तुलनात्मक राजनीति की सीमाएं | Limits of Comparative Politic’s/Analysis
तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में बहुत सारी समस्याओं या सीमाओं को देखा वा समझा जा सकता है । चाहे इसके स्वयं से जुड़े परिभाषा से हो या संस्थागत या राजनीतिक लक्ष्य से जुड़े लक्ष्य और उद्देश्य से हो । जिसका यह सही या उचित हल ढूंढ पाने में असफल रहा हो ।
इसकी प्रथम समस्या यह है कि यह राजनीति के क्षेत्र में एक मिथक तथ्य बन चुका है जो 1955 में साबित हुआ ।
1955 में ही आर सी मेकरीडिस भूतकाल के तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र के हुए प्रयासों को चुनौती दी। मेकरीडिस विचार व्यक्त करते हुए कहा कि “तुलनात्मक राजनीति अति संकुचित है क्योंकि इसकी अवधारणा केवल पाश्चात्य राजनीति पर ही टिकी है, इसीलिए यह केवल वर्णनात्मक है ना कि विश्लेषणात्मक” ।
यह केवल औपचारिक है ना की वैधानिक सबसे बड़ी बात यह है कि यह दो या दो से अधिक समाज की तुलना करने के बजाए एक पर ही ध्यान दिया है । अमेरिका के विद्वानों ने मिलकर आसंकुचित, अवैधानिक, अनौपचारिक, और विश्लेषणात्मक संस्थाओं की स्थापना की जिससे तुलना को सरल बनाया जा सके । सही रूप से देखा जाए तो इसके अंत में तथा 1960 के पहले तुलनात्मक राजनीति की अपनी कोई पहचान बनी। यह तभी संभव हो पाया क्योंकि राजनीतिक आधुनिक राजनीति विकास की अपनी संस्थाएं स्थापित हो गई ।
इसके फलस्वरूप अमेरिका में एक विस्तृत सिद्धांत Grand Theory की स्थापना की जिसके आधार पर अलग-अलग समाज की तुलना के लिए प्रतिरूप तैयार किया गया । अगर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो Grand Theory ने मूल्य, हित, विज्ञान की संरचना, समाज के सामने प्रस्तुत किया जो राजनीतिक विज्ञान के अन्य वर्गों द्वारा अपनाया गया । बाद में यह राजनीति के विषयों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया ।
तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति अति व्यापक होने के कारण यह राजनीति विज्ञान के अन्य वर्गों पर आश्रित होता है जैसे-जैसे उपागमो के लिए राजनीतिक सिद्धांत और अवधारणाओं पर निर्भर है । परिणाम स्वरूप तुलनात्मक राजनीति स्वयं की कोई स्थिति प्राप्त करने में असमर्थ रहा है जैसे दार्शनिक राजनीतिक जिसकी अपनी अलग आंतरिक विवाद है जो स्वयं उत्पन्न करता है ।
जैसा की दार्शनिक राजनीति स्वयं की पहचान बनाया है वैसे तुलनात्मक राजनीति नहीं क्योंकि उप-विषय पर तुलनात्मक राजनीति निर्भर है इसीलिए तुलनात्मक राजनीति को जरूरी है, इसका कोई केंद्रीय बिंदु, अवधारणा, और परिभाषा हो।
स्वायत्तता की स्थिति के अभाव के कारण तुलनात्मक राजनीति स्वयं के पैर पर खड़ी होने में असमर्थ है। यह ना केवल अपने आप को प्रस्तुत कर पाती है बल्कि राजनीतिक विज्ञान के उप विषयों को भी प्रदर्शित करने में असफल है । बहुत सारे केंद्रों में तुलनात्मक राजनीति को क्षेत्र विषय का भाग बना दिया गया है या अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विस्तार के लिए इसको अध्ययन का भाग बना दिया गया है या बहुत सारी संस्थाओं के अध्ययन के लिए । परिणाम स्वरुप यह कार्यात्मक बन चुकी है । विद्वानों को चाहिए कि वह तुलनात्मक राजनीति को प्रायोगिक सिद्धांत के रूप में चिन्हित करें इसको मुख्य रूप से Extension of political Theory अर्थात राजनीतिक सिद्धांत का विस्तार कहेंगे ।
तुलनात्मक राजनीति की एक अन्य समस्या यह है कि यह बहुत सारे सिद्धांतिक संदेह से भरा पड़ा है । 1970 के दशक में पीटर विंच ने इसका मुद्दा उठाया । वह अपनी पुस्तक “The Idea of social science its Relation to Philosophy (1970)” में अपने विचार को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि पार राष्ट्रीय तुलनात्मक विश्लेषण, वैश्विक वर्ग पर आधारित है जिसमें राजनीतिक और सामाजिक वर्ग एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति पर निर्भर है । जहां इन वर्गों का सीमित महत्व है। इस संबंध में पीटर विंच का कहना है कि उपरोक्त परिणाम उसी प्रकार का होगा जिस प्रकार सेब और संतरे की तुलना करने पर प्राप्त हो।
नीरा चंदहोके के अनुसार इस प्रकार एक विशेष प्रहार करने से तुलनात्मक राजनीति कभी भी वास्तविक रूप से अपना स्वयं धारणा नहीं कर सकेगी। इनके अनुसार तुलनात्मक राजनीति की एक समस्या यह है कि यह अपने अध्ययन के लिए अन्य क्षेत्रों और सरकारों पर आधारित है ।
इसके कुछ अध्ययन को साम्राज्यवाद के तरफ विशेष झुकाव के कारण असुरक्षित है या ना केवल उपनिवेशवाद के संदर्भ में सही है बल्कि आधुनिकवादी सिद्धांत में भी लागू होता है । इसीलिए विद्वान अन्य समाज के अनुभव की तुलना प्रारंभ करने से हिचकिचातें हैं क्योंकि यह निश्चित नहीं होते हैं कि समाज के अपने फ्रेमवर्क है या जनता के विचारों द्वारा तैयार किया गया है ।
नीरा चंदहोके तुलनात्मक राजनीति की अन्य समस्या बताते हुए कहती हैं कि तुलनात्मक राजनीति की एक अन्य समस्या इसकी संस्थाओं से ही उभर कर सामने आती है जो वास्तव में राष्ट्र राज्य स्वयं है । वैश्विक स्तर पर पूंजी और तकनीकी का झुकाव सांस्कृतिक, पार राष्ट्रीय मजदूरी, विस्थापन, हिंसा, सेना का हस्तक्षेप, सोमालिया और रवांडा में जहां राष्ट्रीय राज्य के सामने बहुत सी चुनौतियां थी जिसमें स्वायत्तता की मांग की जा रही थी यह सभी चिन्हित करते हैं कि किसी राष्ट्र राज्य के संस्थाओं के विचार तथा संस्कृति में समानता पाई जाती है जो 18वीं शताब्दी के बाद राजनीतिक विचारकों के अध्ययन में आया।
प्रथम संकट का परिणाम
उपनिवेशवाद के संदर्भ में तुलनात्मक विश्लेषण, उपनिवेश परियोजना की नौकरानी बनने से प्रणाली में परिवर्तन आया । सामाजिक सहायकों द्वारा इसको रोकना मुश्किल नहीं था। उपनिवेश लोग पश्चिम के लिए असाधारण बन चुके थे इस संदर्भ में उपनिवेशवाद ने तो आर्थिक, ना ही कूटनीतिक इतिहास था यह सामाजिक मनोवैज्ञानिकों के निष्कर्षों के रूप में नहीं था । उपनिवेशी लोग पश्चिम के लिए असाधारण बन गए उनके पास कोई गंभीर राजनीतिक विश्लेषण ना ही उन्हें तार्किक सत्ता, वैधता, और संविधानवाद का तत्व उपलब्ध था जिससे विश्लेषण किया जा सके । इन संस्थाओं एवं प्रयोगों के स्वयं वैधता की धारणा थी।
वफादारी सत्ता एवं कर्तव्य कभी समझे गए क्योंकि इन धारणाओं का अध्ययन किया ही नहीं गया तुलनात्मक राजनीति ने केवल कुछ देशों का अध्ययन किया जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी।
राजनीतिक संस्थाओं और यहां तक कि स्वयं राष्ट्र राज्य के सम्मुख चुनौतियों के कारण भी तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र सिमट गया है। राष्ट्र राज्य के सम्मुख में चुनौतियां भीतर और बाहर दोनों और हैं ।
Limits of Comparative Analysis by – Neera Chandhoke
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