प्रतिनिधित्व और सहभागिता | Representation and Participation
प्रतिनिधित्व और सहभागिता
वर्तमान समय में अधिकांश लोकतंत्रों की प्रकृति अप्रत्यक्ष और प्रतिनिधिमूलक ही है। बहरहाल, यह एक महत्वपूर्ण । सवाल है कि प्रतिनिधित्व करने का क्या अर्थ है? क्या एक प्रतिनिधि होने का अर्थ डेलिगेट होना है, अर्थात् क्या इसका अर्थ अपने मतदाताओं की इच्छाओं को आवाज़ देना है? हालाँकि, एक व्यापक भौगोलिक क्षेत्र में फैले संसदीय-क्षेत्र के विविध लोगों के हितों को एक साथ एकत्रित करने की प्रक्रिया बहुत ही मुश्किल है। जे. एस. मिल इस विचार को ख़ारिज करते हैं कि प्रतिनिधि डेलिगेट्स होते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में वे अपने मतदाताओं की वरीयता से बँध जाएंगे। इसकी जगह, मिल का यह मानना है कि प्रतिनिधियों को अपने विवेक के अनुसार काम करने की आज़ादी होनी चाहिए। उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे सिर्फ लोगों के दृष्टिकोण को ही अभिव्यक्त न करें, बल्कि उनकी तरफ़ से काम भी करें।
ऐसी स्थिति में लोग अपने प्रतिनिधियों पर किस तरह का नियंत्रण रख सकते हैं? प्रतिनिधित्व के संदर्भ में दूसरा नज़रिया यह है कि लोग किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल को कुछ ख़ास नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए जनादेश देते हैं। इस तरह, अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से लोग सरकार को अपना दिशा-निर्देश देते हैं। लेकिन अधिकांश देशों में चुनावी घोषणा-पत्र कोई ठोस नीतिगत दस्तावेज़ नहीं होते हैं। और कई बार इनमें सिर्फ ऊपरी बातों का ही उल्लेख होता है। इसके अलावा, विविध तरह के मुद्दों का सहारा लेकर चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दल सभी समुदायों को खुद से जोड़ने की कोशिश करते हैं। चुनावी व्यवस्था में राजनीतिक दल ही मुख्य खिलाड़ी के रूप में होते हैं और इन दलों में राजनीतिक अभिजनों का बोलबाला होता है।
आमतौर पर, राजनीतिक दल जानबूझकर अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में भ्रम की स्थिति रखते हैं। इसके अलावा, चुनावों पर मीडिया का बहुत ज्यादा प्रभाव होता है। यह भी बात गौरतलब है कि अधिकांश देशों में ‘ज़्यादा वोट पाने वाले को जीत’ (first past the post) या आनुपातिक व्यवस्था (proportional system) को अपनाया गया है। ख़ासतौर पर, पहली प्रणाली में चुनाव जीतकर सरकार बनाने वाले दल को अधिकांश मौकों पर कुल वोटों का बहुमत नहीं मिलता है। इसलिए, इस प्रणाली में किसी राजनीतिक दल को मिले कुल वोटों और कुल सीटों में अंतर होता है। इस तरह यह स्पष्ट है कि चुनावों को प्रतिनिधित्व का मुख्य सरोका माना जाता है, लेकिन यह नीतियों के संबंध में लोगों की इच्छाओं को पूरी तरह से अभिव्यक्त करने में असमर्थ है।
इस कारण, संहभागिता को बढ़ाने पर नए सिरे से ध्यान दिया जाने लगा। दरअसल, प्रतिनिधियों पर नियंत्रण रखने और शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए (संरक्षक लोकतंत्र) नागरिकों की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाने की ज़रूरत है। यह माना जाने लगा है कि नौकरशाहीकरण, भ्रष्टाचार, केंद्रीयकरण, पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी से निपटने का तरीक़ा यह है कि नागरिकों की सहभागिता को बढ़ाया जाए। इस अर्थ में, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को बाँटने वाली रेखा को फिर से खींचा जा रहा है। भारत में हाल ही में पारित हुआ सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। इसके द्वारा नागरिक सरकार की कार्यप्रणाली की जानकारी ले सकते हैं। केंद्रीकृत सरकार के आलोचक भी विकेंद्रीकरण का समर्थन करते हैं। इसके लिए वे स्थानीय स्तर पर पंचायत जैसी स्वशासन की संस्थाओं को सक्रिय करने पर जोर देते हैं।
सहभागिता के बारे में मुख्य आपत्ति यह रही है कि एक बड़े और विविधता से भरे समाज में इसका काम करना मश्किल है। बहरहाल, ऐसी कई नई तकनीक और तरीक़ों का विकास हुआ है जिनके माध्यम से नागरिकों की सहभागिता बढ़ाई जा सकती है। मसलन, तकनीक का प्रसार, मीडिया और इंटरनेट की पहुँच का विस्तार होना, अन-सुनवाई जैसे तरीकों को अपनाना, जहाँ तक मुमकिन हो स्थानीय निकायों को शक्ति देना, नागरिक समूहों की भागीदारी बढना, आदि। इस बात पर भी जोर दिया जाने लगा है कि प्रतिनिधिमूलक और सहभागी तरीकों को एक साथ जोड़ा जा सकता है।