अन्तराष्ट्रीय संबंधो में ‘ग्रेट डिबेटस्’ | The Great Debates
परिचय
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में बहुत से विवाद हुए हैं। यह वाद विवाद समय के साथ साथ चलती रहती है क्योंकि इसमें अनेक नए नए विचार आते रहते हैं। सबसे पहली डिबेट 1920 में हुई थी यह डिबेट सामान्य के साथ-साथ परिवर्तित होती रही है।
पहली डिबेट आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच में हुई थी जिसमें इन दोनों के बीच कई मतभेद हुए थे जिसके कारण उनमें विवाद हुआ था। दूसरी डिबेट परंपरावादी और व्यवहारवाद के बीच हुई थी जिसमें मार्टन कपलान ने इसे New Great Debate कहा है। तीसरा विवाद 1970 में हुआ था जिसे अंतर-पैराडाइम डिबेट कहा जाता है। इस डिबेट में यथार्थवाद और बहुलवाद के विचारों को लेकर विवाद हुआ था। चौथी डिबेट तर्कवाद और प्रतिक्रियावाद पर आधारित थी। अतः हमें डिबेट को समझने के लिए इन चारों डिबेट का अध्ययन करना बहुत जरूरी है।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन के एक विश्वसनीय दृष्टिकोण के रूप में आदर्शवाद तथा यथार्थवाद दोनों दृष्टिकोण परस्पर प्रतिद्वंदी रहे हैं। दोनों अंतरराष्ट्रीय वास्तविकता के पूर्ण रूप के विशिष्ट विचार की वकालत करते हैं। यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति की पुरातन परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा दोनों के सार आदर्शक (Normative) हैं।
आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार के पुराने प्रभावहीन तथा हानिकारक तरीकों को जैसे युद्ध, शक्ति, प्रयोग आदि को छोड़ देना चाहिए व इसके स्थान पर ज्ञान, तर्क, संवेदनशीलत जैसे नए तरीकों व साधनों को अपनाना चाहिए। जबकि इसके विपरीत यथार्थवादी दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष मानता है तथा राष्ट्रों के हित के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शक्ति प्रयोग को स्वभाविक मानता है।
यह एक दूसरे के विचारों के कट्टर विरोधी हैं। आदर्शवाद शक्ति संघर्ष को अस्वाभाविक मानता है और इसकी समाप्ति की बात करता है। इसके माध्यम से ही विश्व शांति व सुरक्षा को बनाए रखा जा सकता है। जबकि यथार्थवाद शक्ति को जरूरी मानता है इसके अनुसार युद्ध को रोका नहीं जा सकता बल्कि इसे केवल कुछ समय के लिए टाला जा सकता है।
आदर्शवादी दृष्टिकोण
आदर्शवादी दृष्टिकोण यथार्थवाद के बिल्कुल विपरीत है। यथार्थवादी दृष्टिकोण को विकृत प्रतिक्रियात्मक मानव द्विवेदी तथा स्वयंसेवी मानता है जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शक्ति राजनीति को अनुचित व अनैतिक अस्वाभाविक ठहराता है। आदर्शवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों को सुधारने के लिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति से युद्ध, भूख, असमानता, प्रभावशाली शक्ति दबाव व हिंसा को समाप्त करने के पक्ष में है। यह बुराइयों से मुक्त विश्व की स्थापना करना चाहते हैं।
रसेल के अनुसार आदर्शवाद के आशावाद का सार तब दिया गया जब मानवीय सुखों से भरपूर एक विश्व का निर्माण शांति से प्राप्ति के लिए असंभव नहीं है। 1913 से 1929 में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन आदर्शवाद के सबसे बड़े प्रवक्ता थे। यह दृष्टिकोण विश्व को एक आदर्श विश्व बनाने के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए साधन के रूप में नैतिकता पर बल देता है। यह आपसी संबंधों में नैतिकता तथा मूल्यों को मानकर राज्य ना केवल अपना विकास कर सकते हैं बल्कि यह विश्व में युद्ध, असमानता, हिंसा, व शक्ति को समाप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। कोलंबस और वुल्फ़ के अनुसार आदर्शवादियों के विचारों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह राजनीति एक अच्छी सरकार की कला है ना की संभावित सरकार की कला।
आदर्शवाद के प्रमुख लक्षण
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यथार्थवादी दृष्टिकोण
यथार्थवाद के प्रमुख समर्थक मैक्स वेबर, ए एच कार, फैब्रिक शूमैन, निकोलस, स्पाइकमैन, हंस जे मार्गेनथउ आदि थे। यह दृष्टिकोण राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष मानते हैं तथा शक्ति, सुरक्षा व राष्ट्रीय हित के माध्यम से इसका वर्णन करता है। यह शक्ति एक ऐसा मनोवैज्ञानिक संबंध है जिसमें एक कार्यकर्ता वह है जो अपने हितों को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। इसमें एक करता दूसरे कार्यकर्ता के व्यवहार को नियंत्रित करने के योग्य होता है। कोलंबिया एवं वुल्फ के अनुसार यथार्थवाद कहता है कि तर्कसंगत कार्य वह है जो अपने हितों में किया जाता है तथा जिसका उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना होता है। शक्ति का अर्थ है दूसरों को नियंत्रित करने की योग्यता एवं इच्छा।
यथार्थवाद के आधारभूत सिद्धांत
राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए कार्य करना ही राजनीति है। हंस जे मार्गेनथउ के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यथार्थवादी सिद्धांत राष्ट्रों के मध्य समस्त राजनीति की उत्पत्ति एवं व्यवहार का वर्णन करता है। मार्गेनथउ हमारे युग के सभी यथार्थवादियों में से सबसे अधिक लोकप्रिय रहे थे।
आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद
यथार्थवाद एवं आदर्शवाद दोनों अंतरराष्ट्रीय वास्तविकता के स्वरूप तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों का संचालन करने वाले उपयुक्त ढंगों के बारे में एक-दूसरे के कट्टर विरोधी हैं। आदर्शवाद शक्ति संघर्ष को अस्वाभाविक, अनुचित मानता है तथा उसकी समाप्ति की बात करता है। यह विश्व को युद्ध रहित, हिंसा रहित, सशस्त्रहीन, विकसित व तर्कपूर्ण विश्व बनाने का समर्थन करता है। इसके विपरित यथार्थवाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति को राज्यों में शक्ति के लिए संघर्ष के रूप में परिभाषित करता है। वह शक्ति संघर्ष को स्वाभाविक व ना समाप्त होने वाली अवस्था मानता है। इसे समाप्त नहीं किया जा सकता परंतु शक्ति संबंध प्रबंध के विभिन्न साधनों को अपनाकर इसे युद्ध में परिवर्तित होने से रोका जा सकता है तथा विश्व शांति व सुरक्षा को कायम किया जा सकता है।
आदर्शवादियों के द्वारा यथार्थवादियों के विरुद्ध तर्क:-
यथार्थवादियों की इस धारणा की शक्ति के लिए संघर्ष स्वभाविक है तथा इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। आदर्शवादी इसकी कठोर आलोचना करते हैं वह शक्ति राजनीति को अस्वाभाविक, असामान्य व अस्थाई मानते हैं। इनका विश्वास है कि व्यवहार में पूर्णतया नैतिक मूल्यों के माननीय इच्छुक प्रयत्न द्वारा शक्ति के लिए संघर्ष तथा युद्ध को समाप्त किया जा सकता है। आदर्शवादियों के लिए राजनीति का अर्थ है शक्ति का परित्याग, शिक्षा को प्रोत्साहन, मानव कल्याण के लिए विज्ञान का विकास, सभी राज्यों का सह-अस्तित्व। यह युद्ध को अनुचित मानते हैं।
यथार्थवादियों के द्वारा आदर्शवादियों के विरुद्ध तक:-
दूसरी ओर यथार्थवादी, अदर्शवादियों की कड़ी आलोचना करतें हैं तथा इसे खोखला आदर्श राज्यवाद कहते हैं। जिसमें मानवीय स्वभाव व राजनीति दोनों की अवहेलना की जाती है। यथार्थवादी यह विश्वास करते हैं कि व्यक्तिगत स्वाहित स्वाभाविक भी है व उचित भी यथार्थवादी ही सभी कार्यों के लिए सबसे अच्छे मार्गदर्शक हो सकते हैं। नैतिकता महत्वपूर्ण है पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इसका कम महत्व है। जब हम व्यावहारिक होते हैं तो उसी के अनुरूप कार्य करते हैं तभी हम राजनीति को समझते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शक्ति के लिए संघर्ष का संचालन करने, शक्ति के संघर्ष के लिए कूटनीति, निशस्त्रीकरण, शस्त्र नियंत्रण आदि का प्रबंध किया जा सकता है इसे समाप्त नहीं।
अदर्शवाद की यथार्थवादियों द्वारा अस्वीकृति का मूल्यांकन करते हुए कोलंबस व वुल्फ़ लिखतें हैं कि “यथार्थवादियों का मानना है की राजनीति में कानूनी , नैतिक, व आदर्शवादी व्यवहार की प्रकृति की शक्तियों के विरुद्ध चलता है। युद्ध के विरुद्ध शांति की संभावनाओ को मजबूत किया जाए व इसे प्राप्त किया जाए”।
आदर्शवाद और यथार्थवाद में झगड़े का मूल मुद्दा
आदर्शवाद और यथार्थवाद एक दूसरे के कट्टर विरोधी थे इस विरोध का केंद्र बिंदु राजनीति में शक्ति का स्थान यथार्थवादी शक्ति की भूमिका को मानते हैं तथा इसकी वकालत करते हैं। आदर्शवादी शक्ति की भूमिका को खंडन करते हैं जिसको वे अनचाहे तत्व के रूप में मानते हैं तथा इसे समाप्त करने की बात करते हैं। आदर्शवादी सभी अंतरराष्ट्रीय संबंधों का आधार नैतिक मूल्यों को मानने को महत्व देते हैं। यथार्थवादी वर्तमान पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं तथा सभी तत्व तथा शक्तियों को समझने की आवश्यकता की वकालत करते हैं। विशेषता राष्ट्रीय हित वह शक्ति जो राष्ट्रों के अच्छा शक्ति के लिए संघर्ष को निश्चित करते हैं। आदर्शवादी अंतरराष्ट्रीय समाज को सुधारने की आवश्यकता पर बल देते हैं वह नैतिक मूल्यों की बात करते हैं। वह कहते हैं कि सभी राष्ट्रों के राष्ट्रहित एक दूसरे के लिए सहायक होते हैं।
आदर्शवाद तथा यथार्थवाद दोनों में अंतर
आदर्शवाद और यथार्थवाद में गहरे अंतर हैं। यथार्थवादी शक्ति को प्रमुख मानते हैं तथा आदर्शवादी शक्ति की उपेक्षा करते हैं ई एच कार की पुस्तक “ट्वेंटी ईयर ऑफ क्राइसिस” में यथार्थवाद तथा आदर्शवाद में 6 मुख्य अंतर स्पष्ट किए हैं यह इस प्रकार है:-
1. यह आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच व्याख्या प्रदान करता है। आदर्शवादी मानते हैं कि इच्छा के द्वारा समाज में बदलाव संभव है। इसमें सूचना का अभाव की रुकावट बनता है। यह विश्व में शांति चाहते हैं लेकिन उनके पास पृथ्वी पर शांति स्थापित करने के लिए कोई योजना नहीं है। दूसरी और यथार्थवादी समाज को एक ऐतिहासिक परिणाम मानते हैं। जो इच्छा द्वारा परिवर्तित नहीं हो सकती।
2. दूसरा अंतर सिद्धांत व व्यवहार के बीच का है। आदर्शवादियों के अनुसार सिद्धांत यह कहते हैं कि क्या होना चाहिए आदर्शवादी असमंजस में रहते हैं यथार्थवादियों के लिए सिद्धांत वास्तविकता व मामलों की वास्तविक प्रकृति से संचालित होता है। यह वास्तविकता से निर्मित करने की कोशिश करते हैं।
3. तीसरा अंतर बुद्धिजीवियों तथा नौकरशाहों के बीच का है । बुद्धिजीवी सिद्धांत के पूर्ण आधिपत्य को मानते हैं। और अपने आप को मानव की क्रियाकलापों का एक सच्चा मार्गदर्शक समझते हैं। जबकि नौकरशाह मौजूदा कार्यों से बंधा है। वह उसके पास सिद्धांत नहीं है। वह उसी व्यवस्था को जारी रखना चाहते हैं। जो वास्तविक अनुभव से स्वयं निकलते हैं।
4. चौथ अंतर वाम तथा दाम के बीच है। वाम आदर्शवाद करने में प्रगतिशील है जबकि दाम वास्तविक रुप से रूढ़ीवादी है।
5. पांचवा अंतर उग्र सुधारक तथा रूढ़िवादी के बीच है। उग्र सुधारक आदर्शवादी बुद्धिजीवी सिद्धांतकार होते हैं जबकि रूढ़िवादी यथार्थवादी नौकरशाही तथा व्यावहारिक लोग होते हैं।
6. अंत में ऐसा ही अंतर नीति शास्त्र व राजनीति में है। आदर्शवादी नीति के मार्गदर्शक के रूप में नीतिशास्त्र की प्रधानता को मानते हैं जबकि यथार्थवादी मानते हैं कि नीतीश शाखा नीतिशास्त्र शक्ति से संबंधों से निकलता है। किसी तरह राजनीति पूर्ण अधिशासी होती है।
निष्कर्ष
प्रश्न यह है कि क्या हम दोनों दृष्टिकोण का संश्लेषण कर सकते हैं। यथार्थवादियों की बुद्धिमत्ता व आदर्शवादियों के आदर्शवाद को मानकर या यथार्थवादियों की निराशा व आदर्शवादियों की मूर्खता को अस्वीकार करके इन दोनों का समावेश कर देना चाहिए?