उत्तर आधुनिकतावाद [Post Modernism]| अंतर्राष्ट्रीय संबद्धों में रिचर्ड डेबेटॉक के विचार
उत्तर आधुनिकतावाद
By: Richard Devetak
रिचर्ड डेबेटॉक के अनुसार 1980 के दशक के मध्य में अंतरराष्ट्रीय संबंधों का विषय विभिन्न आलोचनात्मक सिद्धांतों की गहरी चुनौती के मध्य फस गया था। जब फ्रैंकफर्ट स्कूल के आलोचनात्मक सिद्धांत तथा बाद में उत्तर आधुनिकतावाद ने इस विषय का प्रबंधन किया जो कमोबेश रूप से अभी तक अपनी सीमितताओ में जकड़ा हुआ था।
1987 में डेर डेरियन की पुस्तक ”On Diplomacy” तथा 1989 में वॉकर की पुस्तक “On Jond/Mong world’s: struggle for just world peace” प्रकाशित हुई दोनों पुस्तकें उत्तर आधुनिकतावाद के सांचे में ढली थी। इसी सांचे में ढली हुई 1989 में एक अन्य पुस्तक जेम्स डेरियन तथा माइकल जे. सैपिरो द्वारा संपादित हुई।
उत्तर आधुनिकतावाद पर अलग-अलग विचारको ने अपनी परिभाषा दी है:–
टोनी क्लिफ : इनका कहना है कि उत्तर आधुनिकतावाद सिद्धांतों को रद्द करने का सिद्धांत है।
J F लियोटार्ड : इनका कहना है कि उत्तर आधुनिकतावाद का झुकाव “वर्णन बदलाव” की ओर है।
अल–गोर के अनुसार आत्ममोह तथा रद्द करना या शून्यवाद का मिलन उत्तर आधुनिकतावाद को सही रूप में परिभाषित करता है। यह नई-नई संरचनाओं की उत्पत्ति भी करता है इसीलिए हम इसे उत्तर संरचनावाद के नाम से भी जानते हैं।
उत्तर आधुनिकतावाद का विकास
औद्योगिक क्रांति या ज्ञानोदय के प्रभाव को ही प्राचीन दार्शनिक आधुनिकता के रूप में परिभाषित करते हैं। आधुनिकता ऐसा प्रोजेक्ट माना गया जिसमें प्रगति निहित है जिसे सार्वजनिक जीवन के विकासशीलता के सिद्धांतों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
यद्यपि आधुनिकतावाद तथा उत्तर आधुनिकतावादी युगों के बीच सीमा रेखा खींची जा सकती है। आधुनिकतावाद तथा उत्तर आधुनिकतावाद के मध्य एक महत्वपूर्ण विभेद इनके हितों में सार्वभौमिकता तथा समग्रता को लेकर है। जहां आधुनिकतावादियों का उद्देश्य कई रूपों में सार्वभौमिकता तथा समग्रता को हथियाना था वहीं उत्तर आधुनिकतावादियों ने इन महान व्याख्यानो को रद्द करना अपना उद्देश्य बना लिया था। जैसा कि लियोटर्ड का कहना है कि “मैं उत्तर आधुनिकतावाद को महान व्याख्याओ पर संदेह के रूप में परिभाषित करता हूं”।
लियोटर्ड : आधुनिकता को एक सांस्कृतिक परिस्थिति मानते हैं जबकि उत्तर आधुनिकता इस प्रक्रिया का चरम बिंदु है
उत्तर आधुनिकतावाद की मूल मान्यताएं
1.अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शक्ति तथा ज्ञान
फूको : शक्ति तथा ज्ञान
रिचर्ड डेबेटॉक का विश्लेषण कहता है कि रूढ़िवादी परंपरा सामाजिक वैज्ञानिकों का यह कहना था कि ज्ञान को शक्ति के प्रभाव से मुक्त रहना चाहिए।
कांट ने स्वयं कहा था शक्ति का अस्तित्व अनिवार्यता ही तर्क पर आधारित स्वतंत्र निर्णय को भ्रष्ट करता है। यही वह दृष्टिकोण था जिसका प्रभाव फूको तथा उत्तर आधुनिकतावाद पर पड़ा।
उत्तर आधुनिक विद्वानों पर शक्ति तथा ज्ञान की व्याख्या पर फूको के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। फूको कहते हैं की शक्ति तथा ज्ञान उतने ही अलग है जितना कि एक हाईफन (–)। उनका प्रमुख तर्क है कि शक्ति के द्वारा ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है तथा सभी प्रकार की शक्ति को ज्ञान की आवश्यकता होती है।
रिचर्ड ऐशले उनमें से एक हैं जिन्होंने शक्ति/ज्ञान संबंध के आयाम का खुलासा किया है। जैसा कि कहा कि फूको ने कहा कि राज्य के ज्ञान तथा मानव के ज्ञान के बीच ‘शासन की अवस्था’ है।
रिचर्ड ऐशले ने भी कुछ इसी प्रकार का तर्क दिया है उनके अनुसार “आधुनिक राज्यशिल्प, आधुनिक मानव शिल्प” है।
अंतरराष्ट्रीय संबंध के संदर्भ में उत्तर आधुनिकतावादी सिद्धांतकारों ने अंतरराष्ट्रीय संबंध के सिद्धांत के सत्य का परीक्षण करने के लिए इस दृष्टि का उपयोग किया जिसमें यह देखा जा सके की अवधारणा किस प्रकार विषय पर वर्चस्व का दावा करती हैं। वे वास्तव में निश्चित शक्ति संबंधों पर काफी निर्भर हैं।
वंश विज्ञान
बार्टेल्सन द्वारा दी गई जेनियोलॉजी अर्थात वंश विज्ञान की धारणा बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय संबंध में उत्तर आधुनिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बन चुकी है।
जेनियोलॉजी ऐतिहासिक विचार का ढंग है जो शक्ति ज्ञान संबंधों के महत्व को बताती है तथा उनका पर्दाफाश करती है।
रोनाल्ड ब्लेकर यह कहते हैं कि जेनियोलॉजी उस प्रक्रिया पर ध्यान देती है जिसके द्वारा हमने उत्पत्तिओ का निर्माण किया है तथा भूतकाल के विशेष चित्रों को अर्थ प्रदान किया है तथा चित्रण हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का नित्य मार्गदर्शन करते हैं तथा राजनीतिक और सामाजिक विकल्पों के लिए स्पष्ट सीमाएं स्थापित करते हैं।
इतिहास के अध्ययन का उत्तर आधुनिकतावादी उपागम जो की शक्ति ज्ञान के ढांचे के अंतर्गत आता है एक अन्य क्षेत्र भी है जो काफी लोकप्रिय हुआ है। फूको का योगदान उत्तर आधुनिक साहित्य में विशेष महत्व रखता है। इतिहास के अध्ययन का उसका उपागम जेनियोलॉजी के नाम से जाना जाता है।
इसकी मूल पूर्व मान्यता यह है कि सत्य जैसी कोई वस्तु ही नहीं केवल सत्य ही सत्ता हो सकती है तथा सत्य की यह सत्ता इस बात को दर्शाती है कि शक्ति तथा सत्य दोनों का विकास एक साथ हुआ और ऐतिहासिक दृष्टि से उनका संबंध एक-दूसरे को टिकाऊ बनाना रहा है।
2. उत्तर आधुनिकतावाद की मूल ग्रंथ रणनीतियां
विरचना (Deconstruction)
विरचना या पाठ्यवस्तु के कई अर्थों (साहित्यिक, दार्शनिक या कोई अन्य) तथा व्याख्याओ के खोलने का एक प्रयास मात्र है। यह तरीका एक पाठ्यवस्तु के अंतर्गत दोहरे विरोधो पर सामान्यता आधारित है।
विराचना तर्क देती है कि ऐसे विरोध सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक रूप में परिभाषित होते हैं और यह एक दूसरे पर विश्वास भी करते हैं तथा यह स्पष्ट करते हैं कि यह इतने स्पष्ट या स्थिर नहीं है जितना कि पहली बार देखने पर लगते हैं। इस आधार पर दो विरोधी अवधारणाएं अनिश्चित होती हैं तथा यह दर्शाती है कि पाठ्यवस्तु का अर्थ भी अनिश्चित है या वैसा नहीं है जैसा दिखता है।
दरिदा कहते हैं कि रचना कभी भी क्रियान्वित नहीं की जाती बल्कि यह याददाश्त कार्य द्वारा स्थापित की जाती है। देरिदा ने इसे “उपस्थित का आत्मतत्वज्ञान” कहा है। यह वह चीज है जो एक पाठवस्तु के अंदर एकसार का विचार रखती है जहां उपस्थिति को ही सत्य का विशेष अधिकार मान लिया गया है।
दोहरा अध्याय (Double Reading)
देरिदा के अनुसार यह पाठ्यवस्तु के प्रभाव को जानने की दूसरी रणनीति है। एक दोहरी रणनीति है जो एक ही समय में विश्वास करने योग्य भी है तथा हिंसात्मक भी है।
दोहरे अध्ययन का काम भी रचना के रूप में ही है जो बताता है कि यह संवाद किस प्रकार खड़ा किया गया है परंतु उसी समय साथ-साथ यह भी व्यक्त करता है कि किस प्रकार हमेशा यह अपने नाश की चुनौती को लिए हुए है।
स्टीव, स्मिथ ने दोनों अवधारणाओं की व्याख्या की है उनके अनुसार विरचना / निर्माण – विनाश इस विचार पर आधारित है कि जो स्वभाविक अवधारणाएं तथा भाषा के अंदरूनी संबंध स्थाई दिखाई देते हैं। इस प्रकार की रचना एक ऐसा उपाय है जो यह दर्शाता है कि सभी सिद्धांत बनावटी स्थायित्व पर आधारित हैं जिन्हें वस्तुनिष्ठ तथा भाषा के स्वाभाविक विरोध में उत्पन्न किया होता है।
अराजकता की संदिग्धता पर ऐशले का दोहरा अध्ययन
ऐशले अपने प्रथम वाचन में अराजकता की संदिग्धता को परंपरागत रूप से में लेता है। वह किसी सर्वोच्च अधिवक्ता की अनुपस्थिति का ही वर्णन नहीं करता बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में राज्यों की एक बहुविधता की उपस्थिति का वर्णन करता है जिनमें से कोई भी व्यक्तिगत राज्यों के कानून के अंतर्गत नहीं आती।
दूसरा वाचन शक्ति राजनीति के अराजकतावादी जगत के रूप में अंतरराष्ट्रीय संबंध की स्वार्थ सिद्धि के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इस दोहरे वाचन में सबसे पहला संप्रभुता तथा अराजकता के मध्य विरोध को निशाना बनाया गया। जहां संप्रभुता को एक नियंत्रणकारी आदर्श माना जाता है तथा अराजकता को संप्रभुता की शून्यता या अनुपस्थिति माना जाता है।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विषय का दोहरा वाचन
अंतरराष्ट्रीय संबंध विचारधारा पर भी अपनाया जा सकता है। जिसने कई प्रश्नों समस्याओं तथा अवधारणाओं की उत्पत्ति की है। हम यहां यथार्थवादी परंपरा को विशेषता इस जांच में लाते हैं जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन से थ्यूसिडाइट से शुरू हुआ फिर आगे बढ़ा और जो माक्यवेली, हॉब्स व रूसो से चलकर बीसवीं शताब्दी के यथार्थवादीयों तक पहुंचा तथा फिर उसने नव यथार्थवाद तक का सफर तय किया। यह परंपरा इतनी मेल नहीं खाती जितना यथार्थवादी विश्वास करते हैं।
संप्रभु राज्य की उत्तर आधुनिक जांच
हिंसा
डेविड कैंपबेल तथा मिक डिल्लन यह कहते हैं कि आधुनिकता में राजनीति तथा हिंसा के मध्य संबंध गंभीर रूप से द्वैधवृति है। एक और हिंसा संप्रभु समुदाय की अस्वीकृति को निर्मित करती है तथा दूसरी ओर यह वह परिस्थिति भी है जिसमें उस समुदाय के नागरिक सुरक्षित रहते हैं, इस प्रकार हिंसा दवा भी है तथा जहर भी।
उत्तर आधुनिकतावाद एक ऐसी व्याख्या की उत्पत्ति करता है जो आधुनिक राजनीति में हिंसा को स्पष्टता परंपरागत उपागमो से अलग करता है। जबकि परंपरागत उन्होंने हिंसा को अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक सामान्य तथा नियमित घटना मानते हैं जो हिंसा विरोधपूर्ण ही होती है।
पहचान
उत्तर आधुनिकतावाद उन चर्चाओं तथा व्यवहारों पर ध्यान देता है जो राजनीतिक पहचान के निर्माण में विभेद के लिए चुनौती को स्थापित करती है।
उदाहरण के लिए साइमन डालबी का कहना है कि कैसे भूराजनीतिक तर्कों के लिए शीत युद्ध अस्तित्व में आया जिसने विशेष निषेध के तथा दूसरे के भय के संबंध में सुरक्षा को परिभाषित किया। भूराजनीतिक वार्ताएं ही विश्व को स्वयं तथा अन्य में विभाजित कर निर्मित करती हैं जो विभाजन राजनीतिक क्षेत्र के मान–चित्रकरण तथा सैनिक चुनौतियों के संबंध में होता है।
अन्य की भूराजनीतिक पहचान द्वारा निर्मित होती है जो अपने आप को सुरक्षित बनाती है परंतु एक राजनीतिक पहचान तथा सुसंगत को निर्मित करते हुए यह पहचान आंतरिक मतभेदों को छुपाने की अक्सर मांग करती है। कुछ आंतरिक स्तर पर भी ‘अन्य’ हो सकते हैं जो स्वयं ही निश्चित अवधारणा के लिए खतरा पैदा करते हैं तथा अन्यो को निष्कासित किया जाना चाहिए, व इन्हे अनुशासित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
उत्तर आधुनिकतावाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में कई प्रकार से योगदान देता है। पहला वंश विज्ञान के तरीके द्वारा ज्ञान के दावों तथा राजनीतिक शक्ति तथा सत्ता के दावे के मध्य प्रगाढ़ संबंधों के अध्ययन में कई प्रकार से पर्दाफाश करने का प्रयास करता है। दूसरा, विरचना की पाठ्यवस्तु रणनीति से यह राजनीतिक तथा ज्ञानमीमांसात्मक संपूर्णता के लिए सभी दावे की सत्यता को दर्शाने का प्रयास करता है। तीसरा, उत्तर आधुनिकतावाद पुनरीक्षणयता तथा संप्रभुता की अवधारणाओं की रचना किए बगैर राजनीतिक अवधारणाओं के बारे में पुनर्विचार करने का प्रयास करता है।