रूढीवाद – अर्थ, प्रकार, विशेषताएं व इसके विभिन्न प्रयोग
रुढिवाद’का अर्थ
रुढिवाद’ की अवधारणा के अनेक अर्थ लिए जाते हैं। यह एक ऐसे व्यक्ति का बोध देता है, जिसका यवहार नम्र अथवा चौकस होता है, अथवा ऐसा व्यक्ति जिसकी जीवन-शैली प्रायः पारंपरिक, नैष्ठिक अथवा जो परिवर्तनों से संकोच करता है अथवा उनसे डरता है। रूढ़िवाद ऐसी विचारधारा है, जो पक्ष की अपेक्षा विरोध अधिक करती है। एन्ड्रयू हैवुड (पोलिटिकल आइडिआलजिस) के अनुसार, ‘इसस विश्वास के तथ्य में, उदाहरणार्थ, यह सत्य है कि रूढ़िवादी पक्ष की अपेक्षा विरोध के सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट सझ-बूझ रखते हैं। उस सीमा तक, रूढ़िवाद एक नकारात्मक विचारधारा है, जो परिवर्तन का प्रतिरोध एवं परिवर्तन को लेकर सन्देह व्यक्त करती है।
इस दृष्टि से, रूढ़िवाद यथास्थिति का समर्थन करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि रूढ़िवाद एक विचारधारा से अधिक एक राजनीतिक अभिवत्ति है। बिना रूढ़िवादी धारणा में विश्वास किए जब लोग परिवर्तन का विरोध करते हैं, तो उन्हें रूढिवादी समझा जा सकता है। पूर्व सोवियत संघ में स्टालिनवादियों ने जब ‘समाज की पुनः समाजवादी रचना’ एवं ‘खुलेपन’ का विरोध किया था, तब वे अपनी क्रियाओं में रूढिवादी अवश्य थे. परन्तु उन्हें राजनीतिक विचारधारा की दृष्टि से रूढ़िवादी नहीं कहा जाता था। परिवर्तन का विरोध फढ़िवाद में निहित उसका सारत्व है।
रूढ़िवाद एक मनोवृत्ति अर्थात जीवन की ओर एक दृष्टिकोण, अर्थात् जैसा कि ह्यू सैरिल कहता है, “एक मानव मस्तिष्क की प्राकृतिक स्ववृत्ति” से अधिक है। रूढ़िवादी अमूर्त सिद्धान्तों की अपेक्षा अपने तर्कों को अनुभव तथा वास्तविकता से अधिक जोड़ते हैं। रूढिवाद मात्र तथ्यकतावाद नहीं है और न ही यह अवसरवाद हैं। यह लोगों के बारे में, उन समाजों के बारे में जिन में लोग रहते हैं तथा राजनीतिक मूल्यों की महत्ता के बारे में कुछेक राजनीतिक विश्वासों पर आधारित हैं। इस दृष्टि से जैसा कि एन्ड्रयू हैवड कहते हैं, ‘रूढ़िवाद को उदारवाद तथा समाजवाद की भांति एक अधिकृत रूप से विचारधारा कहा जा सकता है।
रस्सल कर्क (द कनज़रवेटिव माइंड) ने रूढ़िवाद के सार को बताते हुए कहा है: “रूढ़िवाद मानवता के प्राचीन नैतिक परम्पराओं का संरक्षण है और कि एक रूढिवादी के लिए रीतियाँ, प्रथाएँ, संरचनाएँ तथा प्रदेशन एक सह्य नागरिक व्यवस्था के आधार होते हैं।” उन्होंने यह भी कहा, “राष्ट्रों की महान शक्ति के आवेग स्थानीय अधिकारों तथा निजी सम्पत्ति तथा जीवन की अभिरुचियों के पक्ष में प्रदेशन तथा पुरानी मर्यादाओं, परिवार तथा धार्मिक मान्यताओं के पक्ष के तत्व हैं।”
कर्क ने रूढ़िवादी चिन्तन के छ: नियमों को सूचीबद्ध किया है:
- “प्राकृतिक कानून के एक समूह में विश्वास जो समाज तथा अन्तरात्मा पर शासन करता है
- “एकरूपता, समतावाद तथा उपयोगितावाद का विरोध करते हुए मानवीय अस्तित्व की रहस्यमता तथा विविधता के प्रति स्नेह’
- कानून व न्यायालय तथा ईश्वर के निर्णय से सम्बन्धित समानता तथा एक वर्गविहीन समाजका करते हुए इस तथ्य में विश्वास कि नागरिक समाज को व्यवस्थाओं व वर्गों की अधिक आवश्यकता होती है: परिस्थितियों की समानता का मतलब है, नीरसता तथा दासता की समानता।
- स्वतत्रता तथा खुशहाली को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जहाँ उन्हें अलग किया जाता है, वहाँ सरकार सबकी स्वामी बन जाती है।
- प्रदेशन में विश्वास: अराजकता तथा व्यक्ति द्वारा शक्ति की प्राप्ति की लालसा पर रीति-रिवाज प्रथाएँ तथा पुरानी रिवायतें नियंत्रण का काम करती हैं।
- परिवर्तन कोई अच्छा सुधार नहीं होता; एक राजनीतिक नेता का मुख्य गुण उसकी समझदारी
रूढ़िवाद व्यक्तिवाद का दर्शन है, एक स्वायत व्यक्ति का दर्शन, अहस्तांतरित अधिकारों के स्वामी का दर्शन, एक ऐसे व्यक्ति का दर्शन जिसकी जड़ें सशक्त नैतिक मूल्यों में होती हैं तथा एक ऐसे व्यक्ति का दर्शन जो परम्पराओं द्वारा- पोषित होता है।
‘रूढ़िवाद’ अवधारणा के विभिन्न प्रयोग
‘रूढ़िवाद क्या है अथवा रूढ़िवादियों का विश्वास किन-किन तथ्यों में हैं – ऐसे प्रश्नों के उत्तर से अधिक सरल यह बताना है कि इसका ऐतिहासिक संदर्भ क्या रहा है। 750 ई. से 1850 ई. के बीच हुए व्यापक परिवर्तनों के बदले में रूढ़िवाद एक अनुक्रिया के रूप में उभरा है। कभी-कभी रूढ़िवाद का अर्थ सभी तथा प्रत्येक प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध एक विरोध के रूप में लिया जाता है; कभी इसका अर्थ किसी पहले के समय में बने समाज के पुनःनिर्माण हेतु लिया जाता है, जबकि कोई अन्य विचारक रूढ़िवाद को प्रारंभिक रूप से एक राजनीतिक प्रतिक्रिया तथा द्वितीयक, विचारों के एक समूह के रूप में देखता है।
क्लिंटन रॉस्सीटर के अनुसार, रूढ़िवाद “एक ऐसा शब्द है, जिसकी उपयोगिता मात्र उसकी प्रत्याख्यान, विरूपण तथा प्रकोपन से ही जोड़ी जा सकती है।” वह आगे लिखता है: “क्योंकि जिन विचारों व क्रियाओं का रूढ़िवाद बोघ देता है, वे वास्तविक तथा स्थायी होते हैं और क्योंकि इसके विकल्प को सामान्यतया स्वीकार नहीं किया जाता, इसलिए रूढ़िवाद की लम्बी आयु पर किसी को कोई सन्देह नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय से रूढ़िवाद का उपयोग अनेक अर्थों में किया जाता है।
स्वभावगत रूढ़िवाद
एक परिभाषा के अनुरूप रूढ़िवाद एक विधिवत् जीवन तथा कार्य-संचालन शैली के विरुद्ध परिवर्तनों को रोकने हेतु एक प्राकृतिक एवं सुसांस्कृतिक प्रवृति है। (रॉस्सीटर के अनुसार, “रूढ़िवाद, प्रभावी रूप से, एक स्वभावगत एवं मनोवैज्ञानिक अवस्थिति है; विशेषताओं का एक समूह जो सभी समाजों में अधिकांश लोगों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। वे रूढ़िवादी स्वभाव के आवश्यक तत्वों को इस प्रकार बताते हैं: अभ्यस्तता (समाज का व्यापक उड़ान चक्र तथा उसका बहुमूल्य रूढ़िवादी एजेन्ट); जड़त्व (एक ऐसी शक्ति जो भौतिक संसार में जितनी सशक्त होती है, उतनी सामाजिक संसार में भी); भय (अप्रत्याशित, अभिभ्रमित तथा कष्टदायक तथ्यों से); स्पर्धा (समूह के अलगाव के डर तथा उन के समर्थन के प्रति लालसा से उत्पन्न व्यवस्था से जुड़ी)।
अतः हम निर्धन, वृद्ध तथा अनभिज्ञ के रूढिवाद के विषय में थोड़ा-बहुत कह-सुन सकते हैं।” रॉस्सीटर कहता है, “इसके साथ साथ, सामाजिक अस्तित्व के पैटर्न तथा सामाजिक प्राप्ति के संदर्भ में रूढ़िवादी स्वभाव को उच्च मूल्य प्रदान किए जाने चाहिए।” कि हम कहाँ गए थे। यह ही इतिहास की रूढ़िवादी विचारधारा की आधारभूत स्थिति है।” इसका अर्थ उसे उनके सामाजिक दायित्वों व बन्धनों के साथ जोड़ना होता है। रूढ़िवादियों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ, प्रारंभिक रूप में, लोगों को उनके कर्त्तव्यों का पालन कराना होता है।
उदाहरणार्थ माता-पिता अपने बच्चों को एक विशेष रूप से कार्य करने अथवा बर्ताव करने के लिए कहते हैं, तो वह उनकी स्वतंत्रता को किसी भी रूप से कम नहीं करते, ऐसा कर के, माता-पिता बच्चों की स्वतंत्रता को एक आधार, एक निर्देश तथा एक दिशा प्रदान करते हैं, ताकि जब वे बड़े हों, तो वे स्वतंत्रताओं का सही आनन्द ले सकें। रूढ़िवादियों की स्वतंत्रता की अवधारणा न तो सारहीन है और न ही आधारहीन- वस्तुतः रूढ़िवादी ऐसा ही सोचते हैं। यह कर्तव्यों के पालन के साथ साथ अधिकारों के आनन्द लेने का नाम है।
स्थितिगत रूढ़िवाद
एक दूसरी परिभाषा के अनुरूप, रूढ़िवाद, पहली परिभाषा से सम्बन्धित, एक ऐसी अभिरुचि है जो सामाजिक, आर्थिक, कानूनी, धार्मिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक व्यवस्था में विध्वंसीय परिवर्तनों का विरोध है। रॉस्सीटर स्पष्ट करते हुए कहता है कि “रूढ़िवाद थोड़ा-बहुत सादे रूप से परन्तु उनके – साथ-साथ प्रभावी रूप से सामाजिक व्यवहार की एक शैली है, सिद्धान्तों तथा पूर्वाग्रहों का एक समूह है, जो तभी विकसित समाजों में अधिकांश लोगों द्वारा प्रतिदिन प्रदर्शित होता रहता है।” इस रूढ़िवाद का प्रभेदक लक्षण परिवर्तन का भय है, जो राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तित हो जाता है और जैसे कि रॉस्सीटर कहता है, “आमूलवाद के भय में परिवर्तित हो जाता है। यह आमूलवाद/विप्लववाद उन लोगों से सम्बन्धित है जो पुराने मूल्यों, संस्थाओं तथा जीवन-स्तर की शैलियों को नष्ट कर नए विश्वव्यवस्था की रचना का सुझाव देते है।
स्थितिगत रूढ़िवाद मात्र संभ्रात व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है। इसका विस्तार उन सभी लोगों तक है, जो यथास्थिति में परिवर्तन पर खेद व्यक्त करते हैं। यह र्दुभाग्य है कि स्वभावगत रूढ़िवाद तथा स्थितिगत रूढ़िवाद दोनों को सत्तावाद, अंधकारवाद, नस्लवाद, फासीवाद, अलगाववाद, असमंजन तथा बन्द-व्यवस्था आदि से जोड़ा जाता है। रूढ़िवाद को इनमें से किसी के साथ जोड़ने से पहले अध्ययन व शोध की आवश्यकता है।
राजनीतिक रूढ़िवाद
एक अन्य परिभाषा के अनुरूप, रूढ़िवाद उन राजनीतिक दलों तथा आन्दोलनों की आकांक्षाएँ तथा क्रियाएँ (जो अधिकांशतः सृजनात्मक की अपेक्षा प्रतिरक्षात्मक है) हैं, जो विरासत में प्राप्त नैतिकता के पैटर्न तथा सिद्ध संस्थाओं को मान्यता देते हैं। यह दल तथा आन्दोलन की नम्र वामपंथियों के सुधारात्मक योजनाओं तथा उग्र वामपंथियों की परियोजनाओं का विरोध करते हैं।
राजनीतिक रूढिवाद एक ऐसा तत्व है, जो संगठित समाज को सार्वभौम तथा तत्कालीन स्थापित समाज को अनिवार्यतः सुरक्षित मान्यता प्रदान करता है। प्रतिक्रिया रूढ़िवाद नहीं है। यह उन लोगों की स्थिति है, जो भविष्य की अपेक्षा अतीत की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं तथा जो यह महसूस करते हैं। कि अतीत में वापसी प्रयास योग्य हैं। रूढ़िवादी व्यक्ति अनिवार्यतः विश्राम की स्थिति में होता है; सामान्यतया ऐसा व्यक्ति “उस संसार के प्रति जिसे उन्होंने नहीं बनाया होता’, मानसिक, मनोवैज्ञानिक एवं व्यवहारिक रूप से सामंजस्य की स्थिति में होता है।
प्रतिक्रियावादी सदैव गति की अवस्था में होता है तथा जैसा कि रॉस्सीटर कहते हैं, “ऐसा व्यक्ति उस स्थिति को स्वीकार करने से इंकार करता है, कि जो स्थापित हो चूका है वे सदैव अच्दा तथा सहनीय होता है, ऐसा व्यक्ति कुछ कुरेदना चाहता है, कुछ संस्थाओं को क्षतिग्रस्त करना चाहता है, अपने राष्ट्र के संविधान में संशोधन तक करना चाहता है; वह सामाजिक प्रक्रिया को उस समय तक वापस ले जाना चाहता है, जब उनके देशवासियों ने मूर्खता के कारण गलत मार्ग अपना लिया था।’
रूढ़िवादः उसकी खास विशेषताएँ
एडमण्ड बर्क ने कहा था कि “संरक्षण की इच्छा” रूढ़िवादी विचारधारा का एक अंतर्निहित सार है. यद्यपि ‘संरक्षण’ रूपी लक्ष्य की प्राप्ति को सभी रूढिवादी एक समान महत्वपूर्ण नहीं मानते। सत्तावादी साढ़वाद प्रायः प्रतिक्रियावादी है। यह या तो परिवर्तन के प्रति झुकाव को स्वीकार नहीं करता या समय का पुनः वापस लाने का प्रयास करता है। क्रान्तिकारी रूढिवाद विल्पववादी रूढिवाद शब्द का प्रयोग कर सकता है तथा क्रान्तिकारी स्वरूप के रूढिवादी संरचना की प्राप्ति, उसकी पूनःस्थापना अथवा उनके लिए ज़ारदार तक का समर्थन करता है। रूढिवाद की खास विशेषताओं को, जैसे कि वह विभिन्न रूपों म विकसित होती है तथा जैसे वह अपनी मौलिकताओं को प्रदर्शित करती हैं. उनको इंगित किया जा सकता है।
इतिहास तथा परम्परा
किसी भी प्रकार के रूढ़िवाद के लिए इतिहास तथा परम्परा को मौलिक मानना लगभग अनिवार्य होता है। इतिहास का दूसरा नाम अनुभव है। यह मानवीय सम्बन्धों के मामलों में निगमनात्मक चिन्तन है। वैधता इतिहास की कृति है। मैनहीम लिखते हैं “रूढिवादी के रूप में तथ्यों का विश्वसनीय रूप में देखना मानो ऐसा है, जैसे कोई अतीत में घटनाओं को अनुभव कर रहा हो ।’ सही इतिहास सीधे तथा ऐतिहासिक ढंग की अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु, पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित संरचनाओं, समाजों, आदतों तथा पूर्वाग्रहों का अस्तित्व है। इतिहास अथवा मनुष्य की सत्यता पर अड़े रहना रूढ़िवादी तत्व है। बर्क, राऊरक, ऑकशॉट तथा वोगालिन आदि विद्वानों ने ऐसे ही कुछ तथ्यों/तत्वों पर बल दिया है।
सामाजिक वास्तविकता को एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ही समझा जा सकता है। “हम नहीं जानते कि हम कहाँ हैं; हम यह तो कम जानते हैं कि हम कहाँ जा रहे हैं, जब तक कि हम यह नहीं जानते इतिहास का परम्पराओं द्वारा प्रतिनिधित्व प्रदर्शित होता है तथा परम्पराएँ इतिहास का एक मुख्य घटक हैं। इस दृष्टि से रूढ़िवाद का मुख्य सार, इतिहास के संदर्भ में, परम्पराओं की रक्षा तथा स्थापित रीतिरिवाज़ों व संस्थाओं को बनाए रखना, उसकी प्रबल इच्छा है। बर्क परम्पराओं की बात कर रहा थे जब उन्होंने समाज को “उन लोगों की जो मर चुके हैं, तथा उन लोगों की जो जीवित हैं तथा उन लोगों की जो पैदा होंगे, की साझेदारी बताया था।”
चैस्टरटन ने कहा है कि ”परम्परा मृतों का लोकतंत्र है”। टस दष्टि से. परम्परा अतीत की जमा बुद्धि का प्रदर्शन होता है। अतीत की संस्थाएँ तथा व्यवहार समय की कसौटी द्वारा सिद्ध तत्व हैं। अतः रूढ़िवादी माँग करते हैं कि ऐसी संस्थाएँ व व्यवहार उनके लिए को जीवित हैं तथा उन पीढियों के लिए जो आने वाली हैं, के लाभ हेतु उन्हें बनाए रखना चाहिए।
मानवीय अपूर्णता, पूर्वाग्रह तथा विवेक
रूढ़िवाद मानवीय अपूर्णता का दर्शन है: मनुष्य के आधार की जड़ें विवेक में न होकर, पूर्वग्रह में होती हैं। उदारवादियों की सोच के विपरीत जो लोगों को नैतिक, विवेकीय तथा सामाजिक बताते हैं, रूढ़िवादी लोगों को अपूर्ण तथा अपूर्णीयतता का प्रतीक समझते हैं। रूढ़िवादियों का विश्वास है कि हा लोग आश्रित जीव हैं, सदैव अकेलेपन तथा अस्थिरता से भयग्रस्त रहते हैं और इस कारण स्थिरता तथा सुरक्षा की माँग करते हैं; उन्हें वह पसंद होता है, जो परिचित होता है तथा सामाजिक व्यवस्था के लिए सदैव स्वतंत्रता की कुरबानी करने के लिए तत्पर रहते हैं। रूढ़िवादियों का मानना है कि लोग अपने स्वभाव के कारण अमूर्त विचारों में संदेह व्यक्त करते हैं तथा अपने विचारों को अनुभव व वास्तविकता पर आधारित रखते हैं। उनके मन-मस्तिष्क में अतीत की सहायता से बनी व पनपी एक संरचना रहती है – एक पूर्वाग्रही संरचना |
निस्बत के अनुसार, ”रूढ़िवादी प्रतिकूलता में एक तात्विक बुद्धि देखते हैं, ऐसी बुद्धि जो प्रज्ञात्मकता के पूर्ववर्त होती है। प्रतिकूलता किसी भी आपात स्थिति के लिए तैयार नुस्खा होती है, जो अतीत में मस्तिष्क को बुद्धि व गुणों से ओत-प्रोत रखती है और जो निर्णय, संशय, दुविधा तथा अनिश्चितता में व्यक्ति को हिचकिचाहट की स्थिति में नहीं छोड़ती। विवेक ज्ञान से निकलता है, जो प्राप्त अधिक होता है और सीखा कम जाता है।
रूढ़िवादियों का विचार है कि प्राप्त ज्ञान अमूर्तता तथा अमूर्त ज्ञान को जन्म देता है तथा लोगों के लिए इस पूर्ण रूप से समझना कठिन होता है। सीखा गया ज्ञान अनुभव में पनपता है तथा कुछ करने तक सीमित रहता है तथा गलतियों के माध्यम से सीखने तक सीमित होता है। ऐसा ज्ञान नियमों व सामान्यताओं का ज्ञान नहीं होता परन्तु ऐसा ज्ञान होता है, जो एक व्यक्ति के अनुभव से निकलता है तथा दूसरे के रक्त में रिस जाता है। विवेक को ज्ञान समझना रोग का इलाज़ नहीं होता, अपितु रोग से भी अधिक दूषित तत्व है, एक ऐसा तत्व जो इलाज़ को भी रोगग्रस्त बना देता है।
जैविक समाज, स्वतंत्रता तथा समानता रूढ़िवादियों के लिए समाज का स्वरूप जैविक है: व्यक्ति समाज से बाहर नहीं रह सकते; समाज के बिना व्यक्तियों का कोई वजूद नहीं होता, वे समाज के अन्दर उनके अटूट अंग होते हैं तथा समाज से जुड़े रहते हैं। व्यक्ति सामाजिक समूहों के अंग होते हैं और यह सामाजिक समूह व्यक्तियों को न केवल सुरक्षा देते हैं, अपितु उन्हें एक अस्तित्व भी प्रदान करते हैं।
स्वतंत्रता के विषय में रूढ़िवादियों की धारणा यह है कि स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति को उनके हाल पर अकेले छोड़ना नहीं होता, अपितु समाज के विषय में रूढ़िवादियों की सोच यह है कि समाज अपने आपमें एक जीव है एक ऐसी जैविक संस्था, जिसके सदस्य न तो एक समान हैं और न ही एक जैसे हैं; वे एक जैसा काम भी नहीं करते परन्तु इसके बावजूद वह समाज रूपी मानवीय शरीर को प्रभावपूर्ण रूप से काम करने में योगदान देते हैं।
जैविक समाज का प्रत्येक अंग (परिवार, सरकार, फैक्टरी आदि) समाज को बनाए रखने में अपना अपना विशेष कार्य करता है। हैवुड कहते हैं, “यदि समाज जैविक है, तो उसकी संरचना तथा उसकी संस्थाएँ प्राकृतिक शक्तियों द्वारा आकृत होती हैं, तथा उसका ढाँचा विशेषतायों द्वारा जो उसमें रहते हैं, बनाए रखा जाए तथा उसका विधिवत रूप से आदर किया जाए।”
रूढिवादियों का जैविक समाज का रूप एक ऐसी एकता का नाम है, जो विविधताओं द्वारा बनती है। ऐसा समाज एक सीढ़ीनुमा रूप का होता है, जहाँ स्वतंत्रता प्रभावपूर्ण तरीके से काम करती है तथा उस रूप में उसका कोई मतलब भी होता है। ऐसे विविधता पूर्व जैविक समाज में समानता का कोई स्थान नहीं होता। समानता के विभिन्न रूप व्यक्तियों तथा समूहों की स्वतंत्रताओं को जोखिम में डाल देते हैं – स्वतंत्रताएँ जो अंतर्निहित विविधताओं से अलग नहीं होती, विभिन्नताओं से पृथक नहीं होती तथा परिवर्तीय अवसरों से परे नहीं होती (निस्वत)। इस संदर्भ में बर्क कहते हैं: “जो लोग समतल बनाने का प्रयास करते हैं, वह कभी समानता नहीं लाते।”
सत्ता तथा शक्ति
जिस रूप में सत्ता तथा शक्ति का सामान्यतः प्रयोग किया जाता है, रूढ़िवादियों के लिए दोनों में अनेक समानताएँ हैं। शक्ति उनके द्वारा प्रयोग में लायी जाती है, जिसके पास उनके प्रयोग की अधिकाधिक सत्ता होती है। शक्ति उनके पास वह कानूनन अधिकार है, जो कुछ करने की शक्ति रखता है। किसी भी जैविक एवं सुसंगत समाज में व्यवस्था को बनाना अनिवार्य होता है। अतः ऐसे समाज के लिए शक्ति एक अनिवार्य अंग हैं। अधिश्रयिक समाज में अनेक स्तर होते हैं अतः सत्ता का होना अनिवार्य होता है। रूढ़िवादी दर्शन में सत्ता तथा शक्ति महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं।
स्वतंत्रता के लिए, सत्ता व शक्ति कोई बाधा नहीं होते कम से कम रूढ़िवादी तो ऐसा सोचते हैं। बर्क ने कहा है, “मेरे लिए स्वतंत्रता केवल वह स्वतंत्रता होती है जो व्यवस्था के साथ जुड़ी होती है, जिसका अस्तित्व केवल व्यवस्था तथा क्षमता से सम्बन्धित होता है और जो इसके बिना हो ही नहीं सकती।” रूढ़िवादियों का विश्वास है कि समाज की भाँति सत्ता का भी प्राकृतिक रूप से विकास होता है; सत्ता कार्यों से उभरती है। उनका कहना है कि सत्ता तथा शक्ति प्राकृतिक समाज से विकसित होते हैं। यह प्राकृतिक इसलिए होते हैं कि यह समाज व दूसरी सामाजिक संस्थाओं के स्वरूप में बद्धमूल होते हैं। स्कूल परिसर में सत्ता तथा शक्ति अध्यापक द्वारा प्रयोग की जानी चाहिए; काम के स्थान पर काम के स्वामी द्वारा तथ समाज में सरकार द्वारा शक्ति/सत्ता का प्रयोग किया जाना चाहिए।
रूढ़िवादी कहते हैं कि सत्ता का कोई भी रूढिवादी समानता में विश्वास नहीं रखता; सामाजिक समानता में तो बिल्कल भी नहीं। वे कहते हैं कि लोग असमान इस दृष्टि से पैदा होते हैं कि उनकी क्षमताओं तथा निपुणताओं में प्राकतिक रूप में विभाजन बना रहता है। असमानों के लिए व्यवहार समान नहीं होना चाहिए। रूढिवादियों की मान्यता है कि असमानता अपेक्षाकृत अधिक गहरे रूप से जड़ तक फैली होती है। वास्तविक सामाजिक समानता, रूढ़िवादियों का मत है, मात्र एक मिथक है।
रूढिवाद शक्ति को इसलिए पसंद करता है, क्यँकि इससे समाज में व्यवस्था की स्थापना संभव हो पाती है। वह सत्ता को इसलिए सम्मान देता है कि इससे समाज में व्यवस्था पनपती रहती है। रूढिवादी एक सत्तावादी तथा सर्वशक्तिमान राज्य का पक्ष लेते हैं। सार्वजनिक व्यवस्था तथा समाज का नैतिक ढाँचा राज्य की शक्ति तथा सत्ता द्वारा ही कायम किया जा सकता है। हैवुड कहते हैं, “इस के अतिरिक्त, रूढ़िवाद की विचारधारा के अंतर्गत एक सशक्त पितृवादी परम्परा है, जो सरकार को समाज में एक पिता का दर्जा प्रदान करती है।”
सम्पत्ति तथा जीवन
रूढ़िवादियों के लिए सम्पत्ति का अपना एक विशेष महत्व है। उनका मत है कि सम्पत्ति का एक व्यापक मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक लाभ होता है; यह सुरक्षा प्रदान करती है। लोगों में आत्म-विश्वास पैदा करती है; सामाजिक मूल्यों को प्रोत्साहित करती है। अतः रूढ़िवादियों की यह माँग रही है कि सम्पत्ति को अव्यवस्था तथा अराजकता से सदैव सुरक्षित रखा जाना चाहिए। वे कहते हैं कि सम्पत्ति वालों का ही समाज में कुछ दाँव पर होता है। समाज में कानून तथा व्यवस्था के बने रहने तथा बनाए रखने में उनकी विशेष रुचि होती है।
सम्पत्ति स्वामित्व कानून, सत्ता तथा सामाजिक व्यवस्था को सम्मानित करने के रूढ़िवादी मूल्यों को प्रोत्साहित करता है। हैवुड लिखते हैं, “एक अधिक तथा गहन निजी कारण जिसके फलस्वरूप रूढ़िवादी सम्पत्ति का समर्थन क्यों करते हैं, वह यह है कि वे सम्पत्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक विस्तार मानते हैं, लोग अपने आपको उनमें जो उनके पास है महसूस भी करते हैं तथा देखते भी हैं।”
बर्क ने लिखा है कि ‘यह सम्पत्ति का अपमान था जिसके कारण अन्य त्रुटियों ने जन्म लिया तथा फ्राँस की 1789 की क्रान्ति हुई और इस कारण पूरे यूरोप में खतरा मंडराने लगा।’
रूढ़िवाद सम्पत्ति की पवित्रता की वकालत करता है। रस्सल कर्क लिखते हैं कि “प्रत्येक वास्तविक रूढ़िवादी के मन में यह धारणा सदैव पनपती रहती है कि सम्पत्ति तथा स्वतंत्रता अटूट रूप से जुड़े होते हैं। समस्त आर्थिक स्पाटता आर्थिक विकास नहीं होता; सम्पत्ति को निजी स्वामित्व से अलग कर दीजिए, स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी।
इरविंग बैबिट ने कहा है, “सभी प्रकार का सामाजिक न्याय अधिहरण है; बड़े पैमाने का अधिहरण नैतिक मानकों की अवमानना करता है तथा उस सीमा तक वास्तविक न्याय को चालाकी के कानून तथा बल के कानून के अधीन कर देता है।”
धर्म तथा नैतिकता
प्रमुख विचारधाराओं में रूढ़िवाद इस दृष्टि से विचित्र है कि यह धर्म तथा नैतिकता पर अधिक बल देती है। अपने नामकरण के भेद-विभेद के बावजूद, सभी रूढ़िवादियों जैसे हेगल, हैलर तथा कोलारिज आदि ने धर्म तथा नैतिकता को राज्य तथा समाज का मूल सिद्धान्त बताया।
धर्म तथा नैतिकता के लिए रूढिवादी समर्थन का मुख्य आधार इस विश्वास के साथ जड़ा हआ है कि जनमानस जब रूढ़िवादिता से दूर हो जाता है, तो वह पागलपन से ग्रस्त तथा संतुलन को खो बैठता है। बर्क ने अपने पुत्र को लिखा था: “धर्म एक अबोध्य तथा विपरीत संसार से हटते हुए लोगो को एक दूसरे से बांधता है।”
ताकविल ने अपनी मृत्यु के समय माना था कि “सरकार, समाज तथा स्वतंत्रता के लिए धर्म तथा नैतिकता का क्या मल्य होता है। धर्म और विशेष रूप से राजनीति में जब धर्म के सिद्धान्त व नियम नहीं होते, लोग बेलगाम स्वतंत्रता के प्रकोप से भयभीत हो जाते हैं। मेरे लिए यह एक सन्देह का तथ्य है कि क्या व्यक्ति सम्पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता तथा समस्त राजनीतिक स्वतंत्रता का एक साथ एक समय समर्थन कर सकते हैं? मैं यह सोचने के लिए विचार अवश्य कर सकता हूँ कि यदि व्यक्ति में विश्वास की कमी है, तो उसे परतंत्र के रूप में रहना चाहिए और यदि वह स्वतंत्र है, तो उसे विश्वास करना चाहिए।”
धर्म एक आध्यात्मिक तत्व है। परन्तु साथ ही, वह एक अनिवार्य सामाजिक सीमेन्ट भी है। रूढ़िवादियों के लिए धर्म तथा रूढ़िवाद में एक घनिष्ठ सम्बन्ध है: धर्म समाज को एक नैतिक आधार/ढाँचा प्रदान करता है।