जातिवाद और भारतीय राजनीति

जातिवाद और भारतीय राजनीति | Casteism and Indian Politics

प्रोफेसर वी.के. मेनन का कहना है कि स्वतन्त्रता प्रप्ति के बाद से राजनैतिक क्षेत्र में जातिवाद का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। जहाँ सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में जाति की शक्ति घटी है वहाँ राजनीति और प्रशासन में वद्धि हुई है। रजनी कोठारी का इस विषय में मत है कि – 

  • प्रथम, कोई भी सामाजिक ढाँचा कभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं होता। इसलिए यह सोचना कि भारत में जाति का लोप हो जाएगा, गलत है। 

  • दूसरे, जाति-व्यवस्था आधुनिकीकरण और सामाजिक परिवर्तन के विकास में कोई बाधा नहीं डालती. बल्कि उसकी पद्धि करने में सहायक होती है। 
जातिवाद और भारतीय राजनीति

राज्य स्तर की राजनीति में जाति और समुदाय शासन की निर्णय प्रक्रिया को उसी प्रकार प्रभावित करते हैं जिस प्रकार से दबाव-समूह करते हैं। भारत की राजनैतिक व्यवस्था की एक विशेषता है कि राजनीतिज्ञ निश्चित रूप से जाति की नीति का तो विरोध करते हैं. परन्तु चुनाव के समय जाति के आधार पर ही वोट माँगते हैं।

जाति का राजनैतिक रूप

(Political Dimensions of Caste) 

प्रोफेरार रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक ‘Caste in Indian Polities’ में भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का वैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया है। उनके अनुसार राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। जाति को अपने दायरे में खींचकर राजनीति उसे अपने काम में लाने का प्रयत्न करती है जबकि जाति या विरादरी को राजनीति के द्वारा देश की व्यवस्था में भाग लेने का अवसर मिलता है। राजनीतिज्ञ भी जातिवाद से लाभ उठाते है। जाति-व्यवस्था और राजनीति में अन्तक्रिया के सन्दर्भ में डॉ. रजनी कोठारी ने जाति-प्रथा के तीन रूपों का वर्णन किया है 

1. जाति-प्यवस्था का लौकिक रूप (Secular Aspector Caste System)

उनका कथन है कि जाति-व्यवस्था की सामाजिक बातों, जैसे जाति के अन्दर विवाह, रीति-रिवाज आदि. को तो मान्यता दी गई है परन्तु इस बात की उपेक्षा कर दी गई है कि जातियों में आपसी गुटबन्दी रही है और वे लगातार अपनी प्रतिष्ठा तथा पद को बढ़ाने का प्रयत्न करती है। उदाहरण के लिए, विभिन्न राज्यों में, विशेषकर बिहार में, ऊँची जातियों और पिछड़ी जातियों के मध्य लगातार संघर्ष चलता रहता है।

2. जाति-प्यवस्था का एकीकरण रूप (Integrating Aspect or Caste System) 

जाति का दूसरा राजनैतिक रूप एकीकरण या समाज को बाँधने का है। जाति-प्रथा जन्म के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति का समाज में स्थान तथा व्यवसाय और भूमिका निश्चित कर देती है। सभी मनुष्यों को जाति के प्रति लगाव रहता है और यही लगाव राजनैतिक व्यवस्था के प्रति भी विकसित होता है। इस प्रकार जातियों जोड़ने वाली कड़ी के रूप में कार्य करती है। भारत की लोकतन्त्रीय व्यवस्था में सत्ता प्राप्त करने के लिए जातियों में प्रतिद्वन्द्विता होती है. गठजोड़ होते है जो बदलते रहते है। 

3. जाति-व्यवस्था का पैतन्य रूप (Consciousness Aspect or Political System) 

जाति-व्यवस्था का तीसरा रूप चेतना बोध है। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन के कारण जाति विशेष की स्थिति भी बदलती अपने को उच्च समझती है और उनकी समाज में विशेष प्रतिष्ठा भी होती है। इस कारण वे अन्य जातियों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करती है। इससे व्यवहार में अलग-अलग स्तर पर जाति-व्यवस्था में लोच आ जाती है। इस कार्य के लिए तीन साधन अपनाए जाते है। 

  • संस्कृतिकरण जिसके अनुसार छोटी जातियों सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों के रीति-रिवाजों की नकल करती है। इसे ब्राहाणीकरण कहा जाता है। 

  • लौकिकीकरण, जिसके अनुसार अब्राह्मण जातियों ब्राह्मणों की नकल करने की प्रवत्ति छोड़ देती है। ये जातियों अपनी उच्यता सिद्ध करने के लिए अपना सम्बन्ध पौराणिक पुरुषों से जोड़ने का प्रयत्न करती है। 

  • राजनीति में भागीदारी का ढंग है, इसमें कुछ जातियाँ राजनीति में भाग लेने लगी और उन्हें समाज में उच्च स्थिति प्राप्त हो गई। आन्ध्र प्रदेश और बिहार इसके उदाहरण हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि जातियों की राजनीति में स्थिति परिवर्तित होती रहती है।

जाति और राजनीति में अन्तःक्रिया के तीन चरण

डॉ० कोठारी ने जाति और राजनीति में अन्तःक्रिया के तीन चरणों का वर्णन किया है जो निम्न प्रकार है: 

1. प्रथम चरण

प्रथम चरण में शक्ति और प्रभाव समाज की प्रतिष्ठित जातियों तक ही सीमित रहे। जिन जातियों ने उच्च शिक्षा प्राप्त करके आधुनिक बनने का प्रयत्न किया वे प्रतिष्ठित जातियों में गिनी जाने लगी। इन जातियों ने अधिकार और पद को प्राप्त करने के लिए राजनैतिक संगठन बनाए जिसके कि दो जातियों में प्रतिद्वन्द्वता आरंभ हो गई। उदाहरण के लिए मद्रास और महाराष्ट्र में ब्राहाण और अब्राहाण के मध्य, राजस्थान में राजपूत और जाटों के मध्य, आन्ध्र प्रदेश में कमा और रेड़ी के मध्य प्रतिद्वन्द्विता चलती रही।

2. दूसरा धरण 

इस चरण में पद और लाभ के आकांक्षियों की संख्या में वद्धि हुई और विभिन्न जातियों में प्रतिद्वन्द्वता के साथ-साथ जाति के अन्दर भी गुट बनने लगे। प्रतिद्वन्द्विता नेताओं के पीछे गुट बन जाते हैं। इन गुटों में विभिन्न जातियों के लोग होते हैं। चुनाव में समर्थन प्राप्त करने के लिए अन्य जातियों को भी राजनैतिक पद और लाम में हिस्सा देकर मिलाने का प्रयत्न किया जाता है। कभी-कभी विभिन्न जातियों में भी प्रतिस्पर्धा पैदा करने के लिए संगठन बनाए जाते हैं। इस चरण में ब्राहाण और कायरथों के स्थान पर व्यावसायिक और कषक जातियों के नेताओं के संख्या में वद्धि हुई। 

3. तीसरा चरण 

तीसरे चरण में एक और तो राजनैतिक मूल्यों की प्रधानता हुई और जाति-पाति से लगाव कम हुआ वहाँ दूसरी ओर शिक्षा, नये-शिल्प और शहरीकरण के कारण समाज में परिवर्तन आया। पुराने पारिवारिक बन्धन टूटन लगे। लोग काम-धन्धों के लिए शहरों में जाकर बसने लगे जिससे कि जाति की भावना ढीली पड़ने लगी और सामाजिक व्यवहार अपनी जाति तक सीमित न रहा। राजनैतिक संस्थाओं का ढांचा व्यापक होने लगा और जाति को नया रूप प्राप्त हुआ। आधुनिक राजनीति में भाग लेने की दष्टि में परिवर्तन हो गया। जाति अब राजनैतिक समर्थन या शक्ति का आधार नहीं रही यद्यपि इसका अधिक-से-अधिक प्रयोग हो रहा है। इस चरण में चुनाव की राजनीतियों में अनेक जातियों का गुट बनता है। इससे स्पष्ट है कि तीसरे चरण में जातिवाद की राजनीति में परिवर्तन हो गया है।

जाति के राजनीतिकरण की विशेषता 

भारतीय राजनीति में जाति की विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित भागों में किया जा सकता है : 

  1. जाति व्यक्ति को बाँधने वाली कड़ी है जिसने जातीय संघो और जातीय पंचायतों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाया है। जैस लिगायत, कबीर पंथी, सिक्ख आन्दोलन आदि। 
  2. शिक्षा, शहरीकरण और आधुनिकीकरण से जातियाँ समाप्त नहीं हुई है परन्तु उनमें एकीकरण की प्रवत्ति बढ़ी है।
  3. राजनीति में प्रधान जाति की भूमिका इस आधार पर निर्भर है कि किसी क्षेत्र में उस जाति की संख्या कितनी है।
  4. जातियों में गुटबन्दी के कारण विभिन्न जातियों को कुछ सुविधाएँ प्रदान होती है।
  5. चुनाव में राजनीतिज्ञ जातियों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
  6. जाति और राजनीति के सम्बन्ध परिवर्तनशील हैं।
  7. जाति की भूमिका राष्ट्रीय स्तर पर इतनी प्रभावशाली नहीं है जितनी कि स्थानीय राजस्तर पर है।

भारतीय राजनीति में ‘जाति’ की भूमिका

(Role of ‘Caste’ in Indian Politics) 

जयप्रकाश नारायण में एक बार कहा था कि जाति भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है । हेरल्ड गोल्ड के शब्दों में, राजनीति का आधार होने के बजाय जाति उसको प्रभावित करने वालों एक तत्व है। भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओ में देखा जा सकता है:-

1. निर्णय प्रक्रिया के जाति की प्रभावक भूमिका (Influential Role or Caste In Decision Making Proccss) भारत में जातियां संगठित होकर राजनीतिक और प्रशासनिक निर्णय की प्रक्रिया को प्रभावित करती है। उदाहरणार्थ, संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान रखे गए है जिनके कारण से जातियां संगठित होकर सरकार पर दबाव डालती है कि इन सुविधाओं को अधिक वर्षों के लिए अर्थात जनवरी 2010 तक के लिए बढ़ा दिया जाए। अन्य जातियां चाहती है कि आरक्षण समाप्त किया जाए अथवा इसका आधार सामाजिक आर्थिक स्थिति ही अथवा उन्हें आरक्षित सूची में शामिल किया जाए ताकि वे इसके लाभ से वंचित न रह जाए।

2. राजनीतिक दलों में जातिगत आधार पर निर्णय (Caste oriented decisions at the level of Political Parlies) भारत में सभी राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन करते समय जातिगत आधार पर निर्णय लेते है। प्रत्येक दल किसी भी चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशी मनोनीत करते समय जातिगत गतधत का अवश्य विश्लेषण करते हे। 

3. जातिगत आधार पर मतदान व्यवहार (Caste oriented voting behavior) भारत में चुनाव अभियान में जातिवाद को साधन के रूप में अपनाया जाता है और प्रत्याशी जिरा निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव लड़ रहा है उस निर्वाचन क्षत्रों में जातिवादी भावना को प्रायः उकसाया जाता है ताकि सम्बन्धित प्रत्याशी की जाति के मतदाताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त किया जा सके। जनवरी 1980 के चुनावों में उत्तर प्रदेश और कुछ बिहार के हिस्सो में लोकदल की सफलता पिछड़ी जातियों की राजनीतक महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक है।

4. मन्त्रिमण्डलों के निर्माण में जातिगत प्रतिनिधित्व (Caste representation in the ministry making) राजनीतिक जीवन में जातीयता का सिद्धान्त इतना गहरा घुस गया है कि राज्यों के मन्त्रिमण्डल में प्रत्येक प्रमुख जाति का मन्त्री होना चाहिए। यह सिद्धान्त प्रान्तों की राजधानियों से ग्राम पंचायतों तक स्वीकत हो गया कि प्रत्येक स्तर पर प्रधान जाति को प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिए। यहां तक कि केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में भी हरिजनों, जनजातियों, सिक्खों, मुसलमानों, बाह्मण, जाटों. राजपूतों और कायस्थों को किसी न किसी रूप में स्थान अवश्य दिया जाता है। 

5. जातिगत दवाव समूह (Caste as Pressure Groups) मेयर के अनुसार, जातीय संगठन राजनीतिक महत्व के दबाव समूह के रूप में प्रतत्त है। जातिगत दबाव समूह अपने न्यस्त स्वार्थो एवं हितों की पूर्ति के लिए नीति निर्माताओं को जिस ढंग से प्रभावित करने का प्रयत्न करते है उससे तो उनक तुलना यूरोप और अमरीका में पाए जाने वाले ऐच्छिक समुदायों से की जा सकती है।

6. जाति एवं प्रशासन (Castes and Administration) लोकसभा और विधानसमाओं के लिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था प्रचलित है. केन्द्र एवं राज्यों की सरकारी नौकरियों एवं पदोन्नति के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान है। मेडिकल एवं इन्जीनियरिंग कॉलेजों की भर्ती हेतू आरक्षण के प्रावधान मौजूद है। चरणसिंह सरकार ने भी अल्पकाल में एक अध्यादेश के माध्यम से पिछड़ी जातियों के लिए केन्द्रीय सरकार की सेवा में आरक्षण व्यवस्था घोषित करने की मंशा प्रकट की थी और इस सम्बंध में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की भी ताक में रख दिया था।

7. राज्य राजनीति मे जाति Caste in State Politics) माईकल ब्रेचर के अनुसार अखिल भारतीय राजनीति की अपेक्षा राज्य स्तर की राजनीति पर जातिवाद का प्रभाव अधिक है। यद्यपि किसी भी राज्य की राजनीति जातिगत प्रभावों को अछूती नही रही है तथापि विहार, केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र. हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र राज्यों की राजनीति के राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ और जनजाति प्रमुख प्रतिस्पर्धा जातियां है। प्रथक झारखण्ड राज्य की मांग वस्तुतः एक जातीय मांग ही रही है।

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