कार्ल मार्क्स सम्पूर्ण जानकारी | अलगाववाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, वर्ग संघर्ष आदि
कार्ल मार्क्स (1818-1883)
5 मई 1818 को ट्राइर (जर्मन) में जन्मे मार्क्स ने पहले बॉन विश्व विश्वविद्यालय तथा बाद में बर्लिन विश्वविद्यालय में विधि का अध्ययन किया। बर्लिन विश्वविद्यालय में मार्क्स युवा हेगलवादी आन्दोलन की ओर आकर्षित हुए जो न केवल प्रशीयन सरकार की आलोचना करता था, अपितु ईसाई धर्म की भी। क्योंकि मार्क्स सरकार विरोधी आन्दोलन के निकट थे, इसलिए सरकार तथा विश्वविद्यालय के द्वार उनके लिए बन्द हो गए थे।
अतः उन्होंने पत्रकारिता को अपना व्यवसाय बना लिया तथा 1842 में रीहिन्श जीतुंग पत्र का सम्पादक बने। सम्पादक के रूप में उन्होंने सरकार की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध कटु आलोचकीय लेख लिखने आरंभ कर दिये। प्रशीयन शासक मार्क्स के विचारों से काफी । अप्रसन्न थे। अतः इस पत्र को बन्द करने के आदेश दे दिए गए। जर्मनी में अपने आप को घुटन की स्थिति में पाते, मार्क्स 1843 में फ्रांस आ गए।
पैरिस में अपने वास के दौरान मार्क्स फ्रांसीसी समाजवादियों के सम्पर्क में आए तथा जर्मन प्रवासियों को संगठित करना आरंभ कर दिया। पैरिस में ही मार्क्स ने अपनी मुख्य रचना इक्नॉमिक एण्ड फिलोसॉफिक मैनुस्क्रपीटस (ई. पी. एम.) 1844 में लिखी, जो पहली बार 1932 में प्रकाशित हुई थी। इस रचना का केन्द्रीय विषय अलगाववाद (alienation) था।
अपने पैरिस वास के दौरान मार्क्स फ्रेडरिक एंग्लस के सम्पर्क में आए, जो उसके जीवन प्रयन्त मित्र तथा हितकारी रहे। अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण 1844 में ही मार्क्स को फ्रांस भी छोड़ना पड़ा था। ऐग्लंस के साथ मार्क्स बैलज्यिम आ गए। मार्क्स तीन वर्ष तक बैलज्यिम रहे और वहाँ उन्होंने इतिहास का गहन/गंभीर अध्ययन किया, जिसके कारण बाद में उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धान्त अर्थात् इतिहास की भौतिक व्यवस्था की सुप्रसिद्ध अवधारणा प्रस्तुत की।
माक्स न लदन वास के दौरान अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी श्रमिकों को भी संगठित करने के प्रयास किया 1864 में, मार्क्स ने अन्यों के साथ मिलकर यूरोप के मज़दूरों के लिए पहला मुख्य सन जस अन्तराष्ट्राय मज़दूर समुदाय अथवा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल कहा जाता है। 1876 तक यह कम्यनिस्ट इंटरनेशनल सक्रिय रहा तथा उसका गौरवशाली क्षण 1871 में नज़र आया जब यह पास कम्यन स्थापित करने में सफल रहा। पैरिस के मजदरों ने पैरिस पर कब्ज़ा कर लगभग दा महाना तक नगर में शासन किया।
1871 में मार्क्स द्वारा रचित सिविल वार इन फ्रांस पैरिस कम्यून क लक्ष्या तथा कार्यशैली का विस्तृत वर्णन है। 1870 के पश्चात मार्क्स यूरोप में घटी विभिन्न घटनाओं के विरुद्ध मात्र अपनी प्रतिक्रियाएँ ही प्रस्तुत करते रहे। वे उन साम्यवादियों की आलोचना करते रहे जो लासल के राज्य समाजवाद का समर्थन दे रहे थे। इस आलोचना का वर्णन मार्क्स द्वारा रचित क्रीटिक आफ़ द गोथ प्रोग्राम में मिलता है।
अलगाववाद
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि मार्क्स अपने शुरुआती जीवन में हेगलवादी आदर्शवाद की ओर आकर्षित हुआ थे, परन्तु फ्यूबैक के प्रभाव में उन्होंने मानववादी प्रकार के साम्यवाद को ग्रहण कर लिया था जिसका विवरण ई.पी.एम. में स्पष्ट किया गया था। मार्क्स ने पूंजीवाद की आलोचना इस आधार पर की थी कि उस में श्रम के अलगाववाद के तत्व विद्यमान थे। केवल साम्यवादी समाज में ही अलगाववाद के तत्व से छुटकारा मिल सकने की संभावना होती है। अलगाववाद एक जटिल प्रकार की अवधारणा है। कई बार इसकी संज्ञा विमुखता, अभिदृष्यकता, तथा मूर्त-निरूपणता आदि से की जाती है।
सरल शब्दों में, अलगाववाद का अर्थ है, अमानवीयकरणता अर्थात् स्वयं की क्षति। एक पंजीवादी व्यवस्था में एक मज़दूर यांत्रिक तरीके से काम करता है तथा अपने किए जाने वाले काम में किसी आनन्द की अनुभूति नहीं करता। उसका श्रम एक वस्तु का रूप धारण कर लेता है जिसे उसे जिन्दा रहने के लिए बेचना पड़ता है। इस प्रकार से वह अपने काम से अलग हो जाता है। वह अपने श्रम के उत्पाद से, अपने साथी मज़दूरों से तथा प्राकृतिक संसार से भी अलग हो जाता है।
मार्क्स का तर्क यह है कि पूंजीवादी समाज में एक मज़दूर अपने द्वारा उत्पादित उत्पाद से इसलिए अलग हो जाता है क्योंकि वह उत्पाद जो उन्होंने बनाया है, वह उसका न होकर पूँजीपति का उत्पाद होता है। पूंजीवाद का प्रतिस्पर्धायी स्वरूप मज़दूर को उस के साथी- मज़दूरों से भी अलग कर देता है। सार रूप में, एक मज़दूर अपनी सृजनात्मक योग्यताओं से जो मनुष्य के रूप में उसकी विशेषता होती है, अलग हो जाता है।
मार्क्स का विश्वास है कि साम्यवादी समाज में ही व्यक्ति एक स्वतंत्र सृजन पात्र के रूप को प्राप्त करेगा और तब उस समाज में उसके द्वारा किया गया कार्य, नीरस गतिविधि नहीं होगा। निजी सम्पत्ति अलगावीय श्रम का फल तथा परिणाम है और इसलिए इसका उन्मूलन व्यक्ति को उसकी अलगावीय स्थिति से शोधित करेगा। राजनीतिक, वैचारिक संरचना का निर्माण होता है तथा उसके अनरूप सामाजिक चेतना के विशिष्ट रूप बनते रहते हैं। ऐसी सोच हेगलवादी धारणा के विपरीत थी, जिसमें चेतन अस्तित्व को निर्धारित करता है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद
विचारों के इतिहास में मानवीय समाजों के विकास की तीन व्याख्याओं का वर्णन किया जाता है: आध्यात्मिक व्याख्या, आदर्शवादी व्याख्या तथा भौतिकवादी व्याख्या।
पहली व्याख्या के अनुसार, मानवीय इतिहास की सभी घटनाएँ ईश्वर की इच्छा अर्थात दैवी अवसर्जन के कारण होती हैं। दूसरी) व्याख्या के अनुसार, विचार ही हैं जो मानवीय इतिहास को गति प्रदान करते हैं। दूसरे शब्दों में, विचारों के विकास के अनुरूप मानव इतिहास के सभी क्षेत्रों में विकास होता रहता है।
आदर्शवादी व्याख्या का सम्बन्ध मार्क्स से पहले के एक जर्मन दार्शनिक हेगेल से जुड़ा हुआ है।
तीसरी व्याख्या के अनुसार (जिसे मार्क्स ने बताया है) मानवीय इतिहास के सभी परिवर्तन जीवन की भौतिक अवस्थाओं में परिवर्तन के कारण होते हैं।
आदर्शवादी व्याख्या में विचार, भाव, मन-मस्तिष्क पहले हैं तथा पदार्थ का स्थान द्वितीय है जबकि मार्क्स की भौतिकवादी व्याख्या के अनुसार, पदार्थ का पहला स्थान तथा भाव, विचार मन-मस्तिष्क का दूसरा स्थान है। ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धान्त मार्क्सवादी लेखन का सार मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धान्त द्वंद्वात्मक भी है।
मार्क्स ने हेगेल से द्वंद्वात्मक तरीका लिया था। हेगेल के अनुसार सभी ऐतिहासिक परिवर्तनों को विचारों के क्षेत्र में वाद, प्रतिवाद तथा संवाद के रूप में समझाया गया था हेगेल के अनुसार एक विचार (वाद) अपने विरोध-विचार (प्रतिवाद) को जन्म देता है,.
अंततः उनके पारस्परिक अंतर्विरोध का समाधान संवाद में परिणीत होता है। यह संवाद समय के बीतने के साथ वाद का स्थान ले लेता है और यह वाद प्रतिवाद को जन्म देता है; इन दोनों का संघर्ष संवाद में बदल जाता है और फिर संवाद का वाद में बदलना, वाद का प्रतिवाद को जन्म देना, दोनों में फिर संघर्ष, फिर संवाद का आना – इस प्रकार की प्रक्रिया सदैव चलती रहती है।
यह तथ्य जानने योग्य है कि जहाँ हेगेल द्वंदात्मक तरीके को वैचारिक संसार की व्याख्या हेतु प्रयोग करते हैं, वहीं मार्क्स द्वंदात्मक तरीके को भौतिक संसार की व्याख्या हेतु प्रयोग करते हैं। यही कारण है कि हेगेल द्वंदात्मक आदर्शवाद की बात करता है और मार्क्स द्वंदात्मक भौतिकवाद की।
वर्ग संघर्ष
उत्पादकीय तरीका अथवा सामाजिक उत्पादन का तरीका समाज को संगठित करता है तथा उत्पादन के साधन जिस प्रकार ऐसे उत्पादन में प्रयोग किये जाते हैं, वह समाज के सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी तथा वैचारिक स्वरूप को निर्धारित करते हैं। एक विशेष चरण पर उत्पादकीय शक्तियाँ उत्पादकीय सम्बन्धों को पीछे छोड़ देती हैं अथवा उन सम्बन्धों के अनुरूप नहीं रहतीं और यह उत्पादकीय सम्बन्ध उत्पादकीय शक्तियों के मार्ग में बाधा डालते हैं।
यह अंतर्विरोध/विरोधाभास जो उत्पादकीय शक्तियों तथा उत्पादकीय सम्बन्धों में पनपता है, अंततः वर्ग युद्ध में परिवर्तित हो जाता है। यह युद्ध उनके बीच होता है, जिनके पास उत्पादन के साधन होते हैं और उनके बीच जिनके पास केवल श्रम शक्ति होती है। मार्क्स के अनुसार वर्ग युद्ध सभी प्रकार के मानवीय समाजों की एक निरंतर रहने वाली विशेषता है।
कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में मार्क्स तथा ऐंग्लस ने लिखाः “अब तक के समस्त सामाजिक जीवन का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है: स्वतंत्र व्यक्ति तथा दास, संभ्रात तथा सामान्य जन, भूस्वामी तथा भूदास, श्रेणीपति तथा दस्तकार, संक्षेप में, उत्पीड़न तथा उत्पीड़ित, निरंतर एक-दूसरे का विरोध करते तथा अनवरत, कभी लुक-छिप कर तथा कभी खुलकर संघर्ष होते रहे हैं।” –
जब यह वर्ग युद्ध ऐसे चरण पर पहुँच जाता है, जहाँ विरोधाभाव तीव्र हो जाते हैं तब उस विरोधाभाव को एक सामाजिक क्रान्ति द्वारा दूर किया जाता है। उस क्रान्ति से नए तथा उच्चतर उत्पादकीय तरीके का जन्म होता है, जो बेहतर उत्पादकीय शक्तियों तथा बेहतर उत्पादकीय सम्बन्धों का संकेत देते हैं।
समय के बीतने के साथ यह उत्पादकीय शक्तियाँ पुनः उत्पादकीय सम्बन्धों पर हावी पड़ती हैं, फिर क्रान्ति होती है, फिर नए समाज की रूपरेखा जहाँ बेहतर उत्पादकीय सम्बन्ध व उत्पादकीय शक्तियाँ, बेहतर उत्पादकीय तरीके अनुसार कार्य करते हैं – समाज फिर, समय के बीतने के फलस्वरूप इन दोनों में संघर्ष और फिर नयी सामाजिक व्यवस्था : विकास का यह क्रम वर्ग युद्ध तथा उसके पश्चात् क्रान्ति द्वारा चलता रहता है।
एक वर्गीय समाज का एक अंकित लक्षण यह है कि भिन्न आर्थिक हितों के कारण वर्गों के बीच प्रतिद्वन्द्विता व विरोधाभास उठता रहता है। अपने वर्गीय हित की रक्षा के लिए | जो वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है, वह वर्गीय शासन स्थापित करता है। “प्रतिद्वन्द्विता नहीं है, तो प्रगति नहीं है।” – मार्क्स ने इस तथ्य पर बल दिया था। उपर्युक्त तर्क से स्पष्ट होता है कि मार्क्स पूंजीवादी समाज में राज्य को वर्गीय शासन का साधन मानते हैं।
अतिरिक्त मूल्य
एक और सिद्धान्त जिसका मार्क्स ने प्रतिपादन किया था, वह अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त है। इसी अवधारणा के माध्यम से मार्क्स ने पूंजीवादी समाज में पनप रहे शोषण के सम्पूर्ण तत्व की व्याख्या की थी। स्पष्टतया सरल शब्दों में, अतिरिक्त मूल्य का अर्थ वह है, जिसे हम सामान्यत: लाभ कह सकते हैं।
मार्क्स का तर्क यह है कि मज़दूर सामाजिक वस्तुएँ पैदा करता है और पूँजीपति उन वस्तओं को मजदर को दी जाने वाली मज़दूरी से अधिक मूल्य पर बेचता है। अतः मज़दूर को वस्तओं के उत्पादन में लगाए गए समस्त श्रम (अर्थात् श्रम शक्ति) के बदले में राशि नहीं मिलती। उसके श्रम के किसी भाग को पूँजीपति ज़ब्त (अर्थात् चुरा) कर लेता है। अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त मूल्य के श्रम सिद्धान्त से उभरता है।
मूल्य के श्रम सिद्धान्त का भाव यह है कि किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु में लगे श्रम पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में, अतिरिक्त मूल्य तब सामने आता है, जब मज़दूर को लगाए गए श्रम के बदले में किसी श्रम भाग की मज़दूरी नहीं मिलती। मार्क्स कहता है कि वर्गीय समाजों में ही अतिरिक्त मूल्य का तत्व होता है, क्योंकि ऐसे पूंजीवादी समाजों में पूँजीपति मज़दूरों का शोषण करते हैं।
पूँजीपति वह होते हैं, जो उत्पादन के साधनों (जैसे भूमि, पूँजी, कारखाने आदि) के स्वामी होते हैं जबकि मज़दूर वह होते हैं, जिनके पास उत्पादन के साधन नहीं होते, अपितु उनके पास केवल श्रम शक्ति होती है, जिसे वह जीवित रहने के लिए बेचते हैं। जैसे जैसे अतिरिक्त मूल्य बढ़ता है, वैसे वैसे मज़दूर को और कम मज़दूरी मिलती है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इस प्रकार की स्थिति से पूँजीपतियों व मज़दूरों में तीव्र विरोधाभाव बढ़ने लगता है और केवल समाजवादी क्रान्ति में अंततः उस विरोधाभाव को समाप्त करना संभव होता है।
ऐसी क्रान्ति पूंजीवाद की मृत्यु बनती है। पूंजीवाद के अंत पर राज्य शक्ति पर मज़दूरों का अधिकार स्थापित हो जाता है। मज़दूरों द्वारा राज्य शक्ति प्राप्त करने के पश्चात् मार्क्स ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ के संक्षिप्त शासन की कल्पना करता है।
इस सर्वहारा के अधिनायकवाद के समय के दौरान समाज समाजवादी रूप धारण करेगा, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमता के अनुरूप काम प्राप्त होगा। समाजवादी चरण के पश्चात् साम्यवादी समाज की स्थापना होगी, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति की उसकी क्षमता के अनुरूप उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होगी। अतः मार्क्स द्वारा साम्यवाद ऐसा समाज होगा, जो सम्बद्ध उत्पादनों का वर्गविहीन समाज होगा।