिक स्वशासन लाने का वादा किया।
यह कहानी उत्तर भारत औपनिवेशिक संविधान पर एक चर्चा है। इतिहासकारों तथा संवैधानिक विद्वानों ने हसन मानो की इस कहानी को मुक्ति के तमाशा के रूप में बदल दिया आपत्ती मुक्ति की दृष्टि के बीच की खाई जो कानून वादा करता है तथा वास्तविकता में हिंसा का कानून प्रदर्शित करता है।
आमिर मुफ्ती ने इसे सबाल्टर्न संघर्षों तथा बुर्जुआ संघर्षों आकांक्षाओं के बीच विसंगति के रूप में वर्णित किया। 1935 के बाद भारत के नए संविधान ने भारत की औपनिवेशिक सरकार अधिनियम से पुनः पेश किया तथा अपने विवादास्पद आपातकालीन शक्ति को समाप्त कर दिया तथा मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया तथा आम आदमी की अदालत तक पहुंच बढ़ाई।
संसद का जीवन तथा लोकतंत्र को भंग करना संवैधानिक परंपरा के विपरीत बताया। नए मौलिक अधिकार को भारत की संप्रभुता तथा अखंडता, राज की व्यापकता, अच्छे विदेशी संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा शालीनता व नैतिकता को बनाए रखने के आधार पर बड़े पैमाने पर प्रसारित किया जा सकता है।
कम्युनिस्ट पार्टी ने टिप्पणी की कि संविधान में संशोधन करने की आसान प्रक्रिया इसे एक निंदनीय दस्तावेज बनाती है। एथर डोसरी का दावा है कि भारतीय संविधान प्रमाणिक रूप से भारतीय नहीं था इसीलिए यहां भारतीय नागरिकों के आक्रोश से बचा रहा। बहुत सारे भारतीय विद्वानों ने यह माना है कि भारतीय संविधान एक विदेशी दस्तावेज था जो काम करने में विफल रहा।
the Republic of Writs
संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक के दैनिक जीवन को बदल दिया। भारतीय संविधान निर्माण की प्रक्रिया का नेतृत्व भारत के कुछ सीमांत नागरिकों ने किया था ना कि एलिट पॉलीटिशियन व जज ने। यह दर्शाता है कि जिस संविधान को अंग्रेजी दस्तावेज ठहराया जा रहा था वह लोकप्रिय कल्पना में इतना जीवन था कि आम लोगों ने इसके अस्तित्व के लिए इसके अर्थ को जिम्मेदार ठहराया तथा इसके माध्यम से सहारा लिया एवं इसके साथ तर्क दिया।
1951 में संविधान के एक साल बाद ही आम लोगों की उच्च न्यायालय तक पहुंचने की असाधारण प्रवृत्ति देखी गई। भारतीय संविधान द्वारा अपने वैश्विक अतीत से स्पष्ट विराम तथा समानता के कट्टरपंथी प्रावधानों के अलावा एक और प्रावधान संवैधानिक उपचारों का अधिकार भी प्रदान किया जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति को अत्याचार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका देने का अधिकार है। राज्य तथा अपीलीय अदालतों को भी व्यापक शक्तियां प्रदान की गई जैसे मौलिक अधिकार तथा कानूनी अधिकार तथा किसी अन्य उल्लंघन के लिए राज्य को रिट जारी करने का अधिकार है।
इन नए उपायों की शुरुआती राज्य के सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन को प्राप्त करने के प्रयास में रोजमर्रा की जिंदगी में विस्तार तथा हस्तक्षेप करने के लिए हुई इस वजह से बड़ी संख्या में लोग अपने विवादों को लेकर अदालतों में जाने लगे जिसके लिए राज्य तथा न्यायालय दोनों ही तैयार नहीं थे अपने औपनिवेशिक शासन में जहां निजी पक्षों में संपत्ति के मुकदमे आते थे वही स्वतंत्र भारत में राज्य के खिलाफ मुकदमे बढ़ गए।
न्यायालयों के व्यापक अधिकार क्षेत्र तथा संवैधानिक उपचारों के अधिकार ने मौलिक रूप से संविधान को तैयार करने के तरीकों में शासन की प्रथाओं का गठन किया। नगरपालिका के सफाई कर्मियों से लेकर महाराजाओं ने रीट अधिकारिता के माध्यम से तथा राज्य की नीतियों से असंतुष्ट व्यक्तियों के साथ मिलकर अदालत में राज्य के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया। रीट द्वारा अपील तथा राज्य के खिलाफ बढ़ते मुकदमों के कारण अदालतों में अधिक सुनवाई की जाने लगी। अगर भारतीय अदालतों तथा पश्चिमी देशों की अदालतों में आने वाले मुकदमों की बात की जाए तो उनमें काफी अंतर देखने को मिलता है।
भारतीय संवैधानिक न्यायालय बातचीत में संविधान कानून के सिर्फ तथा वह आए आप अवधारणा को देखने के लिए एकदम सही लेंस का काम करता है। इस प्रकार संवैधानिक न्यायालय एक ऐसा स्थान बन जाता है जिसमें व्यक्ति तथा राज्य एक दूसरे पर विश्वास कर सकते हैं। संविधान के अनुसार संघीय न्यायालय पूरे भारत में अपने अस्तित्व के लिए ternary system का प्रयोग करने वाला न्यायालय होगा संघीय न्यायालय के ternary system में सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालय तथा जिला न्यायालय आते हैं।
सुप्रीम कोर्ट:- शुरुआती सुप्रीम कोर्ट छोटा था तथा उचित ज्ञान व संयम वाले न्यायाधीशों की कमी थी तथा जो न्यायाधीश थे उन्होंने सुप्रीम कोर्ट तथा हाईकोर्ट दोनों के लिए कार्य करना पड़ रहा था क्योंकि पश्चिमी पाकिस्तान तथा अन्य स्थान से आए शरणार्थियों की संख्या अत्यधिक थी।
हाई कोर्ट:- नए संविधान द्वारा प्रांत तथा उनके अधिकार क्षेत्र तथा शक्तियों को बढ़ावा दिया जा रहा था इसीलिए पूर्व की रियासतों के अंदर ही आधा दर्शन हाईकोर्ट बनाए गए। नए सुप्रीम कोर्ट तथा उच्च न्यायालय न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर आते हैं।
डिस्ट्रिक्ट कोर्ट:- नागरिकों के लिए कानूनी संपर्क का पहला बिंदु जिला न्यायालय है।
ट्रिब्यूनल:- यह स्थल होते थे जहां टकराव की उत्पत्ति होती थी तथा जहां अपीलीय व्यक्ति की नई संवैधानिक तरीकों से बात सुनी जाती थी।
संविधान द्वारा न्यायपालिका की स्थापना एक लक्ष्य के रूप में की थी लेकिन इसकी धीमी गति की उपलब्धियों के कारण 1910 में दूसरे बदलाव किए गए तथा एक ऐसे रजिस्टर का गठन किया जो संवैधानिक न्याय शास्त्र का प्रयोग कर न्याय प्रक्रिया को संचालित करेगा।
सर्वोच्च न्यायालय : एक सार्वजनिक तथा गुप्त संग्रहालय
भारत का सर्वोच्च न्यायालय 70 एकड़ जमीन पर स्थित है तथा यह 1958 में दिल्ली में गणेश बीकाजी द्वारा डिजाइन किया गया सर्वोच्च न्यायालय कांप्लेक्स में औपनिवेशिक स्थापत्य कला का बारीकी से चित्रण किया गया बलुआ पत्थर की सीढ़ियां तथा high colonnaded gallery जनता को आकर्षित करती है। एक अध्ययन से पता चलता है कि इंग्लिश न्यूज़ पेपर में अधिक न्यायाधीशों की तुलना में सुप्रीम कोर्ट का जिक्र किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में सार्वजनिक संग्रह के नीचे खाने में एक रिकॉर्ड रूम है जो मामलों की पूरी कार्यवाही को संग्रहित करता है। वकीलों द्वारा किए गए आहात को कोर्ट के समक्ष पेश किए गए – एफिडेविट, सबूत, गवाहों के बयान, अपराध, दृश्यों के नक्शे, अपराध से जुड़े भौतिक साक्ष्य, सभी यही रखे जाते हैं।
न्यायालय के रिकॉर्ड रूम से परामर्श करने के लिए कोई औपचारिक प्रक्रिया नहीं है सब प्रवेश रजिस्टर के रिकॉर्ड पर आधारित है। संविधानिक संग्रह जो रिकॉर्ड रूम में स्थित है अभिलेखों की तुलना में काफी बड़ा है। इसमें विशेष बात यह है कि कानून की चुनौतियां उन व्यक्तियों पर हावी थी जो एक ही जाति या समुदाय के थे क्योंकि दक्षिण एशियाई लोग अपने रिकॉर्ड में धर्म तथा जाति दोनों लिखते हैं तथा मुकदमा समुदाय विशेष से संबंधित हो जाता है।
संवैधानिक संग्रह विश्लेषणात्मक फ्रेम 1950 के दशक में उभरे एक नए राज्य का वर्णन करता है जो अपने नागरिकों को कॉस्मेटिक स्वतंत्रता के साथ-साथ संपत्ति, अधिकार, विद्रोह, समानता, मुक्त भाषण, तथा प्रशासनिक अन्वेषण पर भी ध्यान देता है।
Book Schema
यह यह बताने का प्रयास करती है कि संवैधानिक तथा विज्ञापन कम होने के बाद भी उत्तर आधुनिक भारत में संवैधानिक ता किस तरह से शासन का ढांचा बन गई। बुक स्कीमा के प्रत्येक अध्याय को संवैधानिक मामलों के एक विशेष सेट के आसपास तैयार किया तथा तीन कार्य के किए गए। प्रत्येक अध्याय अपने बेसिक से उत्तर औपनिवेशिक में संक्रमण के दौरान परिवर्तन या अभाव को उजागर करता है। संविधान का अनुच्छेद 47 अपने नागरिकों के रोजमर्रा के जीवन को विनियमित करने के लिए अपने बेसिक राज्य द्वारा किए गए सबसे पहले प्रयासों में से एक है।
Rethinking the people’s Constitution
“ए पीपल कॉन्स्टिट्यूशन” नामक पुस्तक यह दर्शाती है कि हम संविधान को किस प्रकार समझते हैं तथा लोगों के साथ संबंधों की कल्पना करते हैं। भारत में संवैधानिक तथा विज्ञापन संबंधित इतिहास फैशन से बाहर हो गया है। यह संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए पूरी तरह अलग है दूसरा देश जो कि संघवाद तथा धर्मनिरपेक्षता सुप्रीम कोर्ट के लंबे इतिहास के साथ है जहां संवैधानिक इतिहास कानूनी इतिहास के अन्य निकायों के साथ है। यह पुस्तक संवैधानिक कानून की अकाश लिखता मध्यस्थता तथा अनुवाद की प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित कर व्यवस्थित बदलाव करती है।
The constitution as practice
इस पुस्तक में अदालत क्या करती है तथा मुकदमा कौन जीता इन प्रश्नों की बजाए इस प्रक्रिया पर अधिक जोर देती है कि भारत में निर्वाचन क्षेत्र कैसे काम करता है तब यह समझना आवश्यक है कि लोगों का विश्वास तथा कानून के प्रति उनका ज्ञान कैसा है तथा इस ज्ञान के आधार पर वह कैसे निर्णय लेते हैं। यह पुस्तक इस विचार को चुनौती देती है कि संवैधानिक व्याख्या राज्य अभिजात वर्ग का एकाधिकार है।
यह पुस्तक कानून के दायरे में आने वाले सभी लोगों का अध्ययन करती है फिर उसमें चाहे कोई कभी अदालत गया हो या नहीं गया हो सभी लोग अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह पुस्तक अदालत के बाहर के जीवन की भी जांच करती है। आम जीवन पर अदालतों प्रभाव तथा पूर्व व्यवहारों के प्रभाव का अध्ययन करती है।
the constitution as archive
लिखित संविधान अपनाने के साथ क्या बदलाव बदल गया? एक संप्रभु गणराज्य के नागरिक होने का क्या मतलब है? भारतीय राज्य के नागरिकों के लिए स्वतंत्रता का क्या मतलब है? यह पुस्तक इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए दो समय काल पर अपना ध्यान केंद्रित करती है जिसमें एक नेहरू वादी अवधि के रूप में वर्णित किया जो 1947 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री नियुक्त होने के साथ शुरू होता है।
1964 में उनकी मृत्यु के साथ समाप्त होता है। नेहरू जी की अवधि में नव उदारवादी आर्थिक नीतियां का वर्चस्व था तथा जाति एवं धर्म पर नेहरू वादी काल को समाजवाद, उदारवाद, धर्म धर्मनिरपेक्ष तथा जनहित के रूप में आम सहमति से स्वीकार किया गया है।
इस काल का मुख्य उद्देश्य गरीबी को कम करना तथा ब्रिटेन पर आत्मनिर्भरता को कम करना था। शीत युद्ध के समय की गुटनिरपेक्षता की नीति का सभी ने समर्थन किया। इन सभी बातों के बावजूद हम उस अवधि के विषय में बहुत कम जानते हैं। इस अवधि की सूचनाएं अदालतों के रिकॉर्ड से प्राप्त की जा सकती है।
नेहरू द्वारा उभरती छात्रवृत्ति पर ध्यान देने से विकास के मॉडल पर भी ध्यान केंद्रित किया गया जो कुलीन वर्ग के हितों पर बना रहा तथा जनसंख्या के बड़े हिस्से को इससे बाहर रखा गया। तब यह महसूस किया जाने लगा कि अपने बेसिक बर्बादी को दूर किए बिना उदारवाद की स्थापना नहीं की जा सकती।
यह भी पढ़ें:- भारतीय संविधान का दर्शन | प्रस्तावना
उत्तर औपनिवेशिक राज्य की महत्वकांक्षी राज्य तथा अर्थव्यवस्था दोनों को नया बनाने की थी इसीलिए विभिन्न बाघ यंत्रों का निर्माण किया गया तथा विभिन्न प्रकार की योजनाएं कानून समीक्षा सभी स्तर पर लागू किया गया। योजना आयोग की स्थापना विकास योजनाओं के बनाने के लिए की गई तथा इसी को रेगुलेटरी प्रतिशत के अधीन किया गया तथा सार्वजनिक विकास करने के लिए निजी उद्योगों की भी सहायता ली गई।
यह भी पढ़ें:- भारतीय संविधान की मौलिक विशेषताएं
The constitution as democratic practice
Democratic practice के रूप में संविधान इस अध्ययन के विपरीत है, की राज्य को ऊपर से कैसा बनाया जाता है बल्कि राज्य के आधार को पहचाना जाता है।